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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-84 ram kathanak pdf free download

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भगवान के चरणारबिन्दों का भजन नहीं करते वे पशु के समान हैं। यह नर शरीर ही संसार सागर से पार जाने के लिये एक नौका रूप है। मनुष्य शरीर रूपी दरवाजे में से निकट पहुँचकर दरवाजे से जो लौट आवे और भव में पड़े तो उससे अधिक अभागा कौन होगा ? यहाँ पर शिवजी पार्वती से कहते हैं कि राजा सच्चिदानंद घन ब्रह्म राम राजा हैं वहाँ प्रजा कृतार्थ रूप क्यों न हो ?

राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापः समे समा।
राजा न मनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा ॥

राजा के धर्मात्मा होने पर प्रजा भी धर्मात्मा होती है, पापी होने पर पापी होती है। सम होने पर सम होती है राजा का ही अनुशरण पृजा करती है।जैसा राजा होता है वैसी प्रजा होती है। यहाँ ब्रह्म श्रीरामजी राजा हैं, अतः प्रजा भी ब्रह्ममय कृतकृत्य है।

एक बार जहाँ सुख के धाम नयनाभिराम रामजी थे वहाँ वशिष्ठ मुनि आये, प्रभु ने अत्यंत आदर किया। उन्होंने जान लिया कि साकेत यात्रा निकट है। वशिष्ठजी नित्य ही वेद पुराण की कथा कहने आते थे। एकान्त में आने में कुछ अभिप्राय है । विश्राम के लिये सुखधाम के यहाँ आये, नामकरण में उन्होंने ही कहा था - "सो सुख धाम राम असनामा ॥"

भगवान श्रीरामजी के आदर को मुनि वशिष्ठजी बहुत दिन से सह रहे थे। आज नहीं सह सके खुल पड़े। हाथ जोड़ कर बोले- वे सदैव राम ही सम्बोधन करके बोले थे, आज कृपासिंधु कहने का भाव यह कि मेरे ऊपर भी कृपा हो। पुरजनों पर तो कृपा की, उनके सामने आपने अपने स्वरूप का वर्णन कर दिया - "भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ॥" परंतु मेरे साथ वैसा अपनायत का व्यवहार नहीं किया, अब इस आदर से काम न चलेगा। जब देखो आप ही विनती करते हैं मुझे विनती का अवसर ही नहीं देते सो आज आप मेरी विनती सुनिये ।

राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी।।
देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा।।
महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना।।

सब शिष्य की भाँति जो आचरण आप मेरे साथ करते हैं, गुरु चरण प्रक्षालन, चरणोदक आदि ग्रहण करते हैं। इससे मेरे मन में अपार मोह होता है। बार-बार प्रयत्न करने पर भी हठात तुम्हारे ऊपर नर बुद्धि होने लगती है, यही अपार मोह है जिसका पार पाना मेरे लिये कठिन हो रहा है और मोह से कभी कल्याण हो नहीं सकता । जिसे वेद भी नहीं जानता ऐसी अपार महिमा मैं उसे कैसे वर्णन कर सकता हूँ? हे भगवन मैं पुरोहित कर्म स्वीकार नहीं करना चाहता था पर ब्रह्म देव ने कहा बेटा! आगे चलकर तुमको इससे लाभ होगा, परमात्मा ब्रह्म नर रूप धारण करके रघुकुल भूषण राजा होंगे तब उनकी प्राप्ति तुम्हें यजमान के रूप में होगी।

भगवान की प्राप्ति जिस कर्म से हो उसके बराबर धर्म और कुछ नहीं है जप, तप, नियम योग स्वधर्म वेद विहित कर्म ज्ञान, दया, दम जहाँ तक धर्म वेद और सज्जनों ने बतलाये उन सभी का एक ही फल है आपके चरणार विंदों में निरंतर प्रेम हो, सब साधनों का यही सुन्दर फल है। हे नाथ श्री राम जी मैं आपसे एक बार मांगता हूं कृपा करके दीजिए आपके चरण कमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मांतर में कभी ना घटे।

सज्जनों यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जो वरदान वशिष्ठ जी मांग रहे हैं वह उनको पहले से ही प्राप्त है इसलिए वह यहां पर कह रहे हैं कि वह प्रेम कभी घटे नहीं। वशिष्ठ जी महाराज के वचन सुनकर प्रभु श्री राघव प्रसन्न हो गए। भगवान शंकर भवानी से कहते हैं-

गिरिजा सुनहु विशद यह कथा | मैं सब कही मोरि मति जथा ॥

रामचरित सत कोटि अपारा । श्रुति सारदा न वरनै पारा ॥

जो आकाश की भाँति असीम हो उसका पार कोई कैसे पा सकता है ? राम अनंत हैं उनके गुण अनंत हैं उनके जन्म, कर्म और नाम अनंत हैं। जल की बूँदें और पृथ्वी के रजकण चाहे गिन लिये जायें पर रामजी के चरित्र वर्णन करके समाप्त नहीं किये जा सकते। यह निर्मल कथा हरिपद के देने वाली है इनके सुनने से अनपायिनी भक्ति प्राप्त होती है। हे उमा मैंने सब राम कथा सुनाई जो भुशुडिजी ने गरुड़ को सुनाई थी। मैंने थोड़ा सा रामजी के गुणों का बखान करके कहा अब क्या कहें? हे भवानी बतलाओ।

प्रभु कथा सुनकर उमा प्रसन्न हो गयीं और बोलीं- हे नाथ आपने बड़ी कृपा की मुझ पर कि यह रघुनाथ जी की कथा आपने कही।

राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं।।

जिसका मन रामचरित सुनने से ऊब उठता है उसने कथा के रस विशेष को जान नहीं पाया। जो जीवन मुक्त महामुनि सनकादि हैं वे भी हरि के गुणों को निरंतर सुना करते हैं। उमा ने कहा कि आप इस शंका का समाधान कर दीजिये जिसे वैराग्य, ज्ञान, दृढ़ हो, उसकी तो मुक्ति हो जानी चाहिये थी। जिसे रामचरित में अति प्रेम हो उसे कृत-कृत्य होना चाहिए। उसको चाण्डाल पक्षी काक का शरीर कैसे मिला ? और काक शरीर मिला भी तो उसमें राम-भक्ति कैसे हुई ? रामभक्ति तो सब पुण्यों का फल है, काक शरीर उस फल के सर्वथा अयोग्य है अत: इस विषय में मुझे परम संदेह है। क्योंकि-

नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी।।
धर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई।।

हे पुरारी - सहस्रों मनुष्यों में कोई एक धर्मव्रत धारण करने वाला होता है। करोड़ों धर्मशीलों में कोई एक विषय से हटकर वैराग्यवान होता है। इन सबसे वह दुर्लभ है जो राम-भक्ति में रत हो और यह माया जिसकी छूट गयी हो इस हरि भक्ति को काग ने कहाँ से पाया ? हे विश्वनाथ मुझे समझाकर कहो। परम संदेह समझाकर कहने से ही जाता है।

नाथ कहहु केहि कारन, पायउ काक शरीर ॥

राम प्रेमी को साकेत लोक की प्राप्ति होनी चाहिए, ज्ञानरत को मोक्ष होना चाहिए था। गुणगार मति धीर को यदि किसी कारण से जन्म भी लेना हो तो पवित्र श्रीमान के घर में या योगी के घर में जन्म होना चाहिए था। उसका जन्म काक योनि में कैसे हुआ ? भुशुण्डिजी में ये सब जो गुण विद्यमान हैं और उनका काक शरीर भी है इन दोनों बातों में सामंजस्य नहीं बैठता। और सबसे बड़ा कौतुक यह है कि काक जब कहता था तो आप कैसे जाकर उनके श्रोता बने ? आप कामारि हैं और काक कामी पक्षी है-“कामी काकलबलाक विचारे" सो कामी वक्ता हो और कामारि श्रोता हो, इससे बढ़कर आश्चर्य क्या होगा?

नियम यह है कि अपने से उत्कृष्ट के यहाँ ही लोग कथा सुनने जाते हैं यहाँ तो गरुड़जी श्रोता हैं, कहाँ महाज्ञानी गरुड़, कहाँ मतिमन्द काक। सो ऐसे के यहाँ पक्षियों के राजा गरुड़जी कथा सुनने क्यों गये? क्या उनको बैकुण्ठ में मुनि नहीं मिले जो उन्हें छोड़कर काग के पास गये ।

प्रश्न उमा के सहज सुहाई । छल बिहीन सुनि शिव मन भाई ॥

शिवजी कहते हैं- पहले दक्ष के घर तुम्हारा अवतार हुआ था उस समय तुम्हारा नाम सती था । दक्ष यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ, तुमने अत्यंत क्रोध से प्राण परित्याग किया, मेरे गणों ने दक्ष का यज्ञ विध्वंस किया तुमको वह सब बातें मालूम ही हैं, तब मेरे मन में अत्यंत सोच हुआ और हे प्रिये मैं तेरे वियोग में दु:खी होता हुआ सुंदर बन पर्वत और तालाबों का कौतुक राग रहित होकर देखता फिरता था । उत्तर दिशा में बहुत दूर पर सुमेरू पर्वत है वहाँ एक नीला पर्वत है जो अत्यंत सुंदर है उस पर्वत पर चार सुवर्णमय शिखर हैं वह ऐसे सुंदर हैं कि वे मुझे बहुत अच्छे लगे उन शिखरों पर क्रम से बरगद, पीपल, पाकर और आम के एक-एक वृक्ष हैं।

पर्वत पर सुन्दर तालाब शोभायमान है जिसमें मणि की सीढ़ियाँ लगी हैं जिन्हें देखकर मन मोह जाता है। उसका जल शीतल निर्मल और मधुर है उसमे अनेक रंग के कमल हैं, हंस मीठे सुर से कूँजते हैं और भौरे सुन्दर गुंजार करते हैं, उसी सुंदर पर्वत पर काक पक्षी बसता है जिसका कल्प के अंत में भी नाश नहीं होता क्योंकि माया वहाँ नहीं व्यापती, वह उस पर्वत के निकट तो जा ही नहीं पाती तब भुशुण्डिजी के पास जाना तो दूर ही रहा । काल भी मायाकृत है अत: वह भी नहीं व्यापता ।

माया के किये हुए गुण दोष सारे संसार में व्याप रहे हैं पर उस पर्वत के पास कभी नहीं जाते वहाँ बसकर जिस प्रकार वह काक भजन करते हैं, हे उमा ! वह सब प्रेम सहित सुनो- पीपल वृक्ष के तले ध्यान करता था । सतयुग में, त्रेता में यज्ञ की विधि है और उसे यज्ञ का अधिकार नहीं अतः पाकर के तले जप यज्ञ करता था । द्वापर में पूजा का विधान है और पूजा में भी काक का अधिकार नहीं अत: आम तले मानस पूजा करता था।

तव कछु काल मराल तनु, धरि तहँ कीन्ह निवास ।

हे देवी तब मैंने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहीं निवास किया और श्री रघुनाथ जी के गुणों को आदर सहित सुनकर फिर कैलाश लौट आया। हे पार्वती मैंने वह सब इतिहास कहा कि मैं जिस समय उस पक्षी के पास गया मुझे शांति मिली ।

अब वह कथा सुनो जिस कारण से गरुड़ काग के पास गये-श्रीराम ने जब रण लीला की। उस चरित्र को स्मरण करके मुझे संकोच होता है इन्द्रजीत के हाथों से श्रीराम ने अपने को नागपाश में बँधवा लिया तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा। गरुड़जी ने बंधन काट दिया पर उनके हृदय में प्रचंड विवाद उपजा, विचार करने लगे व्यापक ब्रह्म रज से रहित वाणी के प्रभु मायामोह से परे परमेश्वर ने संसार में अवतार धारण किया, ऐसा सुना पर वैसा प्रभाव तो कुछ दिखाई नहीं पड़ा। जिनका नाम जपकर मनष्य भवबंधन से छूट जाते हैं उन्हीं राम को तुच्छ राक्षस ने नागपाश में बाँध लिया।

व्याकुल हो नारदजी के पास जाकर जो मन में संशय था कह सुनाया, रामजी की प्रबल माया देख नारदजी को दया आई। जो ज्ञानियों के ज्ञान को हरण करती है बलपूर्वक उसे विशेष मोह में डाल देती है जिसने अनेक बार मुझे भी नचाया है वही हे विहंग तुम्हें व्याप्त हो गयी। तुम्हारे हृदय में महामोह उपजा है वह मेरे कहने से जल्दी नहीं मिटेगा तुम ब्रह्मदेव के पास जाओ वे जो आज्ञा दें वही करो तब गरुड़ ने ब्रह्मा के पास जाकर अपना संदेह कह सुनाया, ब्रह्मा ने राम की माया को सिर नवाया ।

ब्रह्मा जी गरुड़ से बोले महादेव जी ही श्रीरामजी की प्रभुता को जानते हैं सो शंकरजी के पास जाओ, हे तात अन्यत्र किसी से न पूछना, वहीं सब संशय की हानि होगी। गरुड़जी ब्रह्मा की वाणी सुन आतुर होकर मेरे पास आये, मैं कुबेर के पास जा रहा था। उमा तुम कैलाश में थीं उसने मेरे चरणों में सिर नवाया और अपना संदेह सुनाया। उसकी विनीत वाणी सुन मैंने प्रेम के साथ कहा गरुड़ जी तुम मुझे रास्ते में मिले किस प्रकार से तुम्हें समझाऊ जब बहुत दिनों तक सत्संग किया जाय तभी सब संशय दूर होते हैं भाई जहाँ सदा हरि की कथा होती है मैं तुमको वहीं भेजता हूँ तुम जाकर रामकथा सुनो। उससे ही सारा संदेह जाता रहगा और श्रीरामजी के चरणों में अत्यन्त प्रेम होगा।

उत्तर दिशा में एक सुन्दर नीलगिरि पर्वत है वहाँ भुशुण्डि नाम का एक काग रहता है वह रामभक्ति के पथ में बड़ा प्रवीण है ज्ञानी है गुणों का घर है और बहुत दिनों का है। वह सदा रामकथा कहा करता है और अनेक प्रकार के श्रेष्ठ पक्षी हंसादि आदर के साथ सुना करते हैं जाकर वहीं भगवान के गुण समूह सुनो । मोह से उत्पन्न तुम्हारा दु:ख दूर होगा। मैंने उसे जब सब कथा सुनाई तो वह हर्षित हो मेरे चरणों में सिर नवाकर चला गया ।

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