!! संत-स्वभाव !!
* संत वचन शीतल सुधा करत तापत्रय नास *
आपको कभी क्रोध आया है दांतों पर ?
आपके मन में भी यह बात आई है कि दांत दुष्ट हैं - बिना अपराध उन्होंने जीभ को काट लिया , इन्हें दंड देना चाहिए ? आप कहेंगे कि कैसा व्यर्थ प्रश्न है | जीभ अपनी और दांत भी अपने | जीभ कटी तो कष्ट हुआ | अब क्या दातों को दंड देकर और कष्ट भोगना है ,दांतोंको दंड का कष्ट भी तो अपने को ही होगा |
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एक संत कहीं घूमते हुए जा रहे थे | कहां जा रहे थे ? हमें इसका पता नहीं है | संत होते ही रमते राम हैं | एक स्थान पर टिक कर उन्हें रहना नहीं आता | यह तो लोकोक्ति है -----
बहता पानी और रमता संत ही निर्मल रहता है |
एक वन में एक दुष्ट प्रकृति का मनुष्य रहता था | साधु-संतों से उसे चिढ़ थी | चिढ़ थी शो थी | दुष्ट स्वभाव ही अकारण शत्रुता करना , सीधे लोगों को अकारण कष्ट देना होता है |संत घूमते हुए उस वन में निकले | दुष्ट ने उन्हें देखा तो पत्थर उठाकर मारने दौड़ा-- ' तु इधर क्यों आया ? क्या धरा है तेरे बाप का यहां ?
संत ने कहा-- मैंने तुम्हारी कोई हानि नहीं की है | तुम क्यों अप्रसन्न होते हो ? तुम्हें मेरा इधर आना बुरा लगता है तो मैं लौट जाता हूं |' तू आया ही क्यों ? दुष्ट अपनी दुष्टता पर आ गया था | संत को उसने कई पत्थर मारे | सिर और दूसरे अंगों में चोटें लगी | रक्त बहने लगा | लेकिन संत भी संत ही थे | बिना कुछ बोले लौट आए |
कुछ दिनों बाद फिर संत उसी ओर गए | उनका हृदय कहता था-- ' बेचारा पता नहीं किस कारण साधु के वेश से चिढ़ता है | साधुओं को कष्ट देकर तो वह नरकगामी होगा | उसको सुबुद्धि मिलनी चाहिए | उसका उद्धार होना चाहिए | वह दुष्ट आज दीखा नहीं | संत उसकी झोपड़ी के पास गए | वह तो खाट पर बेसुध पड़ा था | तीव्र ज्वर था उसे | जैसे अपना पुत्र ही बीमार पड़ा हो-- संत उसके पास जा बैठे उसकी सेवा शुश्रूषा में लग गए |
उस दुष्ट के नेत्र खुले | उसने साधु को देखा | उसके मुख से कठिनाई से निकला-- ' आप ?
संत ने उसे पुचकारा-- ' तुम पड़े रहो | चिंता की कोई बात नहीं है | अरे अपने ही दाँत से अपनी जीभ कट जाए तो कोई क्रोध किस पर करे ? तुम अलग हो और मैं अलग हूं , यही तो भ्रम है |एक ही विराट के हम सब अंग हैं ||
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पं. शिवम् मिश्र जी