हिरण के मोह में भरतमुनि / अन्ते या मति सा गति Bharat muni ki Katha

!! अन्त मति सो गति !!

Drishtant Bhagwat

मृत्यु के समय मनुष्य सबसे अंत में जो विचार करता है जिसका चिंतन करता है उसका अगला जन्म उसी प्रकार होता है | 

भगवान ऋषभदेव के पुत्र

भगवान ऋषभदेव के पुत्र, सप्तदीप वती पृथ्वी के एकछत्र सम्राट भरत वही भरत जिनके नाम पर हमारे इस देश का प्राचीनतम नाम अजनाभ वर्ष बदल गया और अब इसे भारतवर्ष कहने लगे | वह धर्मात्मा सम्राट वानप्रस्थ समय आने पर राज्य कुटुंब ग्रह का त्याग करके वन में चले गए |

महाराज भरत के बैराग्य में कोई कमी नहीं थी राज्य करते समय उन्हें किसी बात का अभाव भी नहीं रहा था , शत्रु रहित समस्त भूमंडल के वे सम्राट थे उनको परम पतिव्रता पत्नी मिली थी और किसी भी राजर्षि कुल का गौरव बढ़ा सके ऐसे पांच पुत्र थे |

महाराज भरत ने उद्वेग से नहीं विवेक पूर्वक भगवत भजन के लिए ग्रह का त्याग किया , पुलह आश्रम में पहुंचकर वे निष्ठा पूर्वक भजन में लग गए संयोग की बात थी राजर्षि भरत एक दिन नदी में स्नान करके संध्या कर रहे थे उसी समय एक गर्भवती हरिणी वहां जल पीने आयी वह पानी पी ही रही थी कि वन में कहीं पास सिंह की भयंकर गर्जना हुई भय के मारे मृगी पानी पीना छोड़ कर छलांग मार भागी |

मृगी का प्रसव काल समीप आ चुका था भय की अधिकता और पूरे वेग से उछलने के कारण उसके पेट का मृग शावक बाहर निकल पड़ा और नदी के प्रवाह में बहने लगा हरनी तो इस आघात से कहीं दूर जाकर मर गई सद्य: प्रसूत मृगशावक  भी मरणासन्न था, राजर्षि भरत को दया आ गई वे उसे प्रवाह में से उठाकर आश्रम ले आए|

मरणासन्न प्राणी

किसी मरणासन्न प्राणी पर दया करके उसकी रक्षा करना पाप नहीं है यह तो पुण्य ही है राजर्षि भरत ने पुण्य ही किया था वह बड़े स्नेह से उस मृत शावक का  लालन-पालन करने लगे इसमें भी कोई दोष नहीं था लेकिन इसी में एक दोष पता नहीं कब चुपचाप प्रविष्ट हो गया उस मृगशावक से उन्हें मोह हो गया उसमें उनकी आसक्ति हो गई |

वह चक्रवर्ती सम्राट अपने राज स्त्री तथा सगे पुत्रों के मोंह का सर्वथा त्याग कर वन में आए थे उन्हें एक हरणी के बच्चे से मोह हो गया |मृगशावक जब ह्रष्ट पुष्ट  समर्थ हो गया उसके पालन का कर्तव्य पूरा हो चुका था उसे वन में स्वतंत्र कर देना था लेकिन मृग शावक का मोह , वह मृग भी  राजर्षि भरत को उसी प्रकार स्नेह करने लगा था जैसे परिवार के स्वजन करते हैं|

मृत्यु तो सबको अपना ग्रास बनाती है राजर्षि भरत का भी अंतिम समय पास आया| मृग सावक उनके पास ही उदास बैठा था , उसी की ओर देखते हुए उसी की चिंता करते हुए भरत का शरीर छूटा फल यह हुआ कि दूसरे जन्म में उन्हें मृग होना पड़ा|

भगवत भजन व्यर्थ नहीं जाता भरत को मृत शरीर में भी पूर्व जन्म की स्मृति बनी रही वहां भी उनमें बैराग एवं भक्ति का भाव उदय हुआ |मृग शरीर छूटने पर वे ब्राह्मण कुमार हुए पूर्व जन्म की स्मृति के कारण वे अब पूर्ण सावधान हो गये कहीं मोंह में ना हो जाए इस भय से अपने को पागल के समान रखते थे उनका नाम ही जड़ भरत पड़ गया |

वह महान ज्ञानी है यह तो तब पता लग गया जब राजा राहूगण पर कृपा करके उन्होंने उपदेश दिया , इस पूरी कथा में देखने की बात यह है यह है कि राजर्षि भरत जैसे त्यागी विरक्त भगवत भक्त को भी मृगशावक के मोह मे मृग  होना पड़ा| अंत में मृग का स्मरण उन्हें मृग की योनि में ले ही गया |दया करो प्रेम करो हित करो पर कहीं आसक्ती मत करो किसी में मोह मत करो कहीं ममता के बंधन में अपने में को मत बांधो|

अंत समय भगवान का स्मरण कर लेंगे यह कर लेंगे अपने बस की बात नहीं है| अंत समय मनुष्य सावधान नहीं रहता वह प्रायः इस अवस्था में नहीं होता कि कुछ विचार पूर्वक सोचे| जीवन में जिससे उसकी आशक्ति रही है, उसके मन का सर्वाधिक आकर्षण जहां है| अंत समय में वही उसे स्मरण होगा जीवन में ही मन भगवान में लग जाए मन के आकर्षण के केंद्र भगवान बन जाए अंत में तभी वे परम प्रभु स्मरण आएंगे!

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