राम कथा हिंदी में लिखी हुई-82 ram katha notes free download
सज्जनों जब अयोध्या के राजकुमार राम, जो
बाल्यावस्था में ही अपने दिव्य स्वभाव से सभी को मोहित करते थे, एक दिन माता कैकेयी की गोद में बैठे हुए उनसे विनम्रतापूर्वक कहते
हैं—"माता! मुझे वन की सैर करनी है, वहाँ के पशु-पक्षी,
फूल-पत्ते देखने हैं। क्या आप मुझे वन भेजेंगी?"
यह सुनकर कैकेयी हँसते हुए बालराम को गले लगा लेती हैं और प्रेमवश
कह देती हैं—"तथास्तु! जब भी तुम्हारी इच्छा हो, मैं
तुम्हें वन भेज दूँगी।" किंतु राम इस बालसुलभ वचन को गंभीरता से लेते हुए
माता से वचनबद्ध करा लेते हैं "माता, आपने मुझे वन
भेजने का वचन दिया है। भविष्य में जब भी अवसर आए, आपको इसे
पूरा करना होगा।"
यहाँ यह समझना आवश्यक है कि राम अपने
अवतारी स्वरूप से पूर्णतः सजग थे। उन्होंने जानबूझकर कैकेयी से यह वचन लिया, क्योंकि
वे जानते थे कि भविष्य में उनके चौदह वर्ष के वनवास की पृष्ठभूमि इसी वचन से
निर्मित होगी। वही क्षण था जब कैकेयी के हृदय में यह संकल्प अंकित हो गया कि
"राम की इच्छा पूर्ण करना ही उनका परम धर्म है।
वर्षों बाद जब महाराज दशरथ राम का
राज्याभिषेक करने का निर्णय लेते हैं, तब देवयोग से मंथरा नामक
दासी कैकेयी को उस वचन की याद दिलाती है। मंथरा का यह कृत्य दैवीय लीला का अंग था,
क्योंकि राम के वनवास के बिना रावण-वध और धर्म की स्थापना असंभव थी।
कैकेयी जानती थीं कि राम का राजसिंहासन पर बैठना उनके लौकिक जीवन की समाप्ति होगी,
जबकि वनवास उनके दिव्य मिशन का प्रारंभ।
अतः उन्होंने राजमहल के कोलाहल के
बीच, अपनी मातृत्व की पीड़ा को दबाकर, दशरथ से दो वर
माँगे—(१) भरत का राज्याभिषेक और (२) राम का चौदह वर्ष का वनवास। यह निर्णय
लेते समय कैकेयी का हृदय रक्त के आँसू रो रहा था, परंतु
उन्होंने स्वयं को "राम की इच्छा का पालनकर्ता" मानकर यह कठोर भूमिका
निभाई। उनकी दृष्टि में, यह वर माँगना राम को अयोध्या के
सीमित राज्य से मुक्त कर उनके असीमित विश्वमंगल के मार्ग पर अग्रसर करना था।
इस प्रसंग में कैकेयी की निर्मम छवि
बनाने वालों को यह समझना चाहिए कि राम ने स्वयं वनवास के पश्चात कैकेयी को कभी
दोषी नहीं ठहराया। उलटे,
उन्होंने लक्ष्मण से कहा—"माता कैकेयी ने मेरा हित चाहा है।
उनके कारण ही मुझे पितृसत्य, धर्मपालन और प्रजाहित का मार्ग
मिला।
वनवास के दौरान जब भरत अयोध्या लौटे
और कैकेयी को कोसने लगे,
तब राम ने उन्हें समझाया—"भरत! माता ने तुम्हें राज्य नहीं,
अपितु मुझे धर्म का राज्य दिया है। वे हमारी कुलदेवी हैं, जिन्होंने हमें सच्चे जीवन का पाठ पढ़ाया।"
माता कैकेयी वह महान नारी हैं जिन्होंने राम के अवतारी उद्देश्य को
समझकर स्वयं को "लीला का साधन" बनाया। उनका त्याग और धैर्य उस माता का
प्रतीक है जो पुत्र को सांसारिक सुखों से बाँधने के स्थान पर उसके चरित्र को अमर
बनाने का मार्ग चुनती है। आज भी यदि समाज कैकेयी को दोषी मानता है, तो यह उसकी संकीर्ण दृष्टि है। वास्तव में, वे राम
की वह सहचरी थीं जिन्होंने धर्म के लिए मातृत्व के सुख को तिलांजलि दे दी। इसलिए,
यह कथा हमें सिखाती है कि प्रत्येक घटना के पीछे दैवीय योजना होती
है, और माता कैकेयी उस योजना की वह पृष्ठभूमि हैं, जिसने रामराज्य के आधार को पुष्पित किया।
सज्जनों ध्यान दें कि रामायण की
प्रत्येक घटना "धर्म-संस्थापना" के लिए घटित हुई, न
कि व्यक्तिगत विवाद के लिए।
राज्याभिषेक
प्रसंग
सभी विप्रगण कहने लगे कि रामजी का
अभिषेक जगत के लिये सुखद है तब वशिष्ठ ने सुमंत्र से कहकर मंगल द्रव्य मँगाये तथा
सुग्रीव अंगद जामवंत हनुमान चारों समुद्रों का जल ले आये, अयोध्या
को अत्यंत सुंदर सजाया गया। उस समय ब्रह्मा, शिव, मुनि लोग तथा सब देवतागण विमानों पर चढ़कर सुख की वर्षा करने वाले श्रीराम
को देखने आये।
गुरु वशिष्ठ सोचने लगे कि इस मूर्ति
के लिये भौतिक सिंहासन उपयुक्त नहीं है, गुरूजी के तपोबल से दिव्य
लोक से दिव्य सिंहासन आ गया। उस सिंहासन का तेज सूर्य के समान था और ऐसा अलौकिक था
कि उसका वर्णन नहीं हो सकता, श्रीरामजी ब्राह्मणों को सिर
नवाकर उस पर आसीन हुए। श्रीजानकी के साथ सीतारामजी को सिंहासनारूढ़ देख मुनि समाज
अत्यंत हर्षित हुआ, ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों का उच्चारण
किया और आकाश में देवता और मुनियों ने जय जयकार किया।
प्रथम
तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।
सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी।।
प्रथम रघुकुल के पूज्य गुरू वशिष्ठजी
ने तिलक किया,
उसके बाद अन्य ब्राह्मणों ने वशिष्ठ की आज्ञा से तिलक किया। जिस
अभिषेक के लिये इतनी आकुलता थी, इस अभिषेक से अभिषिक्त बेटे
को देखकर माँ हर्षित हुई और उनकी बार-बार आरती उतारी। तथा ब्राह्मणों को अनेक
प्रकार का दान दिया, समस्त याचकों को देखकर अयाचक कर दिया।
देवता मुनि सभी आनंद पा रहे हैं। भरतजी आदि छोटे भाई, विभीषण,
अंगद और हनुमानजी क्षत्र, चमर, पंखा, तलवार, ढाल और शक्ति
धारण किये शोभायमान हैं। अलग-अलग स्तुति करके देवगण अपने-अपने लोक को गये।
भिन्न
भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम।।
तब बंदीजन का वेष धारण करके वेदों ने
आकर अनेकों प्रकार से स्तुति की । श्रीकाकभूसुंडी जी कहते हैं कि हे गरुण जी सुनिए
इसके बाद वहां पर भगवान शंकर आए उन्होंने भी बड़ी स्तुति किया प्रभु की-
जय
राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं।।
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए।।
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।
ब्रह्मा शिव आदि देवताओं ने प्रभु की
अनेक प्रकार की स्तुति करके अपने-अपने लोकों को चले गए।
ब्रह्मानंद
मगन कपि,
सबके प्रभु पद प्रीति ।
जात न जाने दिवस तिन्ह, गये मास षट बीति ॥
सभी ब्रह्मानंद में मग्न थे, सबको
प्रभु चरणों में प्रीति थी, उन्हें रात-दिन बीतने का पता न
चला, इस तरइ छ महीने व्यतीत हो गये। सभी घर भूल गये, सपने में भी याद नहीं पड़ता। तब श्रीराम ने उनको बुलाया, आकर सबने आदर के साथ सिर नवाया। अपने पास बिठा कर सुख देने वाले श्रीराम
ने मृदु बचनों से कहा, तुम सबने मेरी बड़ी सेवा की, मुख पर किस प्रकार से बड़ाई करूँ, तुमने मेरे लिये
घर का सुख छोड़ा, इसलिये तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो, मुझे मेरे दास पर अत्यंत प्रीति होती है।
अब
गृह जाहु सखा सब, भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्वगत सर्व हित, जानि करहु अति प्रेम ॥
प्रभु का बचन सुनकर सब मग्न हो गये, पहले
तो घर ही भूला था अब तो देह भी भूल गये न अपनी सुधि रही न दूसरे की, हम कौन हें कहाँ हैं? यह ख्याल भी न रहा। हाथ जोड़े
सामने खड़े एकटक रामजी को निहार रहे हैं, प्रभु ने उनका परम
प्रेम देखकर विशेष ज्ञान कहा। तब प्रभु ने गहने, कपड़े
मँगवाये जो अनेक रंग के बेजोड़ एवं सुंदर थे। पहले सुग्रीव को राम ने अपने हाथों
से कपड़े पहनाये क्योंकि उनकी अग्नि साक्षिक मैत्री थी।
सज्जनों मित्रता कैसी होनी चाहिए यह
प्रभु श्री राम का चरित्र बताता है। प्रभु श्री राम जी ने सुग्रीव जी के साथ
मित्रता की और उनको परम आनंद प्रदान किया। अगर जीवन में राम जैसे मित्र प्राप्त हो
जाएं तो जीवन कल्याण पद की प्राप्ति निश्चित रूप से करेगा। मित्र ऐसा हो जो सत्य
बोलने वाला हो,
सत्य प्रतिज्ञ हो, सब पर कृपा करने वाला हो,
धर्मज्ञ हो। लेकिन विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि हमारे जीवन
में मित्र कैसा नहीं होना चाहिए। इस विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं~
आगें
कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥
जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता
है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका
मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई
है।
एक बार उल्लू और
बाज में दोस्ती हो जाती है। दोनों साथ बैठकर खूब बातें करते हैं। बाज
ने उल्लू से कहा कि अब जब हम दोस्त बन ही गए हैं, तो मैं तुम्हारे
बच्चों पर कभी हमला नहीं करूंगा और न ही उन्हें मारकर खाऊंगा। लेकिन मेरी समस्या
यह है कि मैं उन्हें पहचानूंगा कैसे कि ये तुम्हारे ही बच्चे हैं? उल्लू ने कहा कि तुम्हारा बहुत-बहुत शुक्रिया दोस्त। मेरे बच्चों को
पहचानना कौन-सा मुश्किल है भला। वो बेहद खूबसूरत है, उनके
सुनहरे पंख हैं और उनकी आवाज़ एकदम मीठी-मधुर हैं।
बाज ने कहा ठीक है दोस्त, मैं
अब चला अपने लिए भोजन ढूंढ़ने। बाज उडते हुए एक पेड़ के पास गया। वहां उसने एक
घोसले में चार बच्चे देखे। उनका रंग काला था, वो जोर-जोर से
कर्कश आवाज में चिल्ला रहे थे। बाज ने सोचा न तो इनका रंग सुनहरा, न पंख, न ही आवाज़ मीठी-मधुर, तो
ये मेरे दोस्त उल्लू के बच्चे तो हो ही नहीं सकते। मैं इन्हें खा लेता हूँ और बाज
ने उन बच्चों को खा लिया। इतने में ही उल्लू उड़ते हुए वहाँ पहुंचा और उसने कहा कि
ये तुने क्या किया?
ये तो मेरे बच्चे थे। बाज हैरान था
कि उल्लू ने उससे झूठ बोलकर उसकी दोस्ती को भी धोखा दिया। वो वहाँ से चला गया।
उल्लू मातम मना रहा था कि तभी एक कौआ आया और उसने कहा कि अब रोने से क्या फायदा, तुमने
बाज से झूठ बोला, अपनी असली पहचान छिपाई और इसी की तुम्हें
सज़ा मिली। शिक्षा~ कभी भी अपनी असली पहचान छिपाने की भूल
नहीं करनी चाहिए। न ही दोस्तों को धोखा देने की कोशिश करनी चाहिए।
सज्जनों जब प्रभु श्री रामचंद्र सब
को विदा करने लगे-
तब
अंगद उठि नाइ सिरु, सजल नयन करि जोरि ।
अति बिनीत बोले बचन, मनहु प्रेम रस बोरि ॥”
हे नाथ! मैं आपका गोद लिया बेटा हूँ, मेरे
पिता बाली ने मरते समय आपकी गोद में सौंपते हुए कहा था-
यह तनय मम
सम बिनय बल,
कल्यान प्रद प्रभु लीजिये ।
गहि बाँह सुर नर नाह, आपन दास अंगद कीजिये।।
अतः मैं अबध में रहकर सामान्य से
सामान्य सेवा करके जीवन बिताऊँगा परंतु “अब जनि नाथ कहहु गृह जाही ॥
चाहे
राखि चरनन में किंकर बनाओ नाथ,
चाहे द्वारपाल करि द्वार पै बिठाइये ।
पै चाहे लघु सेवक बनाके अश्वशाला बीच,
मोते निज घोड़न की लीद ही भराइये ॥
चाहे नित जूँठन झराइये महल मध्य,
चाहे अबध बीथिन में झाडू लगवाइये ॥
अपनी कृपा की कोर राखिये सदैव मो पै,
जैसे चहो तैसे रखो मो को न हटाइये ॥
मोरे
तुम प्रभु गुरू पितु माता । जाऊँ कहाँ तजि पद जल जाता।।
यहाँ कुछ अंगदजी से दीनतावश चूक हो
गई कि "नीच टहल गृह के सब करिहहुँ ॥ " भगवान के यहाँ भी कोई नीच टहल
होती है?
उनका मिलना तो बड़े सौभाग्य की बात है वहाँ तो ऊँच-नीच कुछ होता ही
नहीं। अंगद के विनीत बचन सुनकर करुण सींव राम ने अंगद को उठकर हृदय से लगा लिया,
प्रभु की आँखों में जल भर आया। इससे कि राज्य सुग्रीव को दे चुके
अभी वह राज्य तुमको नहीं दे सकते, उनके पीछे तुम ही राजा
होंगे।
अपने गले की माला कपड़ा तथा मणि बाली
के बेटे को पहनाकर बहुत प्रकार से समझाकर भगवान श्रीराम ने अंगद को विदा किया । और
कहा- तुम्हारे यहाँ रखने से से हमारी अपकीर्ति होगी लोग कहेंगे राम ने दिखाने भर
के लिये अंगद को युवराज किया फिर किंकरों में रख लिया। यह तुम्हारा घर है यहाँ सदा
आते-जाते रहना। तुम्हारी माता को पति का शोक है यदि तुम न गये तो पुत्र शोक से वह
अत्यंत विह्वल हो जायेगी । प्रभु का रुख देखकर अंगद चरण कमल को हृदय में रखकर चले।
हनुमान ने राजा सुग्रीव से नाना
प्रकार से विनती की कहा कि दस दिन और राम जी की सेवा करके हे देव तब आपके चरणों का
दर्शन करूँगा। सुग्रीव बोले हे पवन कुमार तुम पुण्य पुंज्ज हो, जाकर
कृपानिधान की सेवा करो, ऐसा कहकर बंदर तुरंत चल पड़े पर अंगद
ने हनुमान से कहा, आप मेरी प्रभु से दण्डवत कहना मैं आपसे
हाथ जोड़कर कहता हूँ और बार-बार रघुनायक को मेरी याद दिलाते रहना।
असि
कहि चले बालि सुत, फिर आयेउ हनुमंत ।
तासु प्रीति प्रभु सन कही, मगन भये भगवंत ॥
फिर श्रीराम जी ने निषादराज को
बुलवाकर प्रसाद रूप से गहने कपड़े दिये और कहा कि घर जाओ, मेरा
स्मरण करना, मन बचन कर्म से धर्म का पालन करना । तुम मेरे
सखा हो, भरत के समान भाई हो, राजधानी
में सदा आते-जाते रहना। यह सुनते ही निषादराज को सुख हुआ। आँखों में आँसू भरकर
चरणों में गिर पड़े और चरण कमलों को हृदय में धारण कर घर गये। प्रभु को स्वभाव सब
कुटुम्बियों को सुनाया।