राम कथा हिंदी में लिखी हुई-90 ram katha in hindi
भरद्वाज-
याज्ञवल्कि संवाद का उपसंहार
याज्ञवल्कि जी भरद्वाज जी से कहते
हैं कि संसार में जो राम सेवक हैं उनको इस राम कथा के समान प्रिय कुछ भी नहीं है
यह शुभ शम्भु-उमा संवाद सुख का सम्पादन और विषादों का शमन करने वाला है। इतना ही
नहीं भावात्मक सुख भी मिलता है। दुःख का नाश और सुख की प्राप्ति इतना ही पुरुषार्थ
है सो इस संवाद को सुनने से दोनों ही होते हैं।
ऐहि
कलि काल न साधन दूजा । योग यज्ञ जप तप व्रत पूजा ।
अब यहाँ तुलसीदास जी अपने मन से कह
रहे हैं कि इस समय घोर कलियुग तप रहा है। जप, पूजा योग में मन की
एकाग्रता चाहिए, सो कलि में संभव नहीं अत: इनका साधन हो नहीं
सकता केवल –
कलियुग
जोग न यज्ञ न ज्ञाना । एक अधार राम गुन गाना।।
इस कलिकाल में केवल प्रभु श्री राम
का नाम ही आधार है,
इसी का गुणगान करके जीव भवसागर से सहज में ही पार हो सकता है। जब जीव भजन के लिये उनके सन्मुख होता है तैसे ही उसके करोड़ों जन्मों के
पापों का नाश कर देते हैं और जहाँ मद मोह कपटादि को छोड़कर शरण में आया वहाँ उसे
तुरंत साधु के समान बना देते हैं।
रघुवंश
भूषन चरित यह, नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं ।
कलिमल मनोमल धोइ बिनु श्रम, राम धाम सिधावहीं
॥
सत पंच चौपाई मनोहर, जानि जो नर उर धरै ।
दारून अविद्या मंचजनित, विकार श्री रघुवर हरै
॥
इस युग में मलिनता और मनुष्यों के मन
मलिन फिर सुगति की कौन आशा ? परंतु श्रीराम जी के गुणगान से दोनों
छूट जाते हैं। श्रीरघुवंश भूषण के चरित्र को जो स्त्री-पुरुष गाते या सुनते हैं वह
कलि के व मन के मल को धोकर अनायास राम धाम को चले जाते हैं, जहाँ
से पुनरावृत्ति नहीं होती।
प्रवृतिश्च
निवृत्तिश्च कार्या कार्ये भयाभये । -
बन्धं मोक्षश्च यो बोत्ति सवाच्यो भगवानिति ॥”
जो प्रकृति, निवृत्ति,
कार्य, अकार्य, भय,
अभय, बन्ध और मोक्ष को जाने उसे भगवान कहते
हैं।
अतः तुलसीदास जी कहते हैं कि जिनकी
कृपा के लव का भी लेश पाकर मेरा जैसा मंतिमंद भी परम विश्राम के पाने में समर्थ
हुआ, ऐसा पद मुझसे मतिमंद को देने वाला कौन है, श्रीरामजी
सा प्रभु कहीं है ही नहीं।
मो
सम दीनन दीन हित, तुम समान रघुवीर ।
अस विचारि रघुवंश मनि हरहु विषम भवभीर ॥
हे रघुवीर न मुझसा कोई दीन है और
आपके सामान ना कोई दीनों का हित करने वाला है। ऐसा विचार कर हे रघुवंश मणि मेरे
जन्म मरण के भयानक दुख का हरण कर लीजिए।
हे नाथ न मेरा जोड़ कोई इस संसार में
है और न आपका कोई जोड़ है मेरा उद्धार आप ही कर सकते हैं ऐसा विचार करके हे रघुवंश
मणि मेरा यही माँगना है कि विषम भव पीर का हरण करिये।
कामिहि
नारि पियारि जिमि, लोभिहि प्रिय जिमिदाम ।
तिमि रघुनाथ निरंतर, प्रिय लागहु मोहि राम
॥"
गोस्वामीजी कहते हैं मुझे तो
श्रीचरणों में प्रेम चाहिये और प्रेम ऐसा चाहिए कि जैसा प्रेम कामी का स्त्री पर
होता है,
पर वह भी चौबीसों घंटे नहीं बना रहता तब सोचकर लोभी की उपमा दी
क्योंकि लोभ अपार होता है वह चौबीस घंटे बना ही रहता है। अत: वह प्रेम, प्रथम जैसा होकर लोभ बन जाय, अत: लोभ जैसा प्रेम बना
रहे, जैसे लोभी धन को सँवारने में दिन-रात लगा रहता है कहीं
धन गिर न जाय उसी भाँति मेरा चित्त सदा आपके सँभाल में लगा रहे।
पुण्यं
पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानाभाक्तिप्रदम
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम।
श्रॆमद्रामचरितमानसमिदम भक्त्यावगाहन्ति ये
ते सन्सारपतनगघोरकिरनैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।
यह श्री रामचरितमानस पुण्यरूप पापों
का हरण करने वाला और कल्याणकारी है। भक्ति को देने वाला, माया
मोह का नाश करने वाला है। जो मनुष्य भक्ति पूर्वक इस मानस सरोवर में गोता लगाता है
वह संसार रूपी सूर्य के अति प्रखर किरणों से नहीं जलता।
।।बोलिए
श्री सीतारामचंद्र भगवान की जय।।
"सप्तम
सोपान समाप्त"