राम कथा हिंदी में लिखी हुई-85 ram katha hindi pdf free download
हे उमा ! मैंने उसे इस कारण से नहीं
समझाया क्योंकि श्रीराम की कृपा से मुझे मर्म मालूम हो गया था कि कभी इसने अभिमान
किया होगा दया सागर श्रीरामजी उस अभिमान को नष्ट करना चाहते हैं। और इस कारण से भी
अपने पास नहीं रखा कि पक्षी पक्षी की ही बोली अच्छी तरह समझते हैं।
शिव व ब्रह्मा ईश्वर कोटि में हैं
श्रीराम की माया उनको भी मोह लेती है औरों की तो जीव में गणना है, उनकी
क्या गिनती है इसी कारण मुनिगण मायापति श्रीरामजी को भजते हैं क्योंकि मायापति का
कथन है- "
मामेव
ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते" (गीता)
जो मेरी ही शरण आते हैं वे माया से
तर जाते हैं नहीं तो मेरी माया गुणमयी है यह उल्लंघन नहीं की जा सकती । गरुड़जी
शिवजी के चरणों में प्रणाम करके जहाँ भुशुण्डिजी रहते थे वहाँ पहुँचे जिन्हें
तीव्र बुद्धि और अखंड हरिभक्ति थी जिसकी धारा टूटती ही नहीं, नीलगिरि
पर्वत को देखते ही गरुड़जी का मन प्रसन्न हो गया जो माया मोह सोच भ्रम ब्रह्मलोक
में जाने से नहीं गया कैलाश में नहीं गया, अलकापुरी में नहीं
गया वह नील पर्वत के दर्शनमात्र से भाग गया। यह परम भक्त के आश्रम की महिमा है।
शैलोपरि
सर सुंदर सोहा । मनि सो पान देखि मन मोहा ॥
उस तड़ाग = तालाब को देखकर गरुड़जी
ने पहले उसमें स्नान किया और उस पवित्र जल का पान किया। तब हर्षित होकर बरगद के तले
गये जहाँ पक्षियों की बड़ी भारी भीड़ जुड़ी हुई है समझ लिया कि यहीं कथा हो रही है।
बूढ़े-बूढ़े पक्षी वहाँ एकत्र हुए थे, पक्षियों को भी श्रीराम के
चरित्र प्रिय लगते हैं। भुशुण्डि कथा प्रारम्भ करना ही चाहते थे उसी समय गरुड़जी
पहुँचे, सबने देखा कि पक्षी राज चले आ रहे हैं तो काकजी समाज
सहित हर्षित हो उठे। पक्षीराज का बड़ा आदर किया, स्वागत पूछकर
सुन्दर आसन दिया, अनुराग के सहित भुशुण्डिजी ने गरुड़जी का
पूजन किया है और बोले-
नाथ
कृतारथ भयउ मैं, तब दरसन खग राज ।
आयुस देहु सो करहुँ अब, प्रभु आयेहु केहि काज
॥
मैं आपके दर्शन से कृतकृत्य हो गया
अब आप जो आज्ञा दें सो मैं करूँ। आप प्रभु होकर आये अत: प्रयोजन कहिये। गरुड़ ने
मीठी वाणी से कहा कि आप अपने को इस समय कृतकृत्य होना कहते हैं पर वस्तुस्थिति ऐसी
है कि आप तो सदा कृतार्थ रूप हैं जिसकी स्तुति महादेव ने श्रीमुख से आदर के साथ
की। हे तात सुनो - जिसके लिये मैं आया सो सब हो गया, आपका दर्शन मुझे
मिला, आपका परम पवित्र आश्रम देखकर मेरा मोह संशय और नाना
प्रकार के भ्रम सब दूर हो गये अब श्रीरामजी की अति पावनी कथा जो सुख देने वाली तथा
दुःख पुंज्ज का नाश करने वाली है आदर के साथ मुझे सुनाइये ।
भुसुण्डि द्वारा गरुड़जी को कथा कहना
सुनत
गरुड़ कै गिरा विनीता । सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता।।
भयउ तासु मन परम उछाहा । लाग कहइ रघुपति गुन गाहा।।
विनय आदि पाँचों वाणी के गुण हैं, ऐसी
ही वाणी सुनकर कहने वाले का जी उमगता है। विनम्र, सरल,
सुंदर, सुखप्रद, पवित्र
वाणी आविर्भाव हुआ, स्वयं रामजी का रूप हृदय आ गया
भुशुण्डिजी ने कहना प्रारम्भ कर दिया । उसने अति अनुराग से रामचरित सर को बखान कर
कहा जिसके हंस स्वयं प्रभु हैं “जय महेश मन मानस हंसा । उन्होंने नारद के अपार मोह
की कथा कही नारद को काम जय का अभिमान हुआ उसके उन्मूलन के लिये रामजी ने अपनी माया
को प्रेरणा की जिसने उन्हें ऐसा नचाया कि ब्रह्मचर्य व्रत स्थित प्रज्ञता सब भूल
गये।
फिर रावण का अवतार कहा, रामजी
की भाँति ही रावण अवतीर्ण होते हैं, रावण साक्षात रुद्रगण
था। नारद के शाप से राक्षस रूप में अवतीर्ण होना पड़ा। प्रभु के अवतार कथा का गान
किया। शिशु चरित को मन लगाकर कहा जिसमें स्वयं इन्हें मोह हो गया था। तत्पश्चात्
अनेक प्रकार से बाल चरित कहा। प्रभु के वन गमन से लेकर सीता हरण, रावण मरण और अयोध्या आगमन। भुसुण्डिजी ने वह सब कथाकह डाली जो कि हे भवानी
तुमसे कही है।
रामजी की कथा सुनकर गरुड़जी ने बड़े
उत्साह में मन से वचन कहे आपके प्रसाद ने मुझे श्रीरामजी के चरणों में प्रेम हुआ-
प्रभु कारण में मुझे बंधन देखकर मुझे अत्यंत मोह हुआ । एकदम मनुष्य जैसा चरित्र
देखकर मेरे मन में भारी संशय हुआ। उसी भ्रम को अब मैं कल्याणकारी समझता हूँ।
कृपानिधान ने बड़ा अनुग्रह किया । यदि मुझे मोह न हुआ होता तो तुमसे यह यहाँ आकर
कैसे मिलता?
आपकी छाया में मेरी रक्षा हुई । आतप से विकल होने से ही तरुछाया की
खोज हुई और तब आप मिले।
इस सुन्दर हरि कथा को मैं कैसे सुनता, उसे
ही विशुद्ध संत की संगति मिलती है जिसे रामजी कृपा कर देखते हैं रामकृपा से ही
आपका दर्शन हुआ और आपके प्रसाद से मेरा संशय गया ।
बिनु
हरि कृपा मिलहिं नहिं संता । सतसंगत संसृत कर अंता ॥
पक्षीराज की विनय और अनुराग युक्त
वाणी सुनकर भुसुण्डिजी को पुलक हो गया और नेत्रों में जल भर आया । वे मन में बड़े
प्रसन्न हुए।
सज्जनों शोक संसार वृक्ष का बीज है।
जब तक शोक है ब्रह्मज्ञान हो नहीं सकता। चिंताग्रस्त मनुष्य जीते ही मरा हुआ है, चिता
तो मरने पर जलाती है पर चिंता तो जीते जी मनुष्य को जला डालती है-
चिता
चिंता समाख्याता किंतु चिंता गरीयसी ।
चिता दहति निर्जीव सजीव को दह्यतेऽनया
जो भी संसार में आया उसे माया
व्यापती है-
भूमि
परत भाढ़ा बर पानी । जिमि जीवहि माया लपटानी ॥"
जिस माया ने सम्पूर्ण संसार को नचाया
और जिसके चरित्र को कोई लख नहीं पाया वही प्रभु के मोह के इशारे पर समाज के सहित
नटी की भाँति नाँचती है।
राम-रहस्य
सुनु
खगेश रघुपति प्रभुताई। कहो जथामति कथा सुहाई ॥
जेही विधि मोह भयउ प्रभु मोही । सो सब कथा सुनावौ तोहि ॥
हे पक्षीराज गरुड़ जी रघुनाथ जी की
प्रभुता सुनिए मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वह सुहावनी कथा कहता हूं। मुझे जिस
प्रकार मोह हुआ वह सब कथा भी आपको सुनाता हूं। जब-जब श्री रामचंद्र जी मनुष्य शरीर
धारण करते हैं और भक्तों के लिए बहुत सी लीलाएं करते हैं।
जब
जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं ॥
तब तब अवधपुरी मैं जाऊँ । बाल चरित बिलोकि हरषाऊँ ॥
मैं उनके जन्म महोत्सव पर ही पहुँच
जाता हूँ और पाँच वर्ष तक वहीं ठहर जाता हूँ ऐसा लुब्ध हो जाता हूँ कि वे चरण
मुझसे छूटते नहीं। हे गरुड़जी! मैं अपने प्रभु का मुख देखकर अपनी आँखों को सफल
किया करता हूँ। छोटे कौवे का रूप धारण कर हरि के साथ-साथ उनके बहुरंगी चरितों को
देखा करता हूँ।
जब रामजी आँगन में खेलने लगते थे, आँगन
में विचरते बाल क्रीड़ा करते थे तब मैं भी भगवान के साथ छोटे काग के रूप में रहता
था ।
मोती चूर के लड्डू पाते-पाते कुछ प्रसाद नीचे गिर जाता था सो उसे
मैं उठाकर खाता था। एक बार रघुवीर ने अतिशय प्रबल चरित किये जिसे स्मरण करके आज भी
मेरा शरीर पुलकायमान हो जाता है वह चरित बालकों के चरितों की सीमा से अत्यंत बढ़े
हुए थे। उस लड़कपन के चरित्रों में ऐसा माधुर्य दिखाया कि मुझे मोह हो गया। उस
लीला का स्मरण आते ही आँखे बन्द हो गई रोमांच हो आया।
अब उनका विशेष चरित्र सुनो - उस
कौतुक का मर्म किसी ने नहीं जाना, भाइयों तथा माता-पिता को भी पता न चला,
घुटने और हाथ के बल से मुझे पकड़ने दौड़े, तब
मैं भाग चला और मायापति रामजी ने पकड़ने के लिये हाथ फैलाया। जितना में आकाश में
उड़ता चला गया वहाँ-वहाँ मैंने उस भुजा को और रामजी को अपने पास पाया, फिर भी मुझे यह विचार नहीं आया कि एक प्राकृत मनुष्य के बालक का हाथ इतना
बड़ा कैसे हो गया?
मैं ब्रह्मलोक तक गया और उड़ते हुए
पीछे देखा तो पीछे-पीछे रामजी की भुजा चली आ रही है और कुल दो अंगुल मात्र बीच रह
गया है और अयोध्या से लेकर ब्रह्मलोक तक का दृश्य उसी दो अंगुल के बीच में है-
“तदपि मलिन मन बोध न आवा"
मलिन मन होने से बोध नहीं आ रहा है।
तब तो मैं ब्रह्मलोक से भी ऊपर चला “ सात आवरण तो पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु, आकाश
उन्हें भेद करके और ऊपर लोकालोक तक गया। उसके आगे गति नहीं है वहाँ भी भुजा को दो
अंगुल के बीच का ही फासला पाया। सारे ब्रह्माण्ड में भ्रमण किया, प्रभु का इतना ऐश्वर्य देखते हुए भी मुझे ज्ञान नहीं हो रहा है।
हे गरुड़ ! भगवान श्रीराम जी के
प्रति किसी भी प्रकार का संशयात्मक भ्रम होते ही प्राणी का ज्ञान वैराग्य सम्पूर्ण
दैवी गुण समाप्त हो जाते हैं। जब वहाँ भी प्रभु की भुजा को पास पाकर तत्पश्चात्
व्याकुल हो गया,
अब कहाँ जाय?
सज्जनों सप्तावरण को पार करने पर राजस तामस युक्त प्रकृति ही दो
अंगुल का बीच जीव और परमात्मा में रह जाता है।
मूँदेउ
नयन त्रासित जब भयऊ। पुनि चितवत कौशल पुर गयऊ ॥
मोहि बिलोकि राम मुसकाहीं । विहँसत तुरत गयउ मुख मांही ॥
जब मैं डर गया तो मैंने आँखें मींच
लीं फिर जो देखा तो कौशल पुर में पहुँच गया। मुझे देखकर रामजी मुस्कराये। उनके
हँसते ही मैं उनके मुख में चला गया। हे गरुड़जी पेट के भीतर मैंने बहुत से
ब्रह्माण्डों का समूह देखा वहाँ अत्यन्त विचित्र अनेक लोक थे और एक लोक की रचना
दूसरे से अधिक थी करोड़ों ब्रह्मा व शिव थे असंख्य तारे, सूर्य,
चन्द्र थे। असंख्य लोकपाल यम और काल थे असंख्य बड़े-बड़े विशाल
पहाड़ और पृथ्वीं रहीं, समुद्र, नदी,
तालाब और अपार जंगल थे नाना भाँति सृष्टि का विस्तार था । देवता
मुनि सिद्ध नाना मनुष्य और किन्नरादि चार प्रकार के सचराचर जीव थे।
जो
नहिं देखा नहिं सुना, जो मन हू न समाइ ।
सो सब अद्भुत देखेउँ, बरनि कवन विधि जाइ।।
जो न कभी देखा और न कभी सुना और जो
बातें मन में भी नहीं आती उन सब अद्भुतों को देखा। एक-एक ब्रह्माण्ड में एक-एक सौ
वर्ष तक रहा। इस प्रकार अनेक ब्रह्माण्ड को देखता फिरा प्रत्येक लोक में
भिन्न-भिन्न ब्रह्मदेव,
विष्णु भी भिन्न थे, शिव मुनि दिकपाल भी भिन्न
थे इसी भाँति मनुष्य सब की नाना जाति अन्य ही प्रकार के थे पृथ्वी, नदी समूह पर्वत सब नाना प्रकार के थे, पर्वत
ब्रह्माण्ड में मैंने अपने रूप को अनेक प्रकार का और अनुपम देखा, उन ब्रह्माण्डों का ऐसा प्रभाव कि जो जीव वहाँ जाते हैं वे भी इसी प्रकार
के हो जाते हैं। हे तात ! अनेक प्रकार के दशरथ, कौशल्या तथा
भरतादिक भाई थे प्रत्येक ब्रह्माण्ड में राम का अवतार हुआ था और वहाँ-वहाँ अपार
बाल विनोद देखा।
भिन्न-भिन्न
मैं दीख सब, अति विचित्र हरि जान ।
अगनित भुवन फिरेउ प्रभु, राम न देखेउ आन ॥
यह सब अति विचित्र खेल देखा पर रामजी
दूसरे प्रकार के नहीं दिखाई पड़े। वही बचपन, वही शोभा वही कृपालु
अयोध्या में जैसे थे। मोह रूपी वायु से प्रेरित होकर प्रत्येक भुवन में यही देखता
फिरा । मुझे उनमें घूमते-घूमते एक सौ कल्प बीत गये। घूमते-घूमते अपने आश्रम में भी
आ गया और कुछ दिन वहीं बिताये, मैं बार-बार विचार करता था
मेरी बुद्धि मोह रूपी कीचड़ से व्याप्त हो रही थी।