राम कथा हिंदी में लिखी हुई-43 ram katha notes
और सुनो लक्ष्मण यदि राम तेरे सर के
भार को हल्का करने के लिए जा रहे हैं तो तुम्हें भी अपनी जिम्मेदारी याद है? लक्ष्मण
जी ने पूछा मां क्या जिम्मेदारी? माता सुमित्रा ने कहा कि
जागृत और स्वप्न में भी भगवान श्री राम, माता जानकी की सेवा
में किसी भी प्रकार का आलस, उन्माद और चूक नहीं होनी चाहिए 14
वर्ष तक। लक्ष्मण जी ने कहा कि हे माता जागृत में तो मैं पूर्ण रूप
से ध्यान रखूंगा लेकिन स्वप्न की भी अगर आप बात कह रही हैं तो यह लक्ष्मण आपका
पुत्र आपको वचन देता है कि मैं 14 वर्ष तक कभी शयन ही नहीं
करूंगा। जिससे प्रभु की सेवा में कोई कमी ना रहे।
इस प्रकार समझाकर माता सुमित्रा ने
कहा कि जाओ लक्ष्मण राम जानकी जी के साथ वन में जाओ तुम्हारा यहाँ क्या काम? अवध
तो उजाड़ हो जायेगा, कटुता बढ़ने की आसंका थी अत: सुमित्रा
कहती है कि “अवध तुम्हार काज कछु नाहीं ॥” तुम्हारे तो रामजी के साथ रहने में ही
कुशल है। गुरू, पिता, माता, बंधु, देवता और स्वामी इन सबकी सेवा प्राण के समान
करनी चाहिये, शरीर में पाँच प्राण हैं प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान उसी भाँति पाँच बहिश्चर गुरू, पिता, माता, बंधु और स्वामी प्राण हैं अतः इनकी सेवा भी
प्राण समान करनी चाहिए। रामजी तो प्राणके भी प्राण हैं सबही के स्वार्थ रहित सखा
हैं, ईश्वर का जीव से स्वार्थ रहित सख्य है।
"द्वा सुवर्णा सयुजासखाया:"
ब्रह्मजीव इव सहज समेहू ॥
इत्यादि श्रुति प्रमाण हैं अत: इन
बहिश्चर प्राणों की उपेक्षा करके भी श्रीराम-जानकी की सेवा करनी चाहिए । यहाँ
सुमित्रा माता लक्ष्मण के सब भय और संकोच का निवारण करती हैं। राम-जानकी को
माता-पिता बतलाकर उनके निवास को अयोध्या बतला कर दूर करती हैं। भाव यह कि
अन्तर्यामी रूप से रामजी सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं और प्राणों के
प्रेरक तथा प्रकाशक और जीव के भी प्रकाशक वे ही हैं, रामजी मूल हैं
माता-पिता गुरू बंधु स्वामी सुर आदि सब इस मूल के आश्रित शाखा टहनी पल्लवादि हैं,
मूल में जल सींचने से वृक्ष के सभी अंग हरे-भरे पल्लवित पुष्पित
फलित होते हैं वैसे ही श्रीरामजी की सेवा पूजा से सभी की सेवा पूजा का अन्तर्भाव
होता है। जब तक राम का प्रकाशमात्र प्राण शरीर में है तभी तक उसे देहधारी जीव की
मान्यता है। जब वह प्रकाश मिलना बंद = प्राण निकल जाता है तब वह शरीर अत्यन्त
अपवित्र अपूज्य हो जाता है क्योंकि-
"सब मानहहिं राम के नाते ॥"
जब माता ने प्रसन्नता से बन में जाने
की आज्ञा व भक्ति का आशीर्वाद दे दिया तब।( चले तुरत संकित हृदय"
) उत्तर
यही है कि समाचार पाकर कहीं उर्मिला न आ जायें और सीता की भाँति बन जाने को न मचल
पड़ें अतः भगवती उर्मिला के आ जाने की शंका से संकित हैं। कठिन जाल माँ नहीं
स्त्री होती है इसलिये प्रभु ने अकेले लक्ष्मण जी को भेजा।
लक्ष्मण जी उर्मिला जी के पास गए हैं
बहुत संकोच में खड़े हैं कुछ बोल नहीं पा रहे हैं। लेकिन माता उर्मिला वह तो सब
जानती ही थीं। बस उनको यह विश्वास था कि मेरे पति विदा लेने से पहले एक बार मुझे
आशीर्वाद देने जरूर आएंगे। उर्मिला जी को पता था कि यह मेरी परीक्षा की घड़ी है।
धीरज
धरमु मित्र और नारी। आपक काल परखिये चारी।।
उर्मिला बोलती है लक्ष्मण जी से की
हे स्वामी आप संकोच से बाहर निकलिए आप क्या सोचते हैं मुझे किसी घटना की जानकारी
नहीं है। मुझे सारी घटना की जानकारी है महाराज। इतना सुनते ही लक्ष्मण जी सावधान
हो गए। उर्मिला ने कहा हे आर्य! मैं किसी सामान्य बाप की बेटी नहीं हूं। मैं
योगीराज जनक की बेटी हूं। योग ध्यान की गोद में खेलकर पली बढ़ी हुई हूं। मुझे पता
है आप 14
वर्ष के लिए वन में जा रहे हैं, आपके मन में
यह जो संदेह है कि मैं आपसे जिद करूंगी जाने की तो इस संदेह को बाहर निकाल कर
फेंकिए स्वामी। उर्मिला जी ने कहा कि मैं आज इतनी प्रसन्न हूं महाराज जनक को पत्र
लिखकर के सूचित करने जा रही हूं कि पिताजी मेरा सुहाग धन्ष हो गया।
मेरे पति को भगवान की सेवा का अवसर
मिला है। मेरा पति 14
वर्ष के लिए वन में जा रहा है भगवान की सेवा करने के लिए। लक्ष्मण
जी जब उर्मिला जी के इन वचनों को सुना है उनके नेत्र सजल हो गए। लक्ष्मण जी कहने
लगे हे उर्मिले तुम्हारी जैसी पत्नी को पाकर मैं धन्य धन्य हो गया हूं। आज तूने
मुझे गिरने से बचा लिया। सज्जनों पत्नी का अर्थ क्या है? पत्नी
किसे कहते हैं? पत्नी वह है जो पति को गिरने से बचा ले वह
पत्नी है।
पतनात
त्रायते इति पत्नी।
यदि लक्ष्मणजी को बनवास मिला होता तो
उर्मिला किसी के भी रोके न रुकतीं पर बन तो मिला राम को,, लक्ष्मणजी
अपनी इच्छा से सेवा के लिये जा रहे हैं अत: मैं उनके इस सेवाकार्य में विघ्नाचरण
क्यों बनूँ। मेरे साथ जाने से तत्वतः सेवा नहीं कर पायेंगे अतः मेरा चुपचाप रहना
ही लक्ष्मण की सेवा है।
लक्ष्मण
जननि सुमित्रा की जय । अनुपम सती उर्मिला की जय ॥
जय-जय उर्मिला तुम्हारी गाथा | कहि न सकै कोई
अनुपम पाथा॥
उर्मिला जी के चरित्र के दिव्यता
सुंदरता का दर्शन कीजिए सज्जनों। उर्मिला जी भवन पर गई है और 16 श्रृंगार
करके और उन कपड़ों को पहना है जिन कपड़ों को पहनाकर महाराज जनक ने विदा किया था।
वह हांथ में आरती की थाल लेकर के आई उसमें दीपक प्रज्वलित हो रहा है और उर्मिला जी
ने लक्ष्मण जी की आरती उतारी। आरती उतारने के बाद प्रणाम करके बस एक ही निवेदन
किया है। हे नाथ मेरी बस आपके चरणों में एक ही प्रार्थना है आप भगवान की सेवा के
लिए 14 वर्ष को वन जा रहे हैं। आपको मेरी शुभकामना है बस
मेरी एक कामना आप सुन लीजिए। मुझे एक वचन दे दीजिए।
आज जिस थाल और दीपक से मैं आपकी आरती
उतारी हूं 14
वर्ष बाद इसी दीपक से मैं आपकी आरती उतारूंगी। मेरे दीपक को धोखा मत
देना। मेरा दीपक जलते रहना चाहिए बस इतना ही मुझे आशीर्वाद दे दीजिए। और बंधु
माताओं आपको यह जानकारी होनी चाहिए की 14 वर्ष तक माता
उर्मिला ने श्रृंगार के कपड़े नहीं उतारे। 14 वर्ष तक
उर्मिला जी ने भवन का द्वारा नहीं बंद किया। 14 वर्ष तक
उर्मिला जी ने भूमि पर शयन किया है। 14 वर्ष तक उर्मिला जी
ने अन्न ग्रहण नहीं किया। 14 वर्ष तक उर्मिला जी ने आरती के
दीपक को बुझने नहीं दिया।
अब तीनों श्रीदशरथ महाराज से विदा
माँगने जाते हैं,
मंत्री ने रामजी आये हुए हैं ऐसा प्रिय बचन कहकर उठाकर राजा को
बिठाया सीता सहित दोनों बेटों को देखकर महाराज को भारी व्याकुलता हुई। सीताजी पर
महाराज का पुत्रों से कम प्रेम नहीं है। महाराज शोक से विकल थे, रघुनंदन ने पिताजी से विदा माँगी तो महाराज ने एक अंतिम उपाय यह किया कि
राम को गोद में बिठाकर यह सोचकर कि राम के सौन्दर्य- माधुर्य निधिान मुख को देखकर
कैकई शायद पसीज जाय, इसके सौंदर्य पर बात भूल जायेगी अतः
राघवेन्द्र के मुँह को माँ कैकई की ओर मोड़कर कहने लगे देख यही सुघड़ - सलौना मुँह
बन में जा रहा है तू माँ है। रोक ले इनको अभी भी तेरे पास समय है। तब राम जी ने
कहा है पिताजी माता की आज्ञा में ही मेरा कल्याण है मैं वन को जा रहा हूं आज्ञा
दीजिए। जब दशरथज ने जाना कि रामजी धर्म धुरंधर हैं यह धर्म से नहीं हटेंगे। तब महाराज
सीता को हृदय से लगाकर समझाया की पुत्री तुम तो रुक जाओ वन का कष्ट तुम नहीं सह
पाओगेटी। लेकिन माता जानकी ने कहा क्षमा करें पिताजी अगर मैं ना जाऊंगी तो केवल
शरीर ही यहां रहेगा रघुवर के साथ मेरे प्राण भी चले जाएंगे।
श्रीलक्ष्मण जी को कोई नहीं समझाता
क्योंकि वे तो श्रीराम के बाँटे = हिस्से पड़े हुए हैं ‘लखन राम के नेव' यदि
रामजी बन जायेंगे, लक्ष्मण का साथ जाना सबको प्रिय है,
ये वीर हैं राम के साथ सब कष्ट सह लेंगे, रामजी
अकेले न रहकर भाई का साथ होगा। रामजी ने तुरंत मुनिवेष बनाया और पिता-माता को सिर
नवाकर सबको अचेत करके वहां से चले।
वहाँ से निकल कर वशिष्ठजी के दरवाजे
पर खड़े हुए देखा कि सब लोग विरह के दावानल से झुलसे हुए हैं, उनको
समझाया। इस भाँति सबको समझाने के बाद रघुवीर ने ब्राह्मण समाज को बुलाकर गुरूजी से
कहकर वर्ष भर के लिये भोजन दिया तत्पश्चात् मंगतों को दान और सम्मान से संतुष्ट
किया और मित्रों को परम प्रेम से परितोष किया। प्रेम से मिले। फिर दासी- दासों को
बुलाकर गुरूजी के सुपुर्द किया। हाथ जोड़कर बोले कि आप इनकी देखभाल माँ-बाप की
भाँति कीजियेगा और बार-बार हाथ जोड़कर सबसे कोमल वाणी से कहते हैं कि वही मेरा सब
प्रकार से हितकारी है जिससे महाराज सुखी रहें ।
मातु
सकल मोरे विरह, जेहिन हौहिं दुःखदीन ।
सोइ उपाय तुम करेहु सब, पुरजन परम प्रवीन ॥”
इस प्रकार रामजी ने सबको समझा कर
गुरूजी के चरणों में हर्षित होकर सिर नवाया और गणेश गौरी, महेश
को को मनाकर आशीर्वाद पाकर रघुराज चल पड़े। गुरूजी ने प्रत्यक्ष आशीर्वाद दिया और
गणपति, गौरी, गिरिजा ने अन्तर्हित होकर
आशीर्वाद दिया, उधर राजा की मूर्च्छा जाने पर सुमंत्र को
बुलाकर कहा तुम स्वयं रथ लेकर राम के साथ जाओ और उन्हें बन दिखाकर चार दिन में लौट
आना । यदि दोनों भाई धीर हैं ना फिरें तो सीता को लौटा लाना। यदि वह लौट आवैं तो
प्राण को सहारा मिल जाय । सुमंत्र ने राजाज्ञा पाकर सिर नवाया और अत्यन्त त्वरा के
साथ रथ जोड़कर नगर के बाहर जहाँ सीता सहित दोनों भाई थे वहाँ गये तब राम भाई सहित
सीताजी के साथ रथ पर आरूढ़ हो अवध को प्रणाम करके चले, अवध
को अनाथ देख लोग विकल होकर साथ लग गये, प्रभु कृपा सिंधु है
लोगों के कष्ट का ध्यान करके उन्हें लौटने के लिये अनेक प्रकार से समझाते हैं।
पुरवासियों को अपने-अपने घर श्मशान
की भाँति दिखाई देते हैं एक दूसरे को देखकर डर रहे हैं कुटुम्बी लोग मानों भूत
सदृश लगते हैं सबने मन में विचार किया कि राम-लक्ष्मण सीता के बिना सुख नहीं जहाँ
राम रहेंगे वहीं सब समाज रहेगा। ऐसा मंत्र दृढ़ करके बालकों और बूढ़ों को छोड़कर
सब लोग साथ हो लिये,
पहले दिन श्रीरामजी ने तमसा नदी के तीर किनारे पर वास किया। श्री
राम जी ने बहुत प्रकार से लोगों को समझाया और बहुत तेरे धर्म संबंधी उपदेश दिए
परंतु प्रेमवश लोग लौटाए नहीं लौटते। तब श्री राघव जी दुविधा में पड़ गए और जब
रात्रि में सब अयोध्यावासी शयन करने लगे रात्रि के दो पहर बीत जाने पर श्री
रामचंद्र जी ने सुमंत्र जी से कहा कि हे तात! आप रथ को इस प्रकार चलाइए की उसके रथ
के पहियों से दिशा का भान ना हो और वह चले गए।
इधर सवेरा होते ही सब लोग जागे तो
बड़ा शोर मचा की रघुनाथ जी चले गए। कहीं रथ नहीं खोज पाए। सब हा राम-हा राम करते
हुए चारों ओर दौड़ने लगे। इस प्रकार रोते कल्पते परिताप से भरे अयोध्या लौट आये, अवधि
की आशा से सब प्राण धारण किये हुए हैं, ये सब पूर्वजन्म के
तपस्वी हैं अपने स्वरूप पर आ गये नियम, व्रत श्रीराम के
दर्शन के लिये करने लगे और यहाँ तक कहा गया है कि "इन नियम व्रतों से न तो
चौदह वर्ष तक किसी का जन्म हुआ और न किसी की मृत्यु हुई।