आचार्य श्रीधर स्वामी
( श्रीमद्भागवत के सर्वमान्य टीकाकार )
तपन्तु तापैः प्रपतन्तु पर्वता-दटन्तु तीर्थानि पठन्तु चागमान् |
यजन्तु यागैर्विवदन्तु वादै-
र्हरिं विना नैव मृतिं तरन्ति ||
चाहे कोई तप करे, पर्वतों से भ्रगू पतन करे, तीर्थों में भ्रमण करें, शास्त्र पढ़े, यज्ञ यज्ञादि करें अथवा तर्क वितर्कों द्वारा वाद-विवाद करे, परंतु श्री हरि की कृपा के बिना कोई भी मृत्यु को नहीं लाँघ सकता |
उदरादिषु यः पुंसा चिन्तितो मुनिवर्त्मभिः |
हन्ति मृत्युभयं देवो हृद्गतं तमुपास्महे ||
मनुष्य ऋषि-मुनियों द्वारा बतलाई हुई पद्धतियों से उदर आदि स्थानों में जिनका चिंतन करते हैं और जो प्रभु उनके चिंतन करने पर मृत्यु भय का नाश कर देते हैं, उन हृदयस्थित प्रभु कि हम उपासना करते हैं |
त्वत्कथामृतपाथौधौ विहरन्तो महामुदः |
कुर्वन्ति कृतिनः केच्चिच्चतुर्वर्गं तृणोपमम् ||
प्रभो ! कुछ सुकृति लोग आपकी कथा रूप अमृत समुद्र में अत्यंत आनंद पूर्व बिहार करते हुए अर्थ, धर्म , काम , मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को तृणवत समझकर त्याग कर देते हैं |
अहंः संहरदखिलं सकृदुदयादेव सकललोकस्य |
तरणिरिवतिमिरजलधिं जयतिजगन्मङ्गलंहरेर्नाम|
संपूर्ण जगत् का मंगल करने वाला भगवान श्री हरि का नाम सर्वोपरि विराजमान है | एक बार ही प्रकट होने पर वह अखिल विश्व की समस्त पाप राशि का उसी प्रकार विनाश कर देता है जैसे भगवान भुवन भास्कर अंधकार के समुद्र को सोख लेते हैं |
सदा सर्वत्रास्ते ननु विमलमाद्यं तव पदं |
तथाप्येकं स्तोकं नहि भवतरोः पत्रमभिनत् ||
क्षणं जिह्वाग्रस्थं तव नु भगवन्नाम निखिलं |
समूलं संसारं कषति कतरत् सेव्यमनयोः ||
प्रभो ! आपका माया रूपी महल से रहित अनादि ब्रह्म रूप पद निश्चय ही सब समय और सब जगह व्याप्त है , फिर भी संसार रूपी वृक्ष के एक छोटे से बच्चे को भी वह काटने में समर्थ नहीं हुआ , इधर आपका नाम एक क्षण के लिए जिह्वा के अग्र भाग पर स्थित होकर सारे जन्म मृत्यु रूप बंधन को अविद्या रूपी मूल के साथ काट देता है, फिर आप ही बताइए....