F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-87 ram katha pdf free download - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-87 ram katha pdf free download

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-87 ram katha pdf free download

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-87 ram katha pdf free download

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-87 ram katha pdf free download

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-87 ram katha pdf free download

हे गरुड़जी ! ऐसी नीति श्रुति सम्मत है और शिष्ठानुमोदित है कि अति नीच से भी अपना परम हित हो रहा हो तो प्रीति करनी चाहिए। रेशम कीड़े से होता है उससे सुंदर रेशमी वस्त्र बनता है परंतु उस परम अपावन कीड़े को सब लोग प्राण के समान पालते हैं।

संसार अपना स्वार्थ भी नहीं जानता, झूठे स्वार्थ में पड़ा है, इसी से देह गेह कुटुम्बादि में रत है बिनाशी पदार्थों में प्रेम करना कच्चा स्वार्थ है। अविनाशी तो श्रीराम जी हैं अत: उन्हीं में प्रेम लगाना सच्चा स्वार्थ है। यदि मनुष्य शरीर से भी प्रभु चरणों में प्रेम न हुआ तो फिर मनुष्य देह से लाभ ही क्या हुआ?

सिद्धांत यह है कि जिस देह में राम भजन हो वही पवित्र है वही सुंदर है। राम विमुख को यदि ब्रह्म के समान देह मिले तो भी पंडित कवि कोई भी उसकी प्रशंसा नहीं करते। इस शरीर में ही मेरे हृदय में राम-भक्ति उगी इसलिये हे स्वामी ! यह मुझे परम प्रिय है। गुरूजी द्वारा मुझे इच्छा मरण का आशीर्वाद मिला है, राम - भक्ति के कारण मैं इसे छोड़ना नहीं चाहता, वेद कहते हैं कि शरीर के न रहने से राम भजन नहीं हो सकता, मुझे भजन में जो सुख है वह मोक्ष में भी नहीं है।

मोह दरिद्र है वह जीव को लक्ष्मीपति से विमुख किये रहता है उसी मोह ने मुझे पहले बहुत कष्ट दिया। मोह के कारण शोक बना ही रहता था वह सदा मुझे राम विमुख बनाये रहा सुख से कभी न सोया, अनेकों जन्मों में अनेकों कर्म योग, जप, यज्ञ और दान किये । हे पक्षीराज ! वह कौन सी योनि है जिसमें मैंने संसार में घूम-घूम कर नहीं जन्म लिया। मैं

ने सब कर्म करके देख लिये। जैसा इस समय सुखी हूँ वैसा सुखी कभी नहीं हुआ, हे नाथ ! मुझे पूर्व के बहुत जन्मों की याद है, शिवजी की कृपा से मेरी बुद्धि को मोह घेर न सका ।

अब मैं पहले जन्म का चरित्र कहता हूँ उसके सुनने से प्रभु के चरणों में प्रेम उपजता है। जिस प्रेम के द्वारा क्लेश मिट जाते हैं पूर्व कल्प में एक मल का मूल कलयुग नामक युग था जिसमें नर और नारी अधर्म में रत थे और सभी वेद के विरुद्ध थे, उस समय मैंने अयोध्या में शूद्र तन पाया अर्थात् जन्मा, मन बचन कर्म से शिवजी का सेवक था पर था अभिमानी । अन्य देवताओं की निंदा करता था मैं धन के मद में मतवाला हो गया, बड़ा बकवाद किया । बुद्धि बड़ी उग्र थी और हृदय में बड़ा दंभ था यद्यपि राम की राजधानी में रहता था फिर भी उस समय उसकी कुछ भी महिमा नहीं जानता था।

अब मैंने अवध का प्रभाव जाना, वेद शास्त्र पुराण ने ऐसा गान किया है जो कोई किसी जन्म में यदि अवध वास करता है तो वह भली भांति राम परायन होता है, अवध की प्रभुता प्राणी तब जान पाता है जब हृदय में धनुर्धर रामजी निवास करते हैं। यह कलिकाल बड़ा कठिन था उसमें सब नर नारी पापी हो गये थे। सब धर्मों को कलयुग के मल ने ग्रस लिया था। सद्-गंथ सब लुप्त हो गये, दम्भीयों ने अपने-अपने मतों की कल्पना करके बहुत से पंथ प्रगट कर दिये थे, सभी लोग मोह के वशीभूत थे और शुभ कर्मों को लोभ ने ग्रस लिया था। हे ज्ञाननिधि गरुड़जी ! अब थोड़ा सा कलियुग का धर्म सुनो-

बरन धरम नहिं आश्रमचारी । श्रुति विरोध रत सब नर नारी ॥
जो कह झूठ मसखरी जाना । कलियुग सोइ गुन वंत बखाना ॥
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी । कलियुग सोइ ज्ञानी सो विरागी ॥

कलयुग में वर्ण धर्म नहीं रहता ना आश्रम बचते। सब पुरुष स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। जो झूठ बोलता है और हंसी करना जानता है वही गुणवान कहा जाता है। जो आचारहीन हैं और वेद मार्ग को छोड़े हुए हैं कलयुग में वही ज्ञानी और वैरागवान है। कलियुग में जनता की बुद्धि विकृत हो जाती है उसमें सार ग्रहण का सर्वथा अभाव हो जाता है। कुलीन है पर धन नहीं है उसे कोई नहीं पूछता न उससे कोई सम्बन्ध रखना चाहता है वे मलिन समझे जाते हैं। कलि में बार-बार अकाल पड़ता है, लोग अन्न के बिना दु:खी होकर मरते हैं। बंधु माताओं कलयुग अवगुणों की खान होते हुए भी इसमें एक विशेष गुण है।

सुमिरत समन सकल जग जाला ॥

जैसे कल्पवृक्ष के नीचे जाते ही सब शोच मिट जाते हैं, कुछ करना नहीं पड़ता। सतयुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से तथा द्वापर में प्रभु परिचर्या से जो प्राप्त होता है वही कलि में केवल हरि कीर्तन से मिल जाता है। अतः इस अत्यंत दुष्ट कलियुग में यह एक महान गुण है कि इसमें केवल भगवान श्रीराम-कृष्ण के नाम संकीर्तन से ही मनुष्य परम पद को प्राप्त कर लेता है –

कलियुग केवल हरिगुन गाहा। गावत नर पावत भव थाहा ॥
कलियुग योग न यज्ञ न ग्याना। एक अधार रामगुन गाना ॥
कलिकर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुण्य होहिं नहिं पापा ॥

कलि में चित्त एकाग्र होना ही कठिन, इसमें एकाग्र करने की जरूरत नहीं " पड़ती। केवल बैठकर खड़े होकर, नाँचकर भगवत गुणगान कीर्तन से उसका संस्कार मन पर पड़ता है उनके गुणों का संस्कार मन पर पड़ने से ही सम्पूर्ण अशुभ संस्कार नष्ट हो जाते हैं और सहज ही भव से तर जाते हैं। ऐसा नाम का प्रताप कलि में प्रगट है। जो चाहे इसका जप करके प्रभाव देख ले। यह तो नाम का प्रताप हुआ।

अब कलियुग का एक पवित्र प्रताप = हालांकि कलयुग दोष का समुद्र है परंतु इसमें एक महान गुण भी है कि इसमें मानस पुण्य होता है पाप नहीं, मन से शुभ संकल्प करने का भी पुण्य है और अशुभ संकल्प उठने का भी पाप है सो वह पाप कलि में नहीं होता, यदि वह पाप भी होता तो कलियुग में शायद ही किसी का निस्तार होता ।

कलियुग सम जुग आन नहिं, जो नर कर विश्वास।
गाइ राम गुन गन विमल, भव तर विनहिं प्रयास ॥

हे गरुड़जी! मैं बहुत वर्षों तक अवध में रहा, अकाल पड़ा तो विपत्तिवश दु:खी होकर उज्जैन चला गया, कुछ समय बीतने पर महादेव की पुरी है वहाँ कुछ सम्पत्ति मिल गयी और फिर मैं शिव की सेवा में लग गया। वहाँ प्रधान देव महाकालेश्वर है उनकी सेवा पूजा में लग गया। वहाँ मंदिर में मैंने देखा कि एब ब्राह्मण देवता वैदिक विधान से शिवजी की पूजा चल रही है उन्हें शिवजी की पूजा छोड़कर और कोई काम नहीं था वह परम साधु परमार्थ के ज्ञाता थे हरिनिंदक नहीं था।

उसकी मैं कपट के साथ सेवा करने लगा वे दयालु नीतिकार थे, मुझे बाहर से नम्र देखकर उन्होंने पुत्र की भाँति पढ़ाना आरम्भ कर दिया शिवजी का मंत्र दिया, अनेक प्रकार के शुभ उपदेश दिये, मैं मंदिर में जाकर शिव मंत्र का जप करता था हृदय में दंभ और अहंकार अधिक हो गया, क्योंकि मैं खल था, बुद्धि पाप से भरी थी जातिमति मैं नीच था, हरिजन और ब्राह्मणों को देखकर जलता था और विष्णु का द्रोह करता था। गुरूजी मुझे नित्य समझाते थे, मेरा आचरण देखकर दु:खी होते थे पर मुझे बड़ा क्रोध होता था, क्या दंभ को नीति अच्छी लगती है ? अत: मुझे गुरू की नीति अच्छी नहीं लगी, वे इस प्रकार समझाते थे-

बड़े कष्ट ते सुकृत धन, संग्रह करत सुजान ।
हरत छनक यह दंभ सम, घातक शत्रु न आन ॥
गिरे स्वर्ग ते सुकृत निज, मुख ते कहे ययाति ।
कहाँ पुण्य की गंध जहँ, दंभ चलै दिन राति ॥
याते जप तप नेम व्रत, करिये सहित छिपाव।
सुकृत कोष संचय करत, होय न कतहुँ लखाव ॥
हरिगन द्विजगन ते सदा, अपने को लघु मान ।
जंगम मूरति शम्भु की, जानि करिअ सम्मान ॥
सपनेहुँ इनको द्रोह सुत, सकल अमंगल मूल ।
ऐहि अपराध अगाध ते, होयँ शम्भु प्रतिकूल ।।
(विजया टीका से)

मेरे प्रिय जनों सुकृत (पुण्य) के संग्रह को सर्वोच्च धन बताया गया है, किंतु साथ ही यह चेतावनी भी दी गई है कि दंभ (अहंकार) वह छनभर का अग्निकुंड है जो इस पुण्य-भंडार को भस्म कर देता है। यहाँ तक कि शत्रु भी इतनी तीव्रता से हानि नहीं पहुँचा सकते। ययाति जैसे महाराजा, जिन्होंने स्वर्ग से गिरने के पश्चात अपने मुख से स्वीकार किया कि पुण्य की सुगंध वहीं तक सीमित है जहाँ दंभ का अंधकार दिन-रात नहीं छाया रहता।

यहाँ गहन संदेश यह है कि हमारे जप-तप, व्रत-नेम, और सभी सत्कर्म छल-रहित मन से, प्रचार से दूर, ईश्वर को समर्पित भाव से किए जाने चाहिए, क्योंकि पुण्य का संचय तभी सार्थक होता है जब वह लोक-दिखावे के मोह से मुक्त हो।

सज्जनों संसार स्वार्थ का सगा हैएक मनुष्य बहुत द्रव्य वाला था । उसके कई पुत्र और पुत्रवधुएं थीं। उसका उन कुटुम्बियों में अधिक मोह था । वृद्ध अवस्था आने पर विशेष प्रेम - वश थोड़ा द्रव्य अपने पास रखकर बाकी सारे पैसे पुत्रों को बांट दिये। जब तक कुछ द्रव्य बुड्ढे के पास था, तब तक तो पुत्र और पुत्रवधुएं प्रेमपूर्वक सेवा करते रहे । पश्चात जब समझ गये कि बुड्ढे के पास अब कुछ नहीं है, तब सेवा करना ढील कर दिये। यहां तक कि उचित समय पर बुड्ढे को जल - भोजन मिलना भी कठिन हो गया।

एक दिन बुड्ढा अपने पुराने मित्र के पास गया और अपना दुख कह सुनाया। उसके बुद्धिमानं मित्र ने चांदी के पन्द्रह रुपये देकर कहा - इसको आप ले जाइए और एक गठरी ठीकरा (कंकड़) चुपके से अपनी कोठरी में रख लीजिए । किसी-किसी दिन जब दस बजे रात्रि का समय हो, तब अपने कमरे का किवाड़ बन्द करके और भीतर में बैठकर एक पत्थर पर इन चांदी के रुपयों को पटक-पटक कर एक-दो -दस-पचास, सौ-दो सौ, हजार-चार हजार कहकर गिनते जाइए । अन्त में ठीकरे की गठरी को सन्दूक में जोर से रखिए। इस प्रकार करने से पुत्र और पुत्रवधुएं अपनी-अपनी कोठरियों में से शब्द सुन-सुन कर समझने लगेंगे कि अभी बुढ़ऊ के पास अधिक द्रव्य है ।

अत: द्रव्य के लोभ-वश फिर से सेवा करने लगेंगे । इस प्रकार मित्र के कहने पर बुड्ढे ने ऐसा ही किया। निदान पुत्र और पुत्रबधुएं बुड्ढे के पास द्रव्य जानकर स्वार्थ- वश आज्ञा - सेवा में उपस्थित रहने लगे। अपने-अपने सेवा - प्रेम को अधिक दर्शाने के लिए एक-से-एक बढ़कर सेवा करते। कोई स्नान कराता, तो कोई भोजन खिलाता, कोई पैर दबाता इत्यादि। अहो! यह है स्वार्थपूर्ण संसार का रहस्य, फिर भी मनुष्य चेत नहीं करता ।

शिक्षा - मनुष्यो ! शीघ्र सावधान होओ। स्वार्थ के सगे स्वप्न के साथी स्त्रीपुत्रादि कुटुम्बियों के मोह - वश मुक्तिदायी नर - जन्म न नष्ट करो। सब जीव पंथी हैं; तुम्हारा कोई नहीं है । इसलिए शत्रु-मित्र का भाव त्यागकर मात्र शुद्ध प्रेम सबसे रखो। सत्संग-साधना करके जन्मादिक दुखों से मुक्ति लो। यही तुम्हारा मुख्य कर्तव्य है ।

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-87 ram katha pdf free download

Ads Atas Artikel

Ads Center 1

Ads Center 2

Ads Center 3