महाराज भर्तहरि
महान शिव भक्त और सिद्ध योगी उज्जैन के अधिपति
जब मैं बिल्कुल ही अज्ञान था, तब मदोन्मत्त हाथी के समान मदान्ध हो रहा था, उस समय मेरा मन, मैं ही सर्वज्ञ हूं यह सोचकर घमंड में चूर था | परंतु जब विद्वानों के पास रहकर कुछ कुछ ज्ञान प्राप्त किया तब मैं मूर्ख हूं, यह समझने के कारण ज्वर के समान मेरा गर्भ दूर हो गया |जिनमें ना विद्या है, ना ज्ञान है, ना शील है, ना गुण है और ना धर्म ही है, वह मृत्युलोक में पृथ्वी के भार बने हुए मनुष्य रूप से मानो पशु ही घूमते फिरते हैं |
कहिए सत्संगति पुरुषों का क्या उपकार नहीं करती ? वह बुद्धि की जड़ता को हर्ती है , वाणी में सत्य का संचार करती है, सम्मान बढ़ाती है, पाप को दूर करती है, चित्त को आनन्दित करती है और समस्त दिशाओं में कीर्ति का विस्तार करती है |
हमने लोगों को नहीं भोगा, भोगों ने हमको भोग लिया , हमने तप नहीं किया स्वयं ही तप्त हो गये, काल व्यतीत नहीं हुआ, हम ही व्यतीत हो गए , और मेरी तृष्णा नहीं जीर्ण हुई हम ही जीर्ण हो गए|
सब के आदि कारण भगवान शिव के पाद पद्मो में प्रीति हो , हृदय में जन्म मृत्यु का भय हो , भाई, बंधु तथा कुटुम्बियों में ममता ना हो और हृदय में काम विकार का अभाव हो- कामनी के कमनीय कलेवर को देखकर उसमें आसक्ती ना होती हो, संसारी लोगों के संसर्गजन्य दोष से रहित पवित्र और शांत विजन वन में निवास हो तथा मन में बैराग्य हो तो इससे बढ़कर वांछनीय और हो ही क्या सकता है |
माता पृथ्वी ! पिता पवन ! मित्र तेज ! बंधु जल ! और भाई आकाश ! यह आप लोगों को अंतिम प्रणाम है क्योंकि आपके संग से प्राप्त पुण्य के द्वारा प्रकटित निर्मल ज्ञान से संपूर्ण मोह जंजाल को नाश करके मैं पर ब्रह्म में लीन हो रहा हूं |
जब तक शरीर स्वस्थ है, बुढ़ापा नहीं आया है , इंद्रियों की शक्ति पूरी बनी हुई है, आयु के दिन शेष है , तभी तक बुद्धिमान पुरुष को अपने कल्याण के लिए अच्छी तरह यत्न कर लेना चाहिए | घर में आग लग जाने पर कुआं खोदने से क्या होगा ? गिरिकंदरा में निवास करने वाले परम ब्रह्म के ध्यान में मग्न हुए धन्य योगी जनों के आनंन्दाश्रुओं को गोद में बैठे हुए पक्षीगण निःशंक होकर पीते हैं, पर हम लोगों की आयु तो मनोरथमय महल के सरोवर तटों पर स्थित बिहार विपिन में आमोद प्रमोद करते व्यर्थ ही व्यतीत हो रही है |
भोगों में रोग का भय है, उच्च कुल में पतन का भय है , धन में राजा का , मान में दीनता का, बल में शत्रुता का तथा रूप में वृद्धावस्था का भय है | और शास्त्र में वाद विवाद का, गुण में दुष्ट जनों का तथा शरीर में काल का भय है, इस प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए सभी वस्तुएं भय पूर्ण हैं भय से रहित है तो केवल वैराग्य ही है |