राम कथा हिंदी में लिखी हुई-89 ram katha hindi pdf notes download
उन्होंने कुछ समय तक मुझे वहाँ
ठहराया तब मुझसे रामचरित मानस कहा, आदर के साथ मुनि जी ने यह
रामकथा सुनायी और तब सुंदर वाणी से कहने लगे कि यह सुंदर रामचरित सर गुप्त था,
महादेवजी के प्रसाद से मुझे मिला, तुम्हें
रामजी का निज भक्त जानकर मैंने सब वर्णन करके कहा ।
रामचरित
जिनके उर नांही । कबहुन तात कहिय तिन्ह पाहीं॥
मुनि मोहि विविध भाँति समुझावा । मैं सप्रेम मुनि पद सिर नावा ॥
मुनि ने अपने कर कमल से मेरे (काग)
सिर को छूकर हर्षित होकर आशीर्वाद दिया कि श्रीरामजी की अविरल भक्ति तेरे हृदय में
अब मेरे प्रसाद से है । तुम सदा रामजी को प्रिय हों, शुभ गुणों के भवन हो
फिर भी तुम्हें मान न होगा। तुम काम रूप इच्छा मृत्यु और ज्ञान वैराग्य के विधान
हो ।
जहाँ कहीं आश्रम बनाओ तुम भगवान का
स्मरण करते हुए बसोगे उसके चारों ओर एक योजन पर्यन्त अविद्या न व्यापेगी। माया उसे
छू नहीं सकती,
मोह वहाँ पहुँच नहीं सकता। काल कर्म गुण दोष और स्वभाव का कुछ भी
दोष दु:ख तुम्हें कभी नहीं व्यापेगा। रामजी के सुन्दर नानाविधि रहस्य और गुप्त तथा
प्रगट इतिहास पुराण अनायास ही तुम्हें सबका ज्ञान हो जायेगा, तुम्हें रामजी के चरणों में नित्य नया स्नेह हो। जो इच्छा तुम मन में
करोगे श्रीहरि के प्रसाद से कुछ भी तुम्हें दुर्लभ नहीं होगा।
हे मति धीर ! मुनि का आशीर्वाद सुनकर
आकाश में ब्रह्म की वाणी का आविर्भाव हुआ, हे मुनि ज्ञानी जो तुमने
बचन कहे वैसा ही हो यह मन बचन कर्म से मेरा भक्त है। आकाशवाणी सुनकर मुझे हर्ष
हुआ। मैं प्रेम में मग्न हो गया और मेरा संशय सब दूर हो गया, विनती करके और मुनि जी की अनुमति पाकर चरणों में प्रणाम करके हर्षित होकर
मैं इस आश्रम में आया ।
प्रभु के प्रसाद से दुर्लभ वर मिला, यहाँ
बसते हुए गरुड़जी मुझे सत्ताईस कल्प बीत गये। सदा रघुपति का गुणगान किया करता हूँ
सुजान पक्षी उसे आदर के साथ सुनते हैं। जब रामजी अयोध्या में भक्त के लिये मनुष्य
रूप धारण करते हैं तब तब जाकर मैं जाकर पाँच वर्ष तक अयोध्या में रहता हूँ शिशु
लीला देखकर सुख प्राप्त करता हूँ और शंकर भगवान भी मेरे साथ अयोध्या जाते हैं।
काक
भुशुण्डि संग हम दोऊ । मनुज रूप जानें नहिं कोऊ ॥
जब शंकरजी वहाँ से चले जाते हैं तब
फिर मैं अपने काक रूप से उनके पास पाँच वर्ष,तक अयोध्या में ही रहता हूँ
। शिशु लीला के दर्शन का आनंद लेता हूँ बस यहाँ इस आश्रम की उतने ही दिन श्रीराम
कथा बंद रहती है।
बाल-लीला देखकर प्रभु श्रीराम के बाल
रूप को हृदय में धारण करके अपने आश्रम इस नील गिरि पर्वत पर आ जाता हूँ। मुझे सदा
प्रभु श्रीराम के शिशु रूप का प्रत्यक्ष दर्शन होता रहता है, प्रत्येक
कल्प में पाँच वर्ष तक चाक्षुस प्रत्यक्ष होता रहता है अन्य समय में मानस
प्रत्यक्ष होता रहता है। “कारन कवन देह यह पाई" का उत्तर समाप्त करते हुए
भुशुण्डिजी कहते हैं कि-
कथा
सकल मैं तुम्हहिं सुनाई । काक देह जेहि कारन पाई ॥
अब सबका उपसंहार करते हुए कहते हैं
कि राम-भक्ति की महिमा बड़ी भारी है वह असाध्य साधन में समर्थ हैं। सब कुछ सरलता
इसी राम-भक्ति से हुई है अतः अब भक्ति प्रसंग सुनो"
ताते
यह तनु मोहि प्रिय, भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दर्शन पायेउँ गये सकल संदेह ||
भक्ति
महिमा
अति सुलभ और अति सुखकारी भक्ति को
छोड़कर महा असाध्य विघ्न बाहुल्य निरूपस्ति ज्ञान पंथ को स्वीकार करना वैसा ही है
जैसे 'दूध को चाहने वाला घर में रहती कामधेनु को छोड़कर दूध के लिये आक को खोजता
फिरे, आक में जो दूध है दु:खद है आँख में लग जाय तो अंधा बना
देगा।
हे पक्षीराज ! सुनिये सुख ही सबका
ध्येय है,
दुःख सुख का उपाय केवल रामभक्ति ही है, अन्य
उपाय नहीं। सबको सुख चाहने वाला नहीं कह सकते, वह जानकर भी
दुःखदायक वस्तु को गले में बाँधे फिरते हैं, छूटने का
प्रयत्न ही नहीं करते, उसे सुख चाहने वाला कैसे कहें ?
जदपि
विषय संग सहे दुसह दुःख, विपति जाल अरु झान्यो।
तदपि न तजत मूढ़ ममतावश, जानत हू नहिं जान्यो
॥ "
भाव यह है कि हरि-भक्ति छोड़ अन्य
किसी उपाय से सुख नहीं मिल सकता। भवसिंधु पार करने के लिये हरि-भक्ति ही पार करने
वाली तरणी है बिना इसके तैर कर पार पाने की इच्छा मूर्खता है।
ऐसा सुन गरुड़जी हर्षित हो मृदुवाणी
से बोले- हे प्रभो! तुम्हारी कृपा से मेरे हृदय में संशय, शोक,
मोह और भ्रम नहीं रह गये। अब-
ज्ञानहिं
भगतिहि अंतर केता | सकल कहतु प्रभु कृपा निकेता ॥
भुशुण्डि बोले- संसार दोनों से छूट
जाता है,
भव दु:ख मिटने में दोनों में कुछ अंतर नहीं, पर
मुनीश्वर कुछ अंतर बताते हैं। यदि ज्ञान = शुष्क ज्ञान जिसमें भक्ति नहीं है
अर्थात् जीव ही ब्रह्म है जिसमें ऐसा माना जाता है उसे आक के दूध के समान पहले ही
कह आये हैं। यदि ज्ञान भक्ति के सहित है सोने में सुहागा है वह ज्ञानी "ज्ञानी
प्रभुहि विशेष पियारा ॥
बारि
मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।
जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो
जाए और बालू को पेरने से भले ही तेल निकल जावे परंतु श्री हरि के भजन बिना संसार
रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता यह सिद्धांत अटल है।
मृग तृष्णा के पान से प्यास भले ही
बुझ जाय,
और खरगोश के सिर पर सींग भले ही जम आवें, अंधकार
भले ही सूर्य का नाश कर दे - यह असंभव हो जाय तो हो जाय- पर राम विमुख होकर जीव
सुख नहीं पा सकता । पाला व बर्फ से अग्नि भले ही प्रकट हो जाय पर राम विमुख कोई भी
सुख नहीं पा सकता।
विनिच्श्रितं
वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते।।
काग भूसुंडी जी कहते हैं- हे गरुण जी
मैं आपसे भलीभाँति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूं मेरे वचन अन्यथा नहीं है कि
जो मनुष्य हरि का भजन करते हैं वह इस अपार बहुत सागर को सहज ही पार कर जाते हैं।
रघुराज भक्ति के सानुकूल रहते हैं
इसलिये माया उससे बहुत डरती है। भक्ति देखकर माया को संकोच होता है अपनी प्रभुता
कुछ कर नहीं सकती,
ऐसा विचार कर जो विज्ञानी मुनि हैं वे सब सुख-खानि भक्ति माँगते
हैं। सज्जनों श्री गरुड़ जी महाराज संत हृदय कागभुसुंडि जी के मुख से प्रभु का यह
चरित्र सुनकर कृतकृत्य हो गए और कहने लगे आपकी कृपा से आज मेरा जीवन सफल हो गया।
संत
हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
संतों का हृदय मक्खन के समान होता है
ऐसा कवियों ने कहा है परंतु उन्होंने असली बात कहना नहीं जाना, क्योंकि
मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुख से पिघल
जाते हैं। हे प्रभु जैसे आप मेरा दुख देखकर के मुझ पर कृपा किया और मुझे प्रभु
श्री रामचंद्र जी की पावन कथा कह करके कृतार्थ किया। गरुण जी भूसुंडी जी के चरणों
में प्रेम सहित सिर नवाकर और हृदय में श्री रघुवीर जी का ध्यान कर बैकुंठ को चले
गए।
उमाशंभु
संवाद का उपसंहार
हे गिरजे! संत समागम के समान दूसरा
कोई लाभ नहीं है पर ये संत समागम भी बिना भागवत कृपा के नहीं होता ऐसा वेद पुराण
कहते हैं। सो मैंने उमा यह परम पुनीत इतिहास कहा जिसके सुनने से भव पास छूटते है
और जो करुणा पुंज कल्पतरू श्रीरामजी हैं उनके चरणों में प्रीति उपजती है। “सुनत
श्रवन छूटै भव पासा" से ज्ञान काण्ड का, “उपजै प्रीति परम
पद कंजा" से उपासना काण्ड का और “मन क्रम बचन
जनित अघ जाई" से कर्मकाण्ड का फल कहा।
सोइ
सर्वज्ञ गुनी सोइ ज्ञाता । सोइ महि मंडित पंडित दाता ॥
धर्म परायन सोइ कुल त्राता | राम चरन जा कर मन
राता ॥
वह मति धन्य जो पुण्य में लगी, वह
घड़ी-समय धन्य जो सत्संग में बीते, वह जन्म धन्य जिसमें
ब्राह्मण में अचल भक्ति हो।
सो
कुल धन्य उमा सुनि, जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्री रघुवीर परायन, जेहि नर उपज विनीत ॥
जिस कुल में श्रीरघुवीर परायण पुत्र
पैदा होता है हे उमा ! सुनो वही कुल धन्य है जगत पूज्य है।
हे गिरजा ! मैंने श्रीरामकथा का वर्णन किया, यह
कलिमल तथा मन का मल विनाश करने वाली है और संसार रोग की संजीवनी मूल है ऐसा
श्रुतियों में भूरि-भूरि गाया है।
कलिमल
शमन दमन मन, राम सुजस सुख मूल ।
सादर सुनहिं जे तिन्ह पर, राम रहहिं अनुकूल
॥"
इसमें सुंदर सात सोपान हैं ये सब
श्रीरघुनाथ जी के भक्ति के मार्ग हैं जिस पर संत भगवत कृपा होती है वही इस मार्ग
पर पैर रखता है। सातों सोपान भक्तिमार्ग की सात सीढ़ियाँ हैं ये अलग-अलग भक्ति के
मार्ग हैं यह रामचरित मानस अद्भुत सरोवर है जिसमें प्रत्येक सोपान से भक्ति जल की
प्राप्ति होती है और प्रत्येक सोपान के जल के पृथक-पृथक गुण हैं।
याज्ञवल्क जी कहते हैं सब कथा सुनकर
श्रीपार्वती जी के हृदय में वह बहुत अच्छी लगी और वे सुंदर वाणी बोलीं- हे नाथ!
आपकी कृपा से मेरा संदेह जाता रहा और श्री रामजी के चरणों में नया अपूर्व प्रेम
उत्पन्न हुआ। हे विश्वेश जगत के स्वामी आपके प्रसाद से मैं अब कृतकृत्य हुई, मुझमें
दृढ़ रामभक्ति उत्पन्न हुई और मेरे समस्त क्लेश मिट गये । यहाँ ज्ञान घाट की कथा
समाप्त हुई।