Bhagwat Katha in hindi PDF / भागवत कथानक चतुर्थ स्कंध भाग-4

भागवत कथानक चतुर्थ स्कंध, भाग- 4 
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
एक बार महराज पृथु अपनी प्रजा को उपदेश देते हुए कहा , आप लोगों ने मुझे अपनी आजीविका और धर्म की रक्षा करने के लिए राजा नियुक्त किया है |
य उद्धरेत्करं राजा प्रजा धर्मेष्वशिक्षयन् |
प्रजानां शमलं भुङ्क्ते भगं च स्वं जहाति सः ||

जो राजा प्रजा से कर ( टैक्स ) तो लेता है परंतु उसे धर्म की शिक्षा नहीं देता वह प्रजा के पाप का भागी होता है इसलिए आप सभी मुझ पर करुणा कृपा करके स्वधर्म का पालन करते हुए भगवान का भजन  कीजिए |

महाराज पृथु इस प्रकार उपदेश दे ही रहे थे कि उसी समय आकाश मार्ग से सनत , सनंदन , सनातन और सनतकुमार चारों मुनीश्वर वहां आए , महाराज पृथु ने विधिवत उनका पूजन किया उन्हें उत्तम आसन प्रदान किया जब वह सुख पूर्वक बैठ गए तो उनसे प्रश्न किया--------- ?

मुनीश्वरों प्राणियों का कल्याण का अत्यंत सरलतम उपाय कौन सा है सनकादि मुनीश्वरों  ने कहा राजन आपने प्राणियों के कल्याण के लिए बहुत अच्छा प्रश्न पूंछा है |
शास्त्रेष्वियानेव सुनिश्चितो नृणां 
             क्षेमस्य सध्र्यग्विमृशेषु हेतुः |
असंग आत्मव्यतिरिक्त आत्मनि
             दृढा रतिर्ब्रह्मणि निर्गुणे च या ||
 राजन शास्त्रों में प्राणियों के कल्याण का सरलतम उपाय यही बताया गया है कि आत्मा से अतिरिक्त जो भी पदार्थ है उनके प्रति बैराग हो जाए और निर्गुण ब्रह्म में दृढ़ अनुराग हो जाए | 

गुरु और शास्त्रों के वचनों पर विश्वास करने से , भागवत धर्मों का पालन करने से , तत्व की जिज्ञासा से , ज्ञानयोग की निष्ठा से , भगवान श्रीहरि की उपासना से तथा निरंतर भगवान की लीला कथा के श्रवण से संसार से वैराग्य ओ जाता है और निर्गुण ब्रह्म में दृढ़ अनुराग हो जाता है |

सनकादि मुनियों ने जब इस प्रकार का उपदेश दिया महाराज पृथु प्रसन्न हो गए उन्होंने अपना राज्य बल कोष सब सनकादि मुनीश्वरों के चरणों में समर्पित कर दिया और हाथ जोड़कर कहा--
स्वमेव ब्राम्हणो भ्ङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च |
तस्यैवानुग्रहेणान्नं     भुंजते      क्षत्रियादयः ||
 मुनीश्वरों ब्राह्मण अपना ही खाता है अपना ही पहनता है और अपनी ही वस्तुओं का दान देता है , दूसरे छत्रिय आदि तो उन्ही ब्राह्मण की कृपा से अन्न आदि को प्राप्त करते हैं |

सनकादि मुनीश्वरों ने कहा राजन हम विरक्त ब्राह्मण ठहरे सदा भगवान का भजन करते हैं इस राज्य का हम क्या करेंगे अभी तक आप इसे अपना समझकर इसका पालन कर रहे थे अब इसे हमारा प्रसाद समझकर इसका पालन कीजिए , ऐसा कह सनकादि मुनीश्वर वहां से चले गए |

महाराज पृथु अपने पुत्र के समान प्रजा का पालन करते जैसे सूर्य गर्मी में पृथ्वी का जल सोख लेता है और वर्षा ऋतु में उसे वर्षा देता है उसी प्रकार महाराज पृथु प्रजा से कर तो लेते और समय आने पर प्रजा के हित में उसे लगा देते |

महाराज पृथु की वृद्धावस्था आ गई उन्होंने राज्य अपने पुत्र विजिताश्व को सौंपा और महारानी अर्चिदेवी के साथ वन में चले आए , वहां वानप्रस्थ धर्म का पालन कर अपने शरीर का त्याग कर दिया , महरानी अर्चि देवी ने चिता सजाई अपने पति के शरीर को रखा उसकी परिक्रमा की पति के चरणों का ध्यान कर सती हो गई |
* बोलिये पृथु भगवान की जय *

( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )

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मैत्रेय जी कहते हैं - विदुर जी भगवान पृथु के वेष में हविर्धान की पत्नी हबिर्धानी से बर्हिषद आदि छः पुत्र हुए | बर्हिषद ने कुश कंडिका करते हुए पूर्व दिशा की ओर अग्र भाग करते हुए इतनी कुशायें बिछाई की संपूर्ण पृथ्वी कुशा से ढक गई , आच्छादित हो गई जिससे इनका नाम प्राचीनबर्हि पड़ा |

महराज प्राचीनबर्हि का विवाह समुद्र की पुत्री सप्तद्रुति से हुआ जिससे प्रचेता नाम के दस पुत्र हुए , महाराज प्राचीनबर्हि को कर्मकांड में आसक्त देखकर देवर्षि नारद कृपा करके उन्हें उपदेश देने आए , देवर्षि नारद ने कहा-
श्रेयस्त्वं कतमद्राजन कर्मणात्मन् ईहषे |
दुःखहानिः सुखावाप्तिः श्रेयस्तन्नेह चेष्यते ||
राजन इस प्रकार पशु हिंसात्मक यज्ञों से तुम अपना किस प्रकार का कल्याण करना चाहते हो क्योंकि दुख की अत्यान्तिक निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति का नाम ही कल्याण है | और यह कल्याण कर्मों के द्वारा नहीं हो सकता , जरा अपना सिर उठाकर आकाश की ओर देखो तुमने यज्ञों में जिन-जिन पशुओं की बलि दी है |

वह सब तुम्हारे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब तुम मर कर आकाश मार्ग से जाओगे तो यह सब क्रोध में भरकर लोहे की सींगो से तुम्हें भेदेंगे तुम्हें कष्ट देंगे | प्राचीनबर्हि ने जब यह देखा भयभीत हो गए हाथ जोड़कर देवर्षि नारद से कहा---
न जानामि महाभाग परं कर्मापविद्धधी |
ब्रूहि मे विमलं ज्ञानं येन मुच्येय कर्मभिः ||
 देवर्षि नारद मैं अपने कर्मों में मोहित होने के कारण कल्याण क्या है इसे मैं ना जान सका आप मुझे विशुद्ध ज्ञान का उपदेश दीजिए जिससे मैं अपने कर्म बंधन से मुक्त हो सकूं मुझे मुक्ति की प्राप्ति हो सके |देवर्षि नारद ने कहा राजन मै तुम्हे  एक पुराना इतिहास सुनाता हूं |
    * पुरन्जन उपाख्यान *
आसीत्पुरन्जनो नाम राजा राजन वृहच्छ्रवा |
तस्या विज्ञात नामासीत्सखा विज्ञात चेष्टितः ||
एक पुरंजन नाम का राजा था | परमं शरीरं जनयति इति पुरन्जनः || जो अपने कर्मों के अनुसार अनेकों प्रकार के शरीर धारण करें ऐसे जीवात्मा को पुरंजन कहते हैं , पुरन्जन का एक मित्र था , जिसका नाम अभिज्ञात था |
न विज्ञाय जन्मभिः कर्मभिः इति अभिज्ञातः || जिसके जन्म और कर्म का पता नहीं चलता ऐसा परमात्मा ही अभिज्ञात नाम का मित्र है |

एक बार पुरंजन अपने सखा अभिज्ञात से आज्ञा लेकर पृथ्वी में रहने के अनुरूप स्थान को खोजने आया उसने अनेकों स्थान देखे परंतु कोई भी स्थान उसे अच्छा नहीं लगा |

एक दिन उसने संपूर्ण लक्षणों से युक्त नौ द्वारों का नगर देखा उस नगर में एक सुंदर स्त्री थी , जिसके पास दस सेवक थे | एक पांच फन का नाग इस नगर की रक्षा करता था , यह मनुष्य शरीर ही नौ द्वारों का नगर है जिसमें सात द्वार ऊपर और दो द्वार नीचे हैं | और बुद्धि ही सुंदर स्त्री है---- ( बुद्धीं तु प्रमदां विद्यात ) पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां इनके दश सेवक हैं |

पांच प्राण ही इस नगर का रक्षक पांच फन का नाग है , जब पुरन्जन ने उस स्त्री को देखा तो पूछा तुम कौन हो , कहां से आई हो और इस नगरी में क्या करने आई हो देखने में तुम उमा रमा ब्रह्माणी की तरह लग रही हो परंतु तुम  इनमें से कोई नहीं हो सकती क्योंकि तुम्हारे चरण धरा से स्पर्श कर रहे हैं |

उस स्त्री ने कहा महाराज मुझे किसने उत्पन्न किया और मैं कौन हूं मेरा क्या नाम है मैं तो ये स्वयं ही नहीं जानती हूं | पुरंजन ने कहा देखो मैं पुरंजन हूं मुझसे विवाह कर लो और पुरंजनी बन जाओ पुरन्जन के इस प्रकार कहने पर दोनों ने विवाह कर लिया दोनों एक साथ उसी नगर में रहने लगे | पुरजंन पुरजंनी में इतना आसक्त हो गया कि-
क्वचिद् गायति गायन्त्यां रुदत्यां रुदती क्वचिद् |
क्वचिद्धसन्त्यां हसति जल्पन्त्यामनु जल्पति ||
जब वह गाती तो स्वयं भी गाने लगता जब वह रोती तो स्वयं भी रोने लगता , उसके हंसने पर हंसता , बात करने पर बात करता उसके शोक करने पर शोक करता और जब वह प्रसन्न हो जाती तो स्वयं प्रसन्न हो जाता |

 एक दिन पुरजंन पुरजंनी को बिना बताये ही शिकार खेलने वन मे  चला गया शायंकाल  थक हार कर घर लौटा , स्नान किया वस्त्र आभूषण धारण कर भोजन किया और पुरजंनी को नहीं देखा तो दासी से पूछा महारानी कहां है | दासी ने बताया महरानी वस्त्र आभूषण का त्याग करके पृथ्वी में पड़ी हुई हैं |

तो पुरंजन दुखी हो गया दौड़ा दौड़ा पुरंजनी के पास आया उसके चरणों को पकड़कर अनुनय विनय करने लगा | कहने लगा महारानी व्यसन के कारण मैं तुमसे बिना पूछे शिकार खेलने चला गया था मैं तुम्हारा अपराधी हूं तुम्हें जो दंड देना है वह मुझे दे दो पर प्रसन्न हो जाओ आज के बाद मैं तुमसे बिना पूछे कहीं नहीं जाऊंगा पुरजंनी प्रसन्न हो गई और वे दोनों प्रसन्नता पूर्वक उस नगरी में रहने लगे |

इनकी जवानी एक क्षण के समान व्यतीत हो गई इनकी अनेकों संताने हुई इन्होंने स्वर्ग आदि प्राप्ति के लिए अनेकों पशुओं के हिंसात्मक यज्ञ किए |यहां चंण्डवेग नाम का गंधर्व जिसके तीन सौ साठ सेवक सेविकायें  हैं यह सब मिलकर पुरंजन पूरी को लूटने लगे |

संवत्सर ही चंण्डवेग नाम का गंधर्व है , दिन रात ही उसके सेवक और सेविकायें हैं जो बारी-बारी से आयु का हरण करते रहते हैं , पता ही नहीं चलने देते कब वृद्धावस्था आयी और कब व्यतीत हो गई | काल की कन्या जरा देवी बुढ़ापा जो समय के अनुसार सभी को आना है |

जरा एक बार त्रिलोकी में अपने योग्य वर ढूंढ रही थी उसने विवाह के लिए नारदजी से कहा नारद जी ने जब मना कर दिया तो जरा ने नारद जी को श्राप दिया कि एक ही स्थान पर अधिक देर तक नहीं ठहर सकोगे देवर्षि नारद ने कहा देवी श्राप स्वीकार है परंतु विवाह नहीं |

जरा देवी ने नारदजी से कहा यदि आप मुझसे विवाह नहीं कर सकते तो कोई और हो वह बता दो मैं कहां जाऊं देवर्षि नारद ने कहा तुम यवन राज मृत्यु के पास चली जाओ जब जरा देवी मृत्यु के पास गयी और उनसे विवाह के लिए कहा तो , यवनराज मृत्यु ने कहा मेरा भाई प्रज्वार है  तुम मेरी बहन बन जाओ हम तीनों मिलकर आनंद से विचरण करेंगे |

मृत्यु देवता भी बुढ़ापे से डरते हैं मृत्यु देवता ने जरा से विवाह नहीं किया बल्कि उसे अपनी बहन बना लिया | तीनों ने पुरजंन पुरी पर आक्रमण कर दिया बुढ़ापे के कारण शरीर में रोग आ गया जब मृत्यु का समय निकट आया तो पुरंजन को पुरंजनी की चिंता सताने लगी मेरे ना रहने के बाद इसका क्या होगा यह कैसे अपना जीवन यापन करेगी , यह तो बिल्कुल अनाथ हो जाएगी पुरंजनी का स्मरण करते पुरंजन का शरीर छूट गया |

(  अन्ते या मतिः सा गतिः  )स्त्री का स्मरण करके मरा इसलिए अगला जन्म विदर्भ की कन्या के रूप में उत्पन्न हुआ जब यह कन्या बडी हुई तो इसका विवाह पांड्य नरेश मलयध्वज से हुआ |

इनके अनेकों संताने हुई जब महाराज मलयज वृद्ध हो गए तब अपना राज्य पुत्रों को सौंपकर अपनी पत्नी के साथ वन में चले आये वहां भगवान का ध्यान करते करते भगवान को प्राप्त कर लिया |

पति के मृत शरीर को देख वेदर्भी विलाप करने लगी लकड़ी की चिता बनाई उसमें अपने पति के शरीर को रखा और सती होने का विचार करने लगी | उसी समय उसके पूर्व जन्म का सखा अभिज्ञात ढूंढते हुए वहां आ पहुंचा उसने कहा--
का त्वं कस्यसि को वायं शयानो यस्य शोचसि |
जानासि किं   सखायं मां  येनाग्रे  विचचर्थ  हं ||
तुम कौन हो किसके लिए शोक कर रही हो ये पुरुष कौन है और क्या तुम मुझे जानती हो मैं तुम्हारे पूर्व जन्म का सखा हूं | तुम मुझे छोड़कर पृथ्वी में नगर ढूंढने आए थे वहां पूरजंन पुरी में आशक्त होने कारण तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है |
न त्वं विदर्भदुहिता नायं वीरः सुह्रत्तवः |
न पतिस्त्वं पुरञ्जन्या रुध्दो नव मुखे यया ||
माया ह्येषा मया सृष्टा यत्पुमासंस्त्रियः सताम् |
मन्यसे नो भयं तद्वै हंसौ पश्यावयोर्गतिम् ||
न तो तुम विदर्भराज की पुत्री हो ,ना यह तुम्हारा पति है और ना ही पूर्व जन्म में तुम पुरजंनी के पति थे | जो तुम अपने आप को स्त्री या पुरुष मानते हो यह सब मेरी रचाई हुई माया है , तुम अपने वास्तविक स्वरूप का स्मरण करो |

अभिज्ञात ने जब इस प्रकार का उपदेश दिया तो बेदर्भी को सब याद आ गया और वह सब का त्याग करके अपने स्वरूप में स्थित हो गई | महाराज प्राचीनबर्हि इन कर्मों के द्वारा  इसी प्रकार आपकी भी गति होगी |
तत्कर्म हरितोषं यत्सा विद्या तन्मतिर्मय ||
क्योंकि राजन कर्म तो वही है जिसके करने से भगवान हरि प्रसन्न हो जाएं और ज्ञान वही है जिससे अपना मन भगवान चरणों में लग जाए |देवर्षि नारद के इस प्रकार उपदेश देने पर महाराज प्राचीनबर्हि की संदेश के निवृत्ति हो गई |

उन्होंने अपना राज्य अपने पुत्रों को सौंपा और कपिल आश्रम में चले गए वहां भगवान का भजन करके  भगवान को प्राप्त कर लिया | महाराज प्राचीनबर्हि ने अपने पुत्र प्रचेताओं को संतान उत्पन्न करने की अनुमति दी थी तो वे तपस्या करने आ रहे थे मार्ग में रूद्र गीत उपदेश दिया इस रूद्र गीत की उपासना से भगवान श्रीहरि प्रसन्न हो गए उन्होंने प्रचेताओं से कहा कि तुम्हारा विवाह प्रेम लोचा अप्सरा की कन्या मरीषा के साथ होगा उससे जो पुत्र उत्पन्न होगा | उसकी संतानों से सृष्टि भर जाएगी |

भगवान नारायण की आज्ञा से प्रचेताओं ने मरीषा से विवाह किया जिससे दक्ष नामक पुत्र हुआ , अपने पुत्रों तथा अपनी पत्नी मरीषा को छोड़ प्रचेता पश्चिम दिशा में समुद्र के तट पर जाजली मुनि के आश्रम में चले गए | वहां उन्हें देवर्षि नारद का सत्संग प्राप्त हुआ , उस सतसंग के प्रभाव से उन्होंने भगवत धाम को प्राप्त कर लिया |
( चतुर्थ स्कन्ध का विश्राम हुआ )

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आगे की कथा पढ़ने के लिए पंचम स्कंध भाग- 1 को देखें ?

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