राम कथा हिंदी में लिखी हुई-78 ram katha pdf notes dijiye
रावण मायावी कालनेम के पास गया ते
उसने भी रावण को विविध भाँति समझाया।
मैं
ते मोर मूढ़ता त्यागू । महा मोह निसि सूतत जागू ॥
काल व्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतेहु सोई ॥ "
कालनेमि कपटनिधान होने पर भी मारीच
के ढंग का भक्त तथा ज्ञानी भी था। उसने रावण को दिव्य ज्ञान दिया। हे महराज इस जगत
में सब काल के वश में हैं। श्रीराम जी काल-व्याल के भच्छक हैं।काल के भी काल हैं।
जीतने का स्वप्न देखने का भी प्रश्न नहीं है आप नहीं जीत सकते व्यर्थ में परिवार
का संहार क्यों करा रहे हैं।
यह सुनकर रावण बहुत बिगड़ा, तब
कालनेम ने विचार किया कि राम के दूत के हाथ से मरना अच्छा है। यह खल तो पाप के भार
में अनुरक्त है। तब उसने रात्रि में जाकर माया रची तालाब श्रेष्ठ मंदिर और बाग का
निर्माण कर दिया। रामजी के गुण गाथा वर्णन करने लगा। पानी माँगने पर कमंडल दिया,
हनुमान ने कहा कि थोड़े जल से तृप्ति नहीं होगी बोला कि तालाब में
स्नान करके जल्दी आओ मैं तुम्हें दीक्षा दूँ।
तालाब में घुसते ही हनुमान जी के पैर
को मकरी ने पकड़ लिया,
हनुमान जी ने उसका संघार किया। उसे दिव्य शरीर मिला, उसके लिये विमान आया और स्वर्ग जाने से पहले हनुमानजी को पूर्व जन्म की
कथा सुनाई कि मैं धान्यमाली अप्सरा थी मुनि के शाप से मुझे मकर योनि प्राप्त हुई,
मैं मुनि की अवज्ञा रूपी पाप का फल भोग रही थी । सो हे कपि तुम्हारे
दर्शन से वह पाप छूट गया जिसे तुम मुनि समझ रहे हो यह मुनि नहीं घोर राक्षस है ऐसा
मायावी है कि उसे तुम भी नहीं लख पा रहे हो, हे कपि मैं
विमान पर आरूढ़ हूँ स्वर्ग जा रही हूँ, मेरी बात सत्य मानो ।
ऐसा कहकर ज्योंही अप्सरा गई त्यों ही
उस राक्षस के पास हनुमानजी ने जाकर उसके सिर को पूँछ में लपेटकर उसे पृथ्वी पर पटक
दिया,
उसने मरते वक्त अपना शरीर प्रकट कर दिया, राम-राम
कहकर उसने प्राण छोड़ा । वहाँ से हनुमान चल दिये, जाकर पर्वत
को देखा पर औषधि की पहचान न हुई, अत: पर्वत ही उखाड़ लिया,
पर्वत लेकर रात में जैसे ही दौड़े तो अयोध्या पुरी के ऊपर चले गये।
भरतजी ने अतिविशाल देखकर अनुमान किया
कि कोई राक्षस है और उन्होंने कान तक धनुष चढ़ाकर निशाना बाँध बिना फल का वाण चला
दिया। उस वाण के लगते ही राम-राम रघुनायक स्मरण करते हुए हनुमानजी मूर्छित होकर
गिरे,
प्रिय बचन सुनकर भरतजी दौड़ पड़े और बंदर को विकल देखकर हृदय से लगा
आँखों में आँसू भरकर कहने लगे।
जौं
मोरें मन बच अरु काया । प्रीति राम पद कमल अमाया ॥
तौं कपि होउ विगत श्रम शूला । जौं मो पर रघुपति अनुकूला ॥
यदि मन वचन और शरीर से मैं श्री राम
जी के चरण कमलों में मैंने प्रेम किया है और प्रभु मुझ पर प्रसन्न है तो यह वानर
थकावट और पीड़ा रहित हो जाए। इसी समय हनुमानजी राम-राम कहकर जाग जाते हैं, कहते
हैं-
भरताग्रज
बंधु प्रणाम तुम्हें, सुतकेशरी का हनुमान कहाऊँ
।
दशसीस ने जानकी माता हरी, पवि बीच संजीवन मूल
छिपाउँ ।
पड़े लक्ष्मण मूर्छित संगर में, यह औषधि रात ही
में पहुँचाऊँ ।
प्रभु दीजिये आषिस राघव का, दुख जाके प्रभात
से पूर्व मिटाऊँ ॥"
श्री भरत जी महाराज जब हनुमान जी के
मुख से पूरा वृतांत श्रवण किये तो बड़े दुखी हो गए वह कहने लगे।
चढ़ु
मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता।।
हे तात तुमको जाने में देरी होगी और
सवेरा होते ही बात बिगड़ जाएगी इसलिए तुम पर्वत सहित मेरे बांण पर चढ़ जाओ मैं
तुमको वहां भेज दूं जहां कृपा के धाम श्री राम जी हैं। भरत जी की यह बात सुनकर के
एक बार तो हनुमान जी के मन में भी अभिमान उत्पन्न हो गया कि मेरे भार से बांण कैसे
चलेगा?
किंतु श्री रामचंद्र जी के प्रभाव का विचार करके फिर भरत जी के
चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर के बोले।
तव
प्रताप उर राखि प्रभु जेहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत।।
ऐसा कह हनुमान जी वहाँ से चल देते
हैं। वहाँ राम-लक्ष्मण को देख देख कर घबड़ा रहे हैं।
प्रभु
प्रलाप सुनि कान, विकल भये बानर निकर।
आइ गयेउ हनुमान, जिमि करुना मँह वीर रस ॥
प्रभु के श्री राघवेंद्र सरकार लीला
में ही किए गए प्रलाप को जब वानरों ने देखा सुना तो पूरा वानर समूह व्याकुल हो
गगया। तने में ही हनुमानजी आ गये बात दूसरी हो गयी, आशा का संचार तथा
उत्साह हो उठा । वैद्य ने तुरंत उपाय किया और लक्ष्मणजी प्रसन्न होकर उठ बैठे,
प्रभु ने भाई को हृदय से लगाकर आलिंगन किया। तब हनुमानजी वैद्यराज
को उसी भाँति घर समेत उठाकर लाये थे उसी भाँति लंका पहुँचा दिया।
लक्ष्मणजी को जीवित हुआ सुन रावण
भयभीत होकर कुंभकरण के समीप जाता है और उसे नाना प्रकार से जगाता है । जगा कर रावण
से बोला- आपने मुझे असमय ही क्यों जगा दिया? इन बचनों को सुनकर रावण
कुंभकरण से सारी घटना का वर्णन करता है।
दशसीस की वाणी सुनकर कुंभकरण रो पड़ा, बोला
सठ ! तू जगदम्बा हरण करके अब कल्याण चाहता है, यह तुमने
अच्छा नहीं किया। अब भी तुम अभिमान को छोड़कर राम को भजो तो ही कल्याण होगा –
बंधु
वह मानव नहीं, श्री विष्णु का अवतार है।
मोह तजि जाओ शरण, अब भी समय एकवार है।।
तुमने उस समर्थ देवता का विरोध किया
जिसके शिव,
ब्रह्मादि सेवक हैं। नारद मुनि ने जो ज्ञान मुझे कहा था वह मैं
तुम्हें सुनाता पर अब उसका समय निकल गया, हे भाई अब अंक भरके
मुससे मिल लो। मैं जाकर श्री राम को देखकर अपने नेत्रों को सफल करूँगा –
रावन
मांगेहु कोटि घट,
मद अरू महिष अनेक ॥
भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रपात
की भाँति गर्जते हुए अकेला सेना साथ न लेकर चला - रणरंग में उसका आज तक कोई पराभव
नहीं कर सका,
इसलिये दुर्मद है, उसे आता देख विभीषण आगे आकर
उसके चरणों पर गिरे और अपना नाम सुनाया, उसने उठाकर भाई को
कलेजे से लगा लिया। और बोला-
धन्य
धन्य तैं धन्य बिभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन।।
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर।।
हे विभीषण तुम धन्य हो धन्य हो! तुम
तो राक्षस कुल के भूषण हो गए जो शोभा और सुख के समुद्र श्री राम जी को तुमने भजा
है। मन वचन और कर्म से कपट छोड़कर श्री राम जी का भजन करना। हे भाई मैं काल के वश
में हो गया हूं मुझे अपना पराया नहीं सूझता इसलिए अब तुम जाओ।
भाई का वचन सुनकर विभीषण ने रामजी के पास जाकर कहा- हे नाथ ! पर्वत
का शरीर वाला रणधीर कुंभकरण आ रहा है। इतनी बात कान से सुनते ही बानर कटकटाते हुए
दौड़े। पेड़, पर्वत उखाड़ - उखाड़ कर उसके ऊपर डालने लगे,
पर उसका शरीर टाले नहीं टलता है।
तब मारुत सुत ने उसे एक घूँसा मारा
वह पृथ्वी पर गिर गया,
और अपना सिर पीटने लगा फिर उठकर उसने हनुमानजी को एक घूँसा मारा वे
भी चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर गये फिर उसने नल को पछाड़ दिया, और भी योद्धाओं को जहाँ-तहाँ पटक दिया, बंदरों की
सेना भाग चली, अत्यंत भय से संत्रस्त हो गयी, कोई सामने नहीं आ रहा है।
तब प्रभु श्री रामचंद्र जी कुंभकरण
का संघार करते हैं। तीखे बाण से उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। वह सिर जाकर रावण
के आगे गिरा। रावण ऐसा विकल हुआ जैसे मणि के बिना सर्प । कुंभकरण का तेज प्रभु के
मुख में समा गया,
देवताओं मुनियों ने आश्चर्य माना, हर्षित हो
दुंदुभी बजाई, फूल बरसाये।
बंधु माताओं इसके बाद मेघनाथ पुनः
युद्ध करने आता है अनेकों प्रकार की माया दिखाता है। नागपास चलाता है जिसमें प्रभु
लीला करते हुए स्वयं को उस नागपास के वशीभूत कर लेते हैं उस समय देवताओं को बड़ा
भय हुआ।
भगवान शंकर अपनी कथा प्रसंग में
गिरिजा को सावधान करते हुए कहते हैं कि हे गिरजे! जिनका नाम जपकर नर संसार पाश को
काट डालते हैं क्या वह प्रभु बंधन में आ सकता है? जो व्यापक है और
विश्व का निवासस्थल है। इसी अवसर पर गरुड़ को मोह हुआ था।
गरुड़ ने साँपों के समूह को पकड़ कर
खा लिया प्रभु माया से मुक्त हो गये, माया से मुक्त सब वानरी
सेना हर्षित हो उठी, वानर सेना क्रुद्ध होकर पर्वत, पेड़, पत्थर लेकर राक्षसों पर दौड़ पड़ी विकल होकर
राक्षस किले पर चढ़ गये। इसके बाद मेघनाथ अजेय यज्ञ करने लगा जिसको श्री राम जी की
आज्ञा से वानरों ने विध्वंश कर दिया और फिर मेघनाथ लक्ष्मण का युद्ध हुआ जिसमें
लक्ष्मण ने मेघनाथ पर रामाश्त्र का प्रयोग किया।
लक्ष्मण ने अपने बांण को हाथ में
लेकर एक प्रतिज्ञा किया,
यदि दाशरथि राम धर्मात्मा और सत्यसंघ हैं और पौरुष में उनके समान
कोई नहीं है तो हे वाण तुम रावण के इस बेटे को मारो - यही रामास्त्र है, इस मंत्र के उच्चारण से वह वाण रामास्त्र हो गया, उसने
उसका कलेजा बेध दिया। मेघनाथ समझ गया कि मैं अब मर रहा हूँ, सारा
जीवन कपट किया है, कपट रहते हुए मरना ठीक नहीं अत: सब कपट
छोड़कर अपने स्वरूप में आ गया।
रामानुज
कहँ राम कहँ, अस कहि छाड़ेसि प्रान ।
धन्य धन्य तब जननी, कह अंगद हनुमान ॥
सज्जनों मेघनाथ ने राम कहां? लक्ष्मण
कहां? ऐसा कहते-कहते ही अपने प्राण छोड़ दिए। अंगद हनुमान
कहने लगे धन्य हो मेघनाथ तुम तुम्हारी माता धन्य है जो मरते समय श्री राम लक्ष्मण
का स्मरण करके प्राण छोड़े। हनुमान जी मेघनाथ के धड़ को उठाकर लंका के द्वार पर रख
आते हैं, इसके सिर को लेकर लक्ष्मण राम के पास आते हैं,
सिर सुरक्षित रखा जाता है। भुजा कट कर सुलोचना के प्रांगण में जाकर
गिरती हैं, सुलोचना उस भुजा को देखकर अत्यंत चकित होकर कहने
लगी।
जो स्त्री, भोजन,
निद्रा सब त्याग करके 12 वर्ष रहे वही मेरे
पति को मार सकता है।
यदि
मैं सती सुलोचना, मन बच क्रम तुम नाथ ।
तो कर में ले लेखनी, लिखो युद्ध गुण गाथ ॥
भुजा सम्पूर्ण युद्ध वर्णन लिखती है, सुलोचना
पढ़कर व्याकुल होती है और तुरंत गृहकी बहुमूल्य वस्तुएँ दान करके रावण और मंदोदरी
से मिलकर उनकी आज्ञा ले रामादल में आती है। विभीषण उसका परिचय श्रीराम को कराते
हैं तब सुलोचना राम से सती होने के लिये अपने पति का सिर माँगने आई है। सुलोचना
राम से प्रश्न करती है, राम उत्तर देते हैं। सुलोचना बोली-
एक
नारी व्रत रामानुज राम साथ थे।
एक
नारी व्रत राम, मेरे प्राण नाथ थे ॥
दो-दो व्रत धारियों में एक हार क्यों गया?
उत्तर
दो राम मेरा कर्णधार क्यों गया?
रामबंधु
पिता प्रण पालक विरक्त है।
मेरे
पतिदेव पिता के अनन्य भक्त हैं।
दो-दो
पिता भक्त लड़े, एक जयी हो गया ।
क्यों
सुलोचना का पति रण में सो गया?
इस प्रकार सुलोचना प्रभु राघव के
चरणों में कई प्रश्न रखती है और वह अपने उदासी प्रभु के चरणों में प्रकट करती है।