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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-88 ram katha hindi pdf free download

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हे पक्षीराज ! सुनिये एक बार गुरूजी ने बुला लिया और मुझे बहुत भाँति नीति सिखाई, कहा बेटा ! शिवजी की सेवा का फल ही यही है कि रामजी के चरणों में अविरल भक्ति हो। शिव ब्रह्मा स्वयं रामजी को भजते हैं, यदि शिव-भक्त की प्रीति राम चरणों में न हुई तो उसकी शिव - भक्ति निष्फल गई । जिनके चरणों के शिव-ब्रह्मा अनुरागी हैं तू उनसे द्रोह करके सुख चाहता है। गुरूजी ने सेवक बतला दिया शिव को रामजी का, यह सुन कर तो मेरा कलेजा जल उठा, मैं अधम जाति का था, मैं विद्या पाने से ऐसा हो गया जैसे साँप दूध पिलाने से हो जाता है। मैं गुरू द्रोही हो गया-

पय: पानं भुजं गानां केवलं विषवधर्मनम्॥”

मैं अभिमानी, कुटिल, कुभाग्य, कुलीन था सो गुरू का द्रोह मैं रात-दिन करने लगा, गुरूजी बड़े दयानिधान थे उन्हें कुछ भी क्रोध न हुआ, वे सुबोध मुझे बार-बार सिखाते ही रहे।

एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम।।

एक बार शिव मंदिरों में शिवजी के नाम का जप मैं कर रहा था कि गुरूजी आगये, मैंने उठकर प्रणाम नहीं किया, वे दयालु थे उन्होंने कुछ नहीं कहा, उन्होंने मेरे इस अभिमान पर ध्यान भी नहीं दिया, न कुछ बोले न हृदय में कुछ अप्रसन्न हुए। पर परहित के लिये गरल पान करने वाले महादेव इस पाप रूपी महाविष को नहीं पचा पाये, नहीं सह सके। उन्हीं के मंदिर में शिष्य ने गुरू का अपमान उनका भक्त बनके किया, तभी मन्दिर में आकाशवाणी हुई कि रे अभागे मूर्ख अभिमानी, यद्यपि तेरे गुरू को क्रोध नहीं है वे अत्यंत कृपालु हैं और उनके हृदय में पूर्ण ज्ञान है। रे सठ! फिर भी मैं तुझे शाप दूंगा क्योंकि नीति का विरोध मुझे अच्छा नहीं लगता, रे खल!

जो नहिं दंड करौ खल तोरा । भ्रष्ट होइ श्रुति मारग मोरा ॥

मेरा वेद का मार्ग बिगड़ जायेगा। यदि दंड न दूँ तो। जो गुरू से ईर्ष्या करते हैं वे कोटि युग तक रौरव नरक में पड़ते हैं, तिर्यक योनि में शरीर धारण करते हैं और दस हजार जन्म तक पीड़ा पाते हैं । हे पापी ! तू अजगर की भाँति बैठा रह गया, रे खल, मलिन बुद्धि तू सर्प हो और किसी बड़े भारी पेड़ के खोखले में जाकर अधोगति को प्राप्त हो।

क्योंकि तू नीचों में भी महा नीच है, तू बैठा रहा, इसलिये अधम है प्रणाम नहीं किया इससे अधमाधम है। शिवजी का दारूण शाप सुनकर गुरूजी ने हाहाकार किया, मुझे कंपित हुआ देखकर उनके हृदय में अत्यन्त परिताप उत्पन्न हुआ प्रेम के साथ दण्डवत करके ब्राह्मण देवता शिवजी के सामने हाथ जोड़कर गदगद वाणी से मेरी घोरगति समझ विनय करने लगे ।

नमामीशमीशान निर्वाण रूपं । विभुं व्यापकं ब्रह्म वेद स्वरूपं ॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं । चिदाकाश माकाश वासं भजेहं ॥

निराकारयौंकार मूलं तुरीयं । गिरा ज्ञान गोतीत मीशं गिरीशं ||

करालं महाकाल कालं कृपालं । गुणागार संसार पारं नतोऽहं ।

तुषाराद्रि संकाश गौरं गंभीरं । मनोभूति कोटि प्रभाश्री शरीरं ॥

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारुगंगा । लसद्भाल बालेन्दु कंठे भुजंगा ॥

चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं | प्रसन्नांननं नील कठं दयालं ॥

मृगाधीशचर्माम्बरं मुंडमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं | अखंडं अजंभानु कोटिप्रकाशं ॥
त्रयः शूल निर्मूलनं शूल पाणिं । भजेहं भवानी पति भावगम्यं ॥

कलातीत कल्याण कल्पांतकारी । सदासज्जनानंद दातापुरारी ॥

चिदानंद संदोह मोहा पहारी । प्रसीद प्रसीद प्रभोमन्म थारी ॥
न यावत उमानाथ पादार बिदं । भजन्तीह लोके परेवानराणां ।
न तावत्सुखंशांति संताप नाशं । प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां । नतोहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ।
जराजन्म दुःखौघतातप्य मानां । प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥'
"रुद्राष्टक मिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भु प्रसीदति।।

हे मोक्ष स्वरूप विश्व व्यापक वेद स्वरूप शिवजी में आपको नमस्कार करता हूं। मैं ना तो योग जानता हूं न जप और ना ही पूजा। हे संभो मैं तो सदा सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूं। इस प्रकार उन ब्राह्मण देवता ने भगवान शंभू की अनेक प्रकार से स्तुति किया।

सज्जनों जो इसका पाठ करते हैं भक्ति पूर्वक उन पर शिवजी प्रसन्न होते हैं। सर्वज्ञ शिवजी ने यह विनती सुनी ब्राह्मण का प्रेम देखकर फिर दूसरी बार मंदिर में आकाशवाणी हुई कि हे द्विज श्रेष्ठ वर माँग- तब वे बोले- हे प्रभु ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, इस दीन पर आपका स्नेह है तो अपने चरण कमलों की दृढ़ भक्ति दीजिये।

फिर दूसरा यह वर दीजिये कि आपकी माया के वश सदा जीव फिरते हैं । हे कृपा के समुद्र भगवान उन पर क्रोध न कीजिये, हे दीनों पर दया करने वाले शंकर अब इस पर कृपालु होइये जिससे हे नाथ! थोड़े ही समय में इसका शाप से छुटकारा हो जाय, वही कीजिये जिससे इसका कल्याण हो ।

फिर तीसरी बार मंदिर में शब्द हुआ 'एवमस्तु' ऐसा ही हो। यद्यपि इसने घोर पाप किया है तुम्हारी साधुता देखकर इस पर विशेष कृपा करूँगा क्योंकि जो क्षमा शील और पराया हित करने वाले हैं वे मुझे राम के समान प्रिय हैं। हे द्विज ! मेरा शाप व्यर्थ तो जायेगा नहीं यह अवश्य सहस्त्र जन्म पायेगा, पर जन्मते-मरते जो दुःसह दुःख होता है वह इसे नहीं व्यापेगा। किसी भी जन्म का ज्ञान न मिटेगा। भगवान शिव ने कहा ब्राह्मण की सेवा करना व्रत है अब कभी ब्राह्मण का अपमान न करना। संत को अनंत के समान मानना ।

इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला।।
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्रद्रोह पावक सो जरई।।

इन्द्र का बज्र और मेरा त्रिशूल विशाल है काल का दण्ड तथा विष्णु का चक्र कराल है जो इनका मारा नहीं मरता वह ब्राह्मणों की द्रोह की आग में पड़कर भस्म हो जाता है। ऐसा विवेक मन में रखना, तुमको संसार में कुछ भी दुर्लभ न होगा और भी मेरा एक आशीर्वाद है कि तुम्हारी गति कहीं रुकेगी नहीं "अप्रतिहत गति होइहि तोरी ॥ गुरूजी शिवजी का आशीर्वाद सुनकर हर्षित हुए । शिष्य का कल्याण करके द्विज वर ने अपने को कृतकृत्य माना और घर चले गये।

सज्जनों गुरुदेव बहुत कुछ देते हैं, हम अंधे समझ नहीं पाते— एक अंधा नित्य बीच बाजार में बैठकर पैसा, अन्नादि मांगा करता । एक दिन वहां का राजा आया और उस अंधे का दुख देखकर उसके बिछाये हुए कपड़े पर एक हीरा डाल दिया। जब राजा चला गया तो अंधा हीरा को टटोलकर बड़ा दुखी हुआ और कहने लगा कि मुझे आशा थी आज राजा आयेंगे तो एक-दो रुपये अवश्य देंगे।

किन्तु राजा ने एक कांच की गोली देकर मुझ अंधे से हंसी की । एक सज्जन ने देखकर कहा -सूरदास ! राजा ने कांच देकर हंसी नहीं की; बल्कि हीरा दिया है, जो बहुमूल्य है । अंधे को विश्वास नहीं हुआ। जब सज्जन ने उस हीरा को जौहरी से जाकर बहुत-से रुपये अंधे को लाकर दिये तब विश्वास हुआ।

सिद्धान्त - अंधा यह मनुष्य है, गुरुदेव - राजा स्वरूपज्ञान रूपी हीरा इस मनुष्य को दे दिये हैं; किन्तु यह अन्धा मनुष्य उसका कुछ मूल्य न समझकर स्वरूपबोध और गुरु का निरादर करता है । वैराग्यवान सन्त सत्संग में जब गुरुबोध की महत्ता इस मनुष्य के चित्त में भलीभांति दृढ़ कर देते हैं, तब इसे स्वरूपबोध का मूल्य और गुरु का उपकार जानने में आता है।

शिवजी काल के भी काल हैं उनकी इच्छानुसार काल की प्रेरणा से मैंने विंध्याचल में जाकर शूद्र शरीर छोड़ सर्प का शरीर मिला। कुछ काल बाद सर्प का भी शरीर छूटा, उसमें कोई आयास नहीं हुआ क्योंकि जन्म-मरण के क्लेश से तो शिवजी ने उसी समय विमुक्त कर दिया था। इस तरह शाप में कहे हुए जन्म समूह की संख्या की पूर्ति हुई और मेरा ज्ञान ज्यों का त्यों बना रहा। त्रिर्यक, देवता या नर जो भी शरीर मैं धारण करता था वहाँ-वहाँ श्रीरामजी का भजन करता था।

एक बात मुझे कभी नहीं भूली और वह था गुरूजी का कोमल शील स्वभाव। मैंने अंतिम शरीर ब्राह्मण का पाया। जिसे पुराण और वेद दुर्लभ बताते हैं मैं वहाँ बालकों से मिलकर खेलता था और राम की सब लीलाएँ करता था। बड़े होने पर पिता ने पढ़ने भेजा, समझता था, सुनता था, मनन करता था फिर भी मुझे अच्छा न लगता था, मन से सब वासना जाती रही केवल श्रीराम चरण में लौ लग गयी ।

पिता पढ़ा-पढ़ा कर हार गये जब वे मर गये तब मैं भगवान के भजन के लिये बन में गया। जहाँ-जहाँ मुनि मिलते थे उनकी वंदना करके, राम गुण गाता था पूछता था, वे कहते थे मैं हर्षित होकर सुनता था। शिवजी की कृपा से मेरी गति कहीं रुकती नहीं थी ।

जिस मुनि से पूछता था वह यही कहते ईश्वर सर्वभूतमय है यह निर्गुण मत मुझे अच्छा नहीं लगता था क्योंकि सगुण ब्रह्म की भक्ति हृदय में बढ़ी हुई थी | गुरु के वचनों को याद करके रामजी के चरणों में मन लगाकर उनका यश गाता फिरता था। क्षण-क्षण नया अनुराग प्रसन्न होता था सुमेरू पर्वत पर वट वृक्ष की छायामें लोमश मुनि बैठे थे।

मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन।।

देखकर मैंने सिर नवाया और मैंने दीन बचन कह उनकी शरण गया। उन्होंने मुझसे आदर के साथ पूछा कि ब्राह्मण तुम्हें क्या चाहिए? मैंने कहा मुझे सगुण ब्रह्म की आराधना की इच्छा है उसे मुझे कोई नहीं बतलाता आप कृपा करके बतलाइये। हे पक्षीराज ! तब मुनीश्वर ने आदर के साथ रघुपति की कुछ गुण गाथा कही, परम विज्ञानी मुनि ब्रह्मज्ञान में निरत थे वे मुझे परम अधिकारी जानकर ब्रह्म का उपदेश करने लगे।

जो अजन्मा है अद्वैत है निर्गुण है और हृदय का स्वामी है कला से रहित, इच्छा से रहित नाम रूप से रहित, अनुभव से जानने योग्य अखंड और उपमा रहित है। मन, इन्द्रियों से परे, निर्मल, नाशरहित विकार रहित नि:सीम सुख की राशि है वही तुम हो, तुममें और उसमें भेद नहीं। जैसे जल- तरंग में भेद नहीं है ऐसा वेद कहते हैं। मुनि ने अनेकों भाँति से समझाया पर निर्गुण मत मेरे मन में नहीं बैठा मैंने उनसे कहा –

भरि लोचन विलोकि अवधेसा । तब सुनिहौं निरगुन उपदेसा ॥"

तब मैंने निर्गुण मत को दूर करके हठ से सगुण का निरूपण किया। मुनि से उत्तर प्रतिउत्तर किया तो मुनि बारम्बार क्रोध पूर्वक ज्ञान निरूपण करने लगे। तब मैं अनेक प्रकार का अनुमान करता था कि अद्वैत बुद्धि में क्रोध बनता नहीं जब दो हैं ही नहीं तो क्रोध किससे? कौन करे? और किस पर किया जाय? अज्ञान से ही द्वैत बुद्धि होती है मुनिजी क्रोध कर रहे हैं और मुझसे अद्वैत की बात कह रहे हैं यह कैसे? अत: उनमें द्वैत बुद्धि है फलतः इनमें 'अज्ञान' भी है, जब स्वयं इनमें अज्ञान है तो ज्ञान की आशा किससे की जाय ?

ईश्वर मायापति है जीव मायावश हे, ईश्वर अपरिच्छिन्न है जीव परिच्छिन्न है। ईश्वर चिद्रूप है जीव जड़ रूप है। उसकी ईश्वर से क्या समानता है ? इस प्रकार से अनगिनत युक्तियाँ मैं मन में गुनता था मुनिजी के उपदेश को आदर के साथ नहीं सुना। बार-बार मैंने सगुण पक्ष उठाया तब मुनि क्रोध युक्त वाणी बोले- अरे मूढ़ ! मैं परम शिक्षा देता हूँ मानता नहीं उत्तर प्रति उत्तर बहुत करता है सच्ची बात पर विश्वास नहीं करता, कौवे की भाँति सबसे डरता है ? अरे सठ ! तेरे हृदय में अपना बड़ा भारी पक्ष है इसलिये तू सद्यः चाण्डाल पक्षी हो जा।

मैं मैंने शाप को शिरोधार्य किया, न मुझे कुछ भय हुआ न कुछ दीनता आई, मैं तुरंत कौआ होकर मुनि के चरणों में सिर नवाकर श्रीरामजी का स्मरण करके प्रसन्न होकर उड़ चला। हे खगेश इसमें ऋषी का भी कोई दोष नहीं, रघुवंश विभूषण हृदय में प्रेरणा करने वाले हैं कृपासिंधु ने मुनि की मति भोरी करके मेरी प्रेम परीक्षा ले ली। मन बचन कर्म से अपना भक्त जान लिया, तब मुनि की बुद्धि को पुन: भगवान ने फेर दिया। मेरी बड़ी भारी सहनशीलता देखकर और राम के चरणों में अटल विश्वास जानकर आदर के साथ मुनि ने मुझे बुला लिया और प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे 'राममंत्र' दिया । कृपा निधान गुरू ने मुझे बालक रूप रामजी का ध्यान बतलाया वह सुंदर और सुखद था।

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