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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-83 ramayan notes pdf free download

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-83 ramayan notes pdf free download

राम राज बैंठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।

रामजी राज्य पर बैठे, तीनों लोक हर्षित हुए और सब शोक गया, कोई किसी से बैर नहीं करता था । रामराज्य में आध्यात्मिक, आधि भौतिक, और आधि दैविक ताप किसी को नहीं व्यापा, सभी एक दूसरे से प्रीति करते थे । वेद की रीति से अपने-अपने धर्मानुसार चलते थे। धर्म चारों चरणों से पूर्ण हो रहा था किसी को पाप का सपना भी नहीं होता था। स्त्री-पुरुष सब राम-भक्ति में लगे हुए थे। सब परमगति के अधिकारी थे न कोई अल्पायु होता था, न किसी को कोई पीड़ा थी ।

सज्जनों इसके बाद एक बार सनकादि कुमार आए प्रभु श्री राम जी अनेक प्रकार से उनका स्वागत करते हैं। प्रभु श्री रामचंद्र जी का दिव्य दर्शन करके वह ब्रह्मलोक को चले गए।

एक बार श्री भरत जी महाराज ने प्रभु श्री राघव जी के चरणों को पड़कर के संतों की महिमा सुनाने का आग्रह किया तब प्रभु बोले-

संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई।।

संत - असंत की पहचान उनकी करणी से होती है। कुठार की भाँति असंत आचरण करते हैं और चंदन की भाँति सन्त का आचरण होता है। कुठार चन्दन को काटता है, काटना कष्ट देने की पराकाष्ठा है भाव कि इसी प्रकार दुष्ट लोग जैसे सबका अपमान करते हैं वैसे ही संतों का भी अपमान करते हैं और संत जैसे सबको सुख देते हैं वैसे ही खलों को भी सुख देते हैं।

उमा संत की इहै बड़ाई। मन्द करत जो करहिं भलाई ॥

सज्जनों अगर देखा जाए तो वृक्षों में चंदन और जीवों में मनुष्य की एक समान स्थिति है। चंदन वृक्ष भी कई प्रकार के दुष्ट जीवों से सेवित होता है और उसी प्रकार मनुष्य भी काम, क्रोध, लोभ,मद और मोह इन दुष्ट आपदाओं से घिरा रहता है। चंदन वृक्ष इसीलिए श्रेष्ठ हो जाता है क्योंकि वह अपना स्वभाव सुगंधी और शीतलता नहीं छोड़ता और मनुष्यों में भी वही सर्वश्रेष्ठ हो जाता है जो काम क्रोध लोभ मद मोह में ना पडकर भगवत भजन करता है। और ऐसे ही मनुष्य संतकोटि में आते हैं।


चंदन वृक्ष की तरफ अगर हम दृष्टि करें तो-

मूलं भुजङ्गैः शिखरं प्लवङ्गैः। शाखा विहङ्गैः कुसुमानि भृङ्गैः।
आसेव्यते दुष्टजनैः समस्तैर्न चन्दनं मुञ्चति शीतलत्वम्।।

चन्दन के मूल में सर्प रहते हैं, शिखर पर बन्दर रहते हैं, शाखाओं पर पक्षी तथा पुष्पों पर भ्रमर रहते हैं, इस प्रकार वह चन्दन समस्त दुष्ट प्राणियों से सेवित होता है, परंतु फिर भी अपनी शीतलता को नहीं छोड़ता। चंदन तो धरती का संत है। जिसे देखो, उसी को सुख देता है, चाहे उस पर बैठने वाले कितने भी दुष्ट क्यों न हों।

कथा आधुनिक युग में स्थानांतरित होती है। एक युवा सॉफ्टवेयर इंजीनियर, जो भ्रष्ट कॉर्पोरेट संस्कृति से त्रस्त था, संत की शरण में आया। संत ने उसे चंदन की टहनी देते हुए कहा, "इसे अपने डेस्क पर रखो। जब भी तुम्हें लगे कि तनाव तुम्हारी नैतिकता को डगमगा रहा है, इसकी सुगंध को याद करो।" उसने पाया कि चंदन की तरह उसके भीतर की ईमानदारी बाहरी दबावों से अक्षुण्ण रही। उसने भ्रष्ट प्रथाओं का विरोध किया और अंततः एक नैतिक स्टार्टअप की स्थापना की।

सर्प= ईर्ष्या और कुटिलता के प्रतीक, पर चंदन उनके विष को अमृत में बदल देता है।
बंदर= मन की चंचलता, जो शिखर (लक्ष्य) पर कब्जा करना चाहती है, पर वृक्ष अपनी ऊर्ध्वगामी प्रकृति नहीं छोड़ता।
भ्रमर = भौतिकवादी समाज जो फूलों (सुखों) का रस चूसता है, पर पुष्प फिर भी खिलते रहते हैं।

15वीं शताब्दी में संत कबीर ने इसी सिद्धांत को व्यक्त किया था:
"कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।"

सज्जनों रोचक बात यह है कि वैज्ञानिक शोधों के अनुसार चंदन का तेल वास्तव में तनाव कम करने वाले सेरोटोनिन हार्मोन को बढ़ाता है। जिस वृक्ष के आस-पास विषैले सर्प रहते हैं, वह मानव मन के लिए औषधि बन जाता है – ठीक उसी प्रकार जैसे संत विषम परिस्थितियों में भी मानवता के लिए शांति का स्रोत बने रहते हैं।

संतों का अक्रोध - श्री एकनाथ जी की परम सहनशीलता की एक सच्ची घटना। दक्षिण के संत श्री एकनाथ जी महाराज--- अक्रोध तो जैसे एकनाथ जी का स्वरूप ही था। ये परम भागवत योगीराज--- नित्य गोदावरी स्नान करने जाया करते थे वे। बात पैठणकी है , जो एक नाथ जी की पावन जन्म भूमि है। गोदावरी स्नान के मार्ग में एक सराय पढ़ती थी। उस सराय में एक पठान रहता था। वह उस मार्ग से आने जाने वाले हिंदुओं को बहुत तंग किया करता था।

एकनाथ जी महाराज को भी उसने बहुत तंग किया। एकनाथजी जब स्नान करके लौटते , वह पठान उनके ऊपर कुल्ला कर देता। एकनाथजी फिर स्नान करने नदी लौट जाते और जब स्नान करके आने लगते , वह फिर कुल्ला कर देता उनके ऊपर। कभी-कभी पाँच-पाँच बार यह काण्ड होता।

वह सोचने लगा यह काफिर गुस्सा क्यों नहीं करता ? एक दिन पठान जिद पर आ गया। वह बार-बार कुल्ला करता गया और एकनाथ जी बार-बार गोदावरी स्नान करने लौटते गए। पूरे 108 उस बार उसने कुल्ले किए और पूरे 108 बार एकनाथ जी ने नदी में स्नान किया।

तब पठान उनकी महिमा जानकर जाकर उनके चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा। आप मुझे माफ कर दें। मैं तोबा करता हूं | अब किसी को तंग नहीं करूंगा | आप खुदा के सच्चे बंदे हैं--- माफ कर दें मुझे। अंत में पठान को अपने कर्म पर लज्जा आयी | उसके भीतर की पशुता संत की क्षमा से पराजित हो गई | वह एकनाथ जी के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा। बंधु माताओं संत के विचारों का दर्शन करिए। उन संत भगवान एकनाथ जी ने उस पठान से कहा इसमे क्षमा करने की क्या बात है। आपकी कृपा से मुझे आज 108 बार स्नान करने का सुअवसर मिल। श्री एकनाथ जी महाराज बड़े ही प्रसन्न मन से उस यवन को आश्वासन दे रहे थे।

तो ऐसा होता है संतों का स्वभाव अनेकों कथाएं हैं जो संत महिमा को प्रदर्शित करती हैं। यह संत का पहला लक्षण है। सुख देखकर सुखी होते हैं पराया दु:ख देखकर दु:खी होते हैं।

अब दूसरा लक्षण कहते हैं संत लोग भी जीवन धारण के लिये कुछ विषय का सेवन करते हैं पर वे उनमें आसक्त नहीं होते।



असंतों के लक्षण-

सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ । भूलेउ संगति करिअ न काऊ ॥

यहाँ स्वभाव ही लक्षण है उनके संग से सत्य, शौच, दया, मौन, बुद्धि, श्री, लज्जा, यश, क्षमा, शम, दम, ऐश्वर्यादि समस्त सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। असंत पुरुषों का संग भूल करके भी कभी नहीं करना चाहिए। उन खलों के हृदय में अत्यंत विशेष ताप रहता है पराई सम्पत्ति को देखकर जला करते हैं। जहाँ कहीं पराई निंदा सुनते हैं तो ऐसे हर्षित होते हैं मानों पड़ी हुई निधि मिल गई। माँ-बाप गुरू ब्राह्मण को नहीं मानते। ऐसे अधम खल मनुष्य सतयुग त्रेता में नहीं होते द्वापर में थोड़े ही ऐसे होते हैं। पर ऐसों की बहुतायत कलियुग में होती है।

परहित सरिस धर्म नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
निरनय सकल पुरान वेदकर कहेउ तात जानेहु कोविद नर ॥

दूसरे के हित करने के समान कोई धर्म नहीं है, दूसरे को पीड़ा देने के समान कोई पाप नहीं है। वेदों के विभाग करने वाले सभी पुराणों के रचियता व्यासजी ने यही कहा है-

अष्टादस पुराणेषु व्यासस्य वचन द्वयम।
परोपकारः पुण्याप पादाय पर पीड़िनम् ॥

सभी धर्मों से बड़ा धर्म परोपकार है। मनुष्य का शरीर धारण कर जो दूसरे को पीड़ा देते हैं वे संसार का महाकष्ट भोगते हैं मोहवश होकर मनुष्य अनेक प्रकार के पाप करते हैं स्वार्थ से लोक का नाश कर डालते हैं।
प्रभु श्री रामचंद्र जी भरत जी से कहते हैं-

सुनहु तात माया कृत, गुन और दोष अनेक।

न सब गुण कहे जा सकते हैं न दोष ही कहे जा सकते हैं, ये दोनों माया के कार्य हैं, इनकी संख्या नहीं है इस मायिक संसार में -इन्द्रियों की गति जहाँ तक देखना सुनना और जानना है वह सभी माया है। यह संसार माया का ही परिवार है यह अमित और अपरम्पार है कौन इसको कह सकता है, यह मायामय अर्थात् झूठ है- "ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या" ब्रह्म ही केवल सत्य है


सज्जनों यह मनुष्य देह बड़ी दुर्लभ है जो परमात्मा के विशेष अनुग्रह के बाद हम सबको प्राप्त हुआ है । एक बार रामजी ने पुरवासियों को बुलवाया, गुरू ब्राह्मण और सब पुरवासी आये, सभी सभा में बैठे तब भक्त के भव भंजन करने वाले श्रीरामजी बोले - सब पुरजनों मेरी बात सुनो, मैं कुछ ममता मन में लाकर नहीं कह रहा हूँ, न इसमें अनीति है न प्रभुता है मेरी बातें सुन लो फिर जिसकी जैसी इच्छा हो वैसा करो। मेरा सेवक वही है जो मेरी आज्ञा मानता है।

बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।

बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इस मनुष्य शरीर को पाकर भी जिसने परलोक ना बना लिया वह 84 लाख योनियों में भटकता रहता है दुख को प्राप्त करता रहता है। अपना दोष ना समझ कर वह काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है।

जब सृष्टि का आरम्भ किया तो अनेक शरीर बनाये पर चित्त किसी से प्रसन्न न हुआ, जब मनुष्य शरीर बनाया तब ब्रह्मा प्रसन्न हो उठे। यह बहुत ही अच्छा है “साधन धाम मोक्ष कर द्वारा" धाम और द्वार कहकर सूचित किया कि इस मनुष्य शरीर के भीतर मोक्ष और बाहर संसार है। अन्य शरीरों में प्रकृति के बश ही कार्य करना होता है।

व्याघ्र जो लाख वर्ष पहले रहते थे वैसे अब भी रहते हैं, मनुष्य बीस वर्ष पहले रहता था वैसे अब नहीं रहता। यह प्रकृति के शासन के अतिक्रमण का सामर्थ्य रखता है। देवतागण इसे चाहते हैं पर मिलता नहीं, देव शरीर भोग शरीर है और अन्य सभी जीव भोग योनियों से आते हैं पर यह मनुष्य ही कर्म योनी से आता है।

मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है और भारतवर्ष में जन्म पाना बड़ा ही दुर्लभ । मनुष्य जीवन इतना पूर्ण है कि उसमें भजन के लिये कोई असुविधा नहीं है। इसे पाकरके जो अपनी मतिगति असत संसार में लगा देते हैं तथा तुच्छ विषय सुख के लिये प्रयत्न करते हुए घर गृहस्थी रूपी अन्धकूप में पड़े रहते हैं। 

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