हरिदास जी की कृपा
हरि श्री हरिदास जी जन्म से यवन थे |
महाप्रभु के प्रकट होने से पूर्व वे अद्वैताचार्य के सानिध्य के लाभ की दृष्टि से शांतिपुर के समीप ही फुलिया ग्राम में रहते थे | बंगाल में उन दिनों मुसलमान शासकों का प्रभाव था ! आए दिन उनके अत्याचार होते ही रहते थे, एक मुसलमान काफिर हो जाए- हिंदुओं के भगवान का नाम जपे, यह कट्टर काजियों को सहन नहीं हो सकता था| गोराई नामक एक काजी ने स्थानीय शासक के यहां हरिदास जी की शिकायत की,
हरिदास जी दरबार में बुलाए गए काजी की सम्मति से शासक ने निर्णय किया- हरिदास या तो कुफ्र छोड़ दे या बाईस बेंत मारते हुये उन्हें बाजारों में घुमाया जाए, बेंत मारते मारते उनके प्राण लिए जाए |हरिदास जी बाँध दिए गए, उनकी पीठ पर सड़ा-सड़ बेंत पड़ने लगे !
जल्लाद बेंत मारते हुए उन्हें बाजारों में घुमा रहे थे ,
हरिदास जी की पीठ की चमड़ी स्थान स्थान से फट गई, छल छल रक्त बहने लगा | जल्लाद बेंत मारता और कहता हरिनाम छोड़ दे ! हरिदास जी कहते एक बेंत और मारो,पर एक बार और हरी नाम तो लो |बेंतो की मार से जब वे मूर्छित हो गये , उन्हें मृत समझकर गंगा जी में फिकवा दिया, वहां के शासक ने एक काफिर बने मुसलमान को कब्र में गाडने का सम्मान नहीं देना चाहता था |
हरिदास जी मरे तो थे नहीं वे भगवती भागीरथी की कृपा से किनारे लगे | चेतना आने पर भगवान से उन्होंने पहली प्रार्थना की- काजी,
शासक और बेंत मारने वालों को छमा करना नाथ ! बेचारे अज्ञानी प्राणी हैं वे |
धन्य है यह भारत भूमि जहां भगवान की ऐसे अनन्य भक्त जन्म लिया करते हैं , भागवत महापुराण में कहा गया है ! जो मस्तक कभी भगवान के चरणों में नहीं झुकता , वह रेशमी वस्त्र से सुसज्जित और मुकुट मंडित होने पर भी भारी बोझ मात्र ही है , तथा जो हाथ भगवान की सेवा पूजा में नहीं लगते वे सोने के कंगन से विभूषित होने पर मुर्दे के ही हाथ हैं |
जो विष्णु भगवान के अर्चा-विग्रहों की झांकी नहीं देखते , मनुष्यों के नेत्र मोर के पंखों में बने हुए नेत्र चिन्ह के सम्मान व्यर्थ ही हैं, तथा जो श्रीहरि के तीर्थों की यात्रा नहीं करते वे पैर भी जड़ वृक्षों के समान हैं, उनकी गमन शक्ति व्यर्थ है |