[ कर्म और भाग्य ]
वैसे तो कुछ भी करने का नाम 'कर्म' है;परंतु जो कुछ बुद्धिपूर्वक किया जाता है,वास्तव में कर्म उसी का नाम है। वैसे किसी भी हरकत का नाम क्रिया है। कर्म भी एक क्रिया रूप है,परंतु जो क्रियाएँ उद्देशपूर्वक की जाती हैं या होती हैं,यही वास्तव में कर्म कहे जाते हैं।
यह चार प्रकार के हैं -
1.शुक्ल 2.कृष्ण 3.शुक्ल कृष्ण 4.अशुक्ल- कृष्ण शुक्ल- जो संसार में सुख को उत्पन्न करेंगे, वे पुण्य रूप शुक्ल, स्वच्छ या शुभ कर्म कहे जाते हैं।
कृष्ण- जो दुःख देने वाले या दुःख को उत्पन्न करने वाले कर्म किये जाते हैं,वे सब पाप-कर्म रूप कृष्ण कर्म कहे जाते हैं।
शुक्ल कृष्ण- जो मिश्रित कर्म पुण्य-पाप दोनों को करने वाले हैं,वह शुक्ल-कृष्ण कहे जाते हैं। कुछ तो इनमें से बहुतों के भले के लिए किए जाते हैं।उनमें सुख अधिक,दुःख कम होता है और जिसमें अपना स्वार्थ अधिक, परंतु दूसरे की भलाई अल्प हो,इससे दुःख अधिक होता है,सुख कम । यह कर्म सब शुक्ल- कृष्ण कहे जाते हैं। ऐसे कर्मों में हिंसा- असत्यादि- यह पाप का अंश होता है,परंतु दूसरे का हित भी इनसे होने के कारण पूर्ण रूप भी है।बहुत से लोगों के हित किसी ने दुष्ट जीव को दंड दिया इससे बहुत से जनों को दुख हुआ।इस प्रकार पुण्य रूप और हिंसा से मिश्रित होने के कारण पाप रूप होने से यही मिश्रित कर्म शुक्ल-कृष्ण होते हैं।
अशुक्ल-कृष्ण - यह वे कर्म है,जो मोक्ष को देने वाले हैं।वैराग्य, क्षमा,शील,संतोष,त्याग,तप इत्यादि- इत्यादि और भी मैत्री, करुणा, मुदिता,उपेक्षा, क्षमा,शील,दान,ध्यान- समाधि एवं प्रज्ञा आदि गुणों को उपजाना- ये सब अशुक्ल-कर्म हैं।बिना बाह्य उद्देश्य के स्वार्थ को त्यागकर निष्काम भाव से जो भी किए जायँगे,वे चाहे शरीर से हों या इंद्रियों से,सब अशुक्ल-कृष्ण नाम से मोक्ष शास्त्र में बतलाए गए हैं। न अधिक दुःख में रहना और ना अधिक सुख में, युक्ति-युक्त मध्यमार्ग की चर्चा भी इसी श्रेणी का पुण्य कर्म है।
ये सब प्रकार के कर्म तीन रूपों में मनुष्य के अंतः करण में बैठे रहते हैं।
संचित, क्रियामान और प्रारब्ध रूप से क्रमशःये तीन प्रकार के होते हैं।जो इनमें से इस कार्य को आरंभ करके सुख-दुःख रूप फल देने को प्रस्तुत होते हैं,यही प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं और जो भी होते जा रहे हैं और आगे फल देंगे,वह क्रियामान कहे जाते हैं।जो शेष पडे़ हुए मन में संचित रूप से एकत्र हुए-हुए भोगने में आने का अवकाश ही है,वे सब अनंत समय से एकत्र हुए-हुए संचित रूप कर्मों की कक्षा में पड़े रहते हैं । यही सब संचित कर्म कहे जाते हैं । यह भी अपने-आप पडें हुए कभी भी नष्ट नहीं होते,केवल ज्ञान की अग्नि से ही दग्ध हो जाते हैं,
जो कि आत्म-साक्षात्कार रूप है ।
यह साक्षात्कार सब सब बंधनों रोग द्वेष मान मोहऔर अविद्या आदि दस बंधनों के पूर्णतया नष्ट होने पर ही होता है और उससे सब कर्म जलकर भस्म हो जातें हैं वर्तमान दुःख-सुख के भोग से तो केवल प्रारब्ध ही समाप्त होता है और शेष कर्मजाल तो उस ज्ञानाग्नि से ही समाप्त होता है।हो सकता है कोई एक जन इतना परिश्रम इसी संसार में रहकर कर सके कि जिससे उसके सूक्ष्म क्लेस भी मैत्री करुणा छमा और शील आदि बलों की प्रबल भावना से नष्ट हो जायँ और प्रतिप्रसव क्लेशों के विपरीत उत्तम गुण उपजाने से द्वारा उसके मैत्री आदि से ही नवीन पुण्य उदय हो जायँ प्रथम का भाग्य भी क्षीण होकर उसकी ऐच्छिक चर्याअर्थात इच्छानुसार शुद्ध जीवन की विभूति पाना रूप फल की प्राप्ति करा दे और वह पूर्ण काम रूप से जब तक चाहे इस संसार में विहार करे और अपने में देह त्याग पर्यन्त पूर्ण सामर्थ्य को रखे और उसी के साथ रहे और कुछ भी विपरीत न पड़ने दे,परंतु ऐसा व्यक्ति
पुनःपुनः अवतार रूप से ही आदृत पूजित हो जाता है।
यदि वह जगत् में प्रकट हुआ तो,यदि प्रकट ना हुआ तो, सिद्ध रूप से सिद्ध काया में गुप्त भले रहे सब में उसका प्रकट होना अतीव कठिन होता है।अस्तु, मनुष्य को इतना इस ऊपर कही स्थिति के लिए लालायित तो नहीं होना चाहिए,परंतु मोक्ष का साधन करते-करते सारा जीवन धर्म से ही व्यतीत करना उचित है।जो भाग्य से आन पड़े।उसमें विवेक को जागृत् रखें तथा स्मृति और मनकी उपस्थिति रखे। विपरीत कुछ न होने दे।भाग्य छीण हो या नहीं,इस चक्र में न पड़े।मोक्षप्राप्ति तो अपने साधन से अवश्य हो ही जाएगी।।