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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-86 ramayan pdf free download

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-86 ramayan pdf free download

मैंने यह सब दो घड़ी में देखा, मेरे मन में विशेष मोह बढ़ गया, थकावट आ गई फिर कृपालु भगवान मुझे देखकर हँस पड़े - हे मतिधीर ! उनके हँसते ही मैं मुख से बाहर निकल आया, वही लड़कपन रामजी मुझसे फिर करने लगे। अब मैं अपने मन को बहुत भाँति से समझाता हूँ परंतु मन को विश्राम नहीं मिलता। क्योंकि श्रीराम जी का चरित्र ही महाअद्भुत है।

यह चरित्र देखकर और वह प्रभुता समझकर मैं देह की दशा भूल गया और पृथ्वी पर लेट गया मुँह से बात नहीं निकलती थी । आर्तों के रक्षा करने वाले रक्षा करो रक्षा करो यही कहने लगा। प्रभु नेमुझे प्रेम में व्याकुल देखकर अपनी माया की प्रभुता को रोका, दीनदयाल ने मेरे सिर पर कमल सा हाथ रखा और सब दुःख हरण कर लिया।

हृदय में प्रीति उपजी आँखों में आँसू भर आये, रोंगटे खड़े हो गये हाथ जोड़कर मैंने बहुत विधि से विनय की, मेरी प्रेमभरी वाणी सुनकर मुझे दीन एवं निज दास जानकर सब सुख देने वाली गंभीर और मृदु वाणी रमा निवास बोले-

काक भुशुंडी माँग वर, अति प्रसन्न मोहि जानि ।
अनमदिक सिधि अपर रिधि, मोक्ष सकल सुख खानि ॥

ज्ञान, विवेक, वैराग्य विज्ञानादि जो संसार में प्रख्यात मुनि दुर्लभ गुण है वे सब आज तुझे देता हूँ इसमें संशय नहीं जो तुझे अच्छा लगे सो माँग । प्रभु श्री रामजी का बचन सुनकर मैं अधिक प्रेम में आ गया और मन में अनुमान करने लगा, कि प्रभु ने सब कुछ देना तो कहा पर अपनी भक्ति देना नहीं कहा, और भक्ति के बिना गुण और सम्पूर्ण सुख ऐसे हैं जैसे बिना लवण का बहुत सा व्यंजन। भजन हीन सुख किस काम का ?

भक्ति बिना तो सब निष्फल है, अलौना व्यंजन किस काम का ? स्वाद एवं रस तो भक्ति में है, इसी के योग से सभी साधन सुस्वादु हो उठते हैं और इसके बिना सब फीके रहते हैं।

ऐसिहि हरि बिनु भजन खगेशा । मिटइ न जीवन केरि कलेशा ॥

यह सब विचार करके हे खगराज ! मैं बोला- यदि आप प्रसन्न होकर वर दे रहे हैं और यदि मुझ पर कृपा और प्रेम है तो मैं मन चाहा वर माँगता हूँ, प्रेम उदार है और हृदय के प्रेरक हैं तभी मैं यह माँग रहा हूँ-

भगत कल्पतरू प्रनत हित, कृपासिंधु सुख धाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु, देहु दया कर राम ॥

जो भक्ति सदैव बनी रहे कभी उसमें भंग न हो उसे अविरल भक्ति कहते हैं।

एवमस्तु कह रघुकुल नायक । बोले बचन परम सुखदायक ॥
सुनु वायसु तेहि सहज सयाना | काहे न मांगेसि अस वरदाना ||”

प्रिय के बचन तो प्रिय होते ही हैं उनके व्यंग बचन और प्रिय होते हैं, यहाँ ‘वायस' सम्बोधन में व्यंग है “पक्षीणां वायसा धूर्ता:" पक्षियों में वायस धूर्त होते हैं इसलिये कहते हैं कि स्वभाव से ही तू 'सयाना' है, मेरे बतलाये हुए सुर दुर्लभ गुणों पर नहीं गया, अपने मन का ऐसा वरदान माँगा जिसमें सब कुछ मिल जाय। ‘परमसयान' और 'बड़भागी' कहकर जनाया कि भक्ति की चाह करने वाला ही चतुर और बड़भागी है, दूसरा नहीं "परिहरि आस भरोस रामहिं भजहिं ते चतुर नर" और-

राम भगति मनि उस बस जाकें । दुःख लवलेश न सपनेहुँ ताकें ॥

बंधु माताओं प्रभु श्री राघवेंद्र ने वायस को सदा के लिये माया से रहित कर दिया । और कहा संसार में तुझसा कोई ‘बड़भागी' नहीं है क्योंकि सब गुणों की खानि उस भक्ति को तैंने माँगा, जिस भक्ति को मुनी, योगी, जप योग की अग्नि में देह को जलाया करते हैं करोड़ों यत्न करने पर भी नहीं प्राप्त करते, तेरी चतुराई पर मैं रीझु गया, तूने भक्ति माँगी जो मुझे अत्यंत प्रिय है। बार-बार तुझसे सत्य कहता हूँ कि मुझे सेवक सा प्रिय और कोई नहीं है क्योंकि-

अनन्याश्चिंत यन्तो मां ये जनाः पर्यु पासते ॥
तेषां नित्याभियुक्तानां योग क्षेमं वहाम्यहम् ॥” (गीता)

परंतु अनन्य गति अर्थात् मेरी ही एक गति हो। वह फिर संसार को न जाने केवल मुझे ही जाने मैं उसका हूं वह मेरा है। ऐसे भक्त के लिए मैं हर क्षण उसके कल्याण के लिए तैयार रहता हूं

एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा।।
कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।

एक पिता के बहुत से पुत्र पृथक-पृथक गुण, स्वभाव, आचरण वाले होते हैं, कोई पंडित, कोई ज्ञानी, कोई धनी, कोई दानी, कोई शूरवीर होता है कोई सर्वज्ञ, कोई धर्म परायण होता है। पर सभी पर पिता का एक सा प्रेम होता है। कोई पुत्र मन वचन कर्म से पिता का भक्त होता है वह पुत्र पिता को प्राण समान प्रिय होता है।

इसी प्रकार तिर्यक देव, मनुष्य, असुर समेत जितने भी जड़ और चेतन जीव हैं यह सारा विश्व मेरा पैदा किया हुआ है। सब पर बराबर मेरी एक सी दया है पर इनमें से जो मुझे मद और माया छोड़ कर मन, बचन और तन = कर्म से मुझे भजते हैं कोई भी चराचर जीव हो जो सर्वभाव से मुझे कपट छोड़कर भजता है वही मुझे परम प्रिय है।

अब काकभुशुण्डि गरुड़ से कहते हैं कि श्रीराम ने मुझे बहुत प्रकार से समझा बुझाकर सुख दिया फिर वही लड़कपन करने लगे- आँखों में आँसू भरकर और कुछ रूखा चेहरा करके माँ को देखा क्योंकि बड़ी भूख लगी थी। माँ बराबर मुख देखती रहती थी समझ गई कि इन्हें भूख लग गई, देखकर माँ आतुर होकर दौड़ पड़ी और मृदु बचन कहकर श्रीरामजी को हृदय से लगा लिया।

गोद में लेकर दूध पिलाने लगीं और रघुपति के सुन्दर चरित का गान करने लगीं। मैं फिर अवध में कुछ काल रहा और सुशीला-बाल विनोद देखता रहा। रामजी के प्रसाद से भक्ति वर पाया और प्रभु के चरणों की वंदना करके अपने आश्रम में चला आया। जबसे मुझे रघुनाथजी ने अपना लिया तब से मुझे माया नहीं व्यापी । हे गरुड़ जी ! भगवान की माया ने मुझे जैसा नाँच नचाया वह सब गुप्त चरित मैंने आपसे गाकर सुना दिया।

भुशुण्डिजी का निज अनुभव-

निज अनुभव अब कहहुँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा॥

बिना हरि के भजन के क्लेश नहीं मिटते उनके प्रसाद से जो अनुभव मुझे हुआ उसे सुनाता हूँ क्लेश पाँच प्रकार के हैं –

अविद्याऽस्मिता राग द्वेषाभिनिवेशाः क्लेशः”

(१) अविद्या (२) अस्मिता (३) राग (४) द्वेष और (५) अभिनिवेश ॥
(१) अनित्य अशुचि दुःख और अनात्म को- नित्य, शुचि और आत्मा समझना अविद्या है ।
(२) पुरुष और बुद्धि की एकात्मता को अस्मिता कहते हैं।
(३) सुख के अनुसारी होने वाले ज्ञान को राग ।
(४) और दुःख के अनुशरण करने वाले ज्ञान विशेष को द्वेष कहते हैं और
(५) मरण-भय को अभिनिवेश कहते हैं।

इन्हीं के कारण प्राणी मात्र दु:खी है उन दुःखों के हटाने के उपायों से शास्त्र भरे पड़े हैं पर मेरा अपना स्वयं का अनुभव यह है कि बिनाहरि भजन के वे दूर नहीं होते। प्रभुता का ज्ञान, प्रभु में विश्वास, प्रभु में प्रेम और दृढ़ भक्ति सबकी प्राप्ति राम भजन ही साधन और राम भक्ति ही साध्य है। जब उनके भजन से क्लेश मिटता है तो संसार उनका भजन क्यों नहीं करता?

इस पर भुशुण्डिजी कहते हैं संसार उनकी प्रभुता को ही नहीं जानता, उसे विश्वास नहीं होता कि उनके भजन से क्लेश मिट सकते हैं अतः पहले भगवान की महिमा जानना आवश्यक है क्योंकि बिना जाने विश्वास नहीं होता और बिना विश्वास के प्रीति नहीं, भजन करते तो लोग देखे जाते फिर भी क्लेशों में पड़े हैं उनका भजन दृढ़ नहीं। गुरू साक्षात परमेश्वर के अनुग्रह शक्ति के स्वरूप होते हैं, बिना गुरू के ज्ञान हो ही नहीं सकता। सभी वस्तुओं के ज्ञान के लिये गुरू की आवश्यकता होती है।

सर्वेषां च गुरूणां च जन्मदाता परो गुरूः ॥”

सर्व गुरूओं में जन्मदाता पिता श्रेष्ठ गुरू है पिता से अपना वंश परम्परा का ज्ञान होता है। पिता गुरू से माता सौ गुना पूज्य गुरू है क्योंकि पिता का ज्ञान माता से ही होता है। इस प्रकार परमपिता परमेश्वर का ज्ञान भक्ति माता सीताजी द्वारा ही होता है। सज्जनों सर्वश्रेष्ठ गुरू वह है जो हमें आध्यात्म विद्या प्रदान के साथ-साथ मंत्र और मंत्र के साथ ज्ञान और ज्ञान के साथ भक्ति प्रदान करते हैं।

गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।

गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं कतर सकता चाहे वह ब्रह्मा जी और शंकर जी के ही समान क्यूँ न हो। बंधु माताओं कागभूसुंडी जी के द्वारा प्रभु का चरित्र सुनकर के गरुड़ जी बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उनसे प्रश्न किया-

कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई।।

आपने यह है काग शरीर किस कारण से पाया है? सब समझाकर मुझे कहिए और यह भी बतलाइए की यह सुंदर रामचरितमानस आपने कहां पाया? मैं शिवजी के मुख से ऐसा ऐसा सुना है की महाप्रलय में भी आपका नाश नहीं होता और ईश्वर शिव जी कभी मिथ्या वचन नहीं कहते। व

ह भी मेरे मन में संदेह है, जो समस्त सृष्टि जीव का संघार करने वाला काल है वह भी आपको नहीं व्यापता इसका क्या कारण है? गरुण जी के वचन सुनकर कागभुसुंडि जी प्रसन्न हुए और बोले- हे सांपों के शत्रु, आपकी बुद्धि धन्य है धन्य है, आपके प्रश्न बहुत ही प्यारे लगे। मैं आपको अपनी कथा बतलाता हूं श्रवण कीजिए। आपके सुंदर प्रश्न सुनकर मुझे अपने बहुत जन्मों की याद आ गई है। अनेक प्रकार के जप, तप, यज्ञ, योग इन सब का फल श्री रघुनाथ जी के चरणों में प्रेम होना है इसके बिना कोई कल्याण नहीं पा सकता और मुझे मेरा यह काग शरीर बहुत प्रिय है क्योंकि-

एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई।।
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई।।

मैंने इसी शरीर से श्री राम जी की भक्ति प्राप्त की है। इसीसे इस पर मेरी ममता अधिक है जिसे अपना कुछ स्वार्थ होता है उसपर सभी कोई प्रेम करते हैं। गरुड़ जी मेरा मरण अपनी इच्छा पर है परंतु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता क्योंकि वेदों ने वर्णन किया है कि शरीर के बिना भजन नहीं होता। 

गरुड़ की वाणी सुनकर हर्षित लोक हित साधन की सामिग्री है कहने लगे तुम्हारे बचन सुनकर मुझे बहुत जन्मों की यह स्मृति हो आयी, आदर के साथ मन लगाकर सुनो-

जप तप मख सम दम व्रत दाना । विरति विवेक जोग विज्ञाना ॥

सबकर फल रघुपति पद प्रेमा । तेहि बिनु कोउ न पावै छेमा ॥

जप, तप, व्रत, यज्ञ, शम, दम, दान, विरति, विवेक, योग और विज्ञान, इनके करने से शुभ फल होता है परंतु ये भी यदि भगवत प्रीत्यर्थ न किये जाँय तो बन्ध के कारण होते हैं यदि यह सब कुछ करने पर भी प्रभु पद पंकज में प्रेम न हुआ तो सब व्यर्थ है।

इस शरीर से मैंने राम-भक्ति पाई है, इसी कारण इससे मुझे बड़ी ममता है, जिससे अपना कुछ स्वार्थ होता है उस पर सभी ममता करते हैं। शरीर मिलने का साफल्य तो इसी शरीर में हुआ, दूसरों को भले ही वह अधम लगे पर मुझे तो यही प्रिय है ।

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