गृहस्थ संत- संत कोई भी हो सकता है !
संत विरक्त ही हों यह आवश्यक नहीं है, संतों का ना कोई वर्ण है ना आश्रम,ना देश | सभी वर्णों में सभी आश्रमों में ,सभी देशों में, गृहस्थ विरक्त सभी में संत हुए हैं - हो सकते हैं | स्त्री पुरुष सब में संत होते आए हैं |गृहस्थ मे भी उच्चकोटि के संत होते हैं
अत्रि-अनुसूया➡ महर्षि अत्रि और उनकी पत्नी श्री अनुसूया जी | ब्रह्मा विष्णु और शंकर जी भी जिनके पुत्र बने | चंद्रमा,दत्तात्रेय तथा दुर्वासा रूप में जो महर्षि मंडली में सदा से पूज्य हैं | धन्य है उनका गृहस्थ, जगत जननी श्री जानकी जी को भी जो पतिव्रत धर्म का उपदेश कर सकें| अनुसूया जी को छोड़कर दूसरा कौन ऐसा हो सकता है |महाराज जनक➡ पूरे राज्य का संचालन करते हुए उससे सर्वथा अनासक्त , अपने शरीर का भी जिन्हें मोह नहीं इसी से तो वे विदेह कहे जाते हैं | विरक्त शिरोमणि श्री सुकदेव जी भी जिन्हें गुरु मानकर ज्ञानोपदेश प्राप्त करने गए | उन परम ज्ञानी के संबंध में क्या कहा जाए |क्या हुआ जो वे छत्रिय थे, क्या हुआ जो वे नरेश थे | उनका तत्वज्ञान उनकी अनासक्ति उनकी भगवत भक्ति जगत उससे सदा प्रकाश पाता रहेगा |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः
तुलाधार वैस्य थे व्यापार उनका स्वकर्म था और उसी से वे अर्चन करते थे, घटघटबिहारी प्रभु का | व्यापार उनके निजी लाभ का साधन नहीं था, वह आजीविका का साधन था- वह और बात है उनके पास ग्राहकों के नाना रूप में जो जगत नियंता आते थे ,उनकी सेवा का साधन था व्यापार | ग्राहक आया-- वे सोचते थे यह इस वेश में प्रभु आए | इस समय इनकी इच्छा अनुसार इनकी सेवा कैसे हो | ग्राहक का हित ग्राहक का लाभ, यह था उनके व्यापार का आदर्श और इमानदारी | इस व्यापार में इसी साधन ने उन्हें संत बना दिया, ऐसे संत बन गए कि एक वनवासी त्यागी तपस्वी ब्राह्मण को अपनी तपस्या छोड़कर उनसे धर्म उपदेश प्राप्त करने आना आवश्यक जान पड़ा |गृहस्थ मे भी उच्चकोटि के संत होते हैं
There are high-class saints even at home.