religious-quotes-in-hindi 35अनमोल वचन !
1. तुम ईश्वर के अतिरिक्त जो कुछ भी जानते हो सब भूल जाओ और जहां तहां की बातें ना जानते हो तो जानने के लिए भटको मत, केवल ईश्वर में ही लीन रहो ! रंग जाओ |
2. जब तक तुम्हारे मन में संसार वर्तमान है, तब तक प्रभु तुमसे दूर हैं | संसार की और तुम्हारी दौड बंद होने पर ईश्वर की ओर तुम्हारी गति होगी और ईश्वर का प्रकाश तुम्हारे अंतर में उदय होगा , फिर ईश्वर के सिवा कुछ दिखेगा ही नहीं, ईश्वर के सिवा कोई दूसरी वस्तु तुम्हारी स्मृति में और वाणी में आएगी ही नहीं यही योगकी असली अवस्था है |
3. भक्तों के तीन लक्षण--(1) संसार की मान बड़ाई को तुम्हारे अंतर में स्थान नहीं मिलना चाहिए | उदाहरण के लिए सोना चांदी तथा पत्थर मिट्टी तुम्हारी दृष्टि में समान होना चाहिए | जैसे मिट्टी हाथ से फेंकी जाती है उसी तरह हाथ में आए हुए सोना चांदी के लिए भी होना चाहिए | (2) लोगों की दृष्टि तुम्हारी और नहीं रहनी चाहिए अर्थात लोगों की प्रशंसा से तुम्हें फूलना नहीं चाहिए और न लोक निंदा से ग्लानी ही होनी चाहिए | (3) तुम्हारे ह्रदय में किसी भी लौकिक विषय की कामना नहीं रहनी चाहिए | संसारी लोगों को इंद्रियों के विषयों से और स्वादिष्ट भोजन से जैसा आनंद मिलता है, वैसा ही आनंद तुम्हें कामनाओं के त्याग और लोगों के प्रति बैराग में होना चाहिए | जब तुम ऐसे बनोगे | तभी भक्त पुरुषों के समागम करने योग्य बन सकोगे |ऐसा हुए बिना केवल भक्तों की बातों में क्या रखा है |
4. सहनशीलता के तीन लक्षण हैं--(1) निंदा का त्याग (2) निर्मल संतोष (3) आनंद पूर्वक ईश्वर की आज्ञा का पालन |
5. जो मनुष्य अशुद्ध दर्शन से अपनी आंखों को और दूसरे भोगों से इंद्रियों को बचाता है, नित्य ध्यान योग से हृदय को निर्मल रखकर और स्वधर्म पालन से अपने चरित्र को शुद्ध करता है एवं सदा ही धर्म से प्राप्त पवित्र अन्न का भोजन करता है, उसके ज्ञान में कभी कमी नहीं आती |
6. तू बीज बोता है नरकाग्नि के और आशा रखता है स्वर्ग भोग की, इससे अधिक मूर्खता और क्या होगी ?
7. पश्चाताप करके छोड़ा हुआ पाप यदि फिर से किया जाए तो वह पश्चाताप करने से, पहले के सत्तर पापों से भी अधिक हानिकारक होता है |
8. मनुष्य रोग की संभावना होने पर भोजन करना बंद कर देता है , परंतु दंड और मृत्यु का निश्चित भय होने पर भी, पाप करने से नहीं रुकता ,यही आश्चर्य की बात है |
9. सावधान रहना ,क्योंकि यह संसार शैतान की दुकान है | इस दुकान से भूलकर भी कोई चीज ना ले लेना | नहीं तो यह शैतान तुम्हारे पीछे पड़कर उस वस्तु के बदले में तुम्हारा धर्म रूपी धन लूट लेगा |
10. संसार की मान बड़ाई शैतान की शराब है | जो मनुष्य इस सुरा को पीकर मस्त होता है, वह अपने पापों के लिए पश्चाताप और आत्मग्लानि रूपी तीव्र तपस्या नहीं कर सकता और उसे ईश्वरी लाभ भी नहीं मिल सकता |
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11. संसार लोलुप मनुष्य के लिए संसार में शोक और चिंता का समान आगे पीछे तैयार रहता है और परलोक में सजा तथा पीडा तैयार रहती है, फिर उसे सुख शांति तो मिलती ही कहां से |
12. इन तीन मनुष्यों को बुद्धिमान समझना चाहिए---(1) जो संसार की आसक्ति का त्याग कर देता है | (2) जो मरने से पहले ही सारी तैयारी कर रखता है | (3) जो पहले से ही ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है |
13. साधक भी तीन प्रकार के होते हैं---(1) विरागी,(2) अनुरागी और (3) कर्मयोगी | विरागी का धन सहनशीलता है, अनुरागी का प्रभु के प्रति प्रेम और कृतज्ञता है और योगी का धन सब के प्रति समता और बंधुभाव है |
14. सच्ची धीरज और प्रभु परायणता कि परीक्षा विपत्ति में ही होती है |
15. ईश्वर का भय एक ऐसा वृक्ष है कि जिसके प्रभु प्रार्थना और आर्तनादरूपी परम सुख दायक महान फल देते हैं |
16. जो ईश्वर को ही अपना सर्वस्व मानता है, वही यथार्थ धनवान है | जो सांसारिक वस्तु- स्थितियों को ही अपनी संपत्ति मानता है उसको सदा के लिए दरिर्दी- निर्धन समझना चाहिए |
17. ईश्वर के प्रति नम्र रहना उनकी आज्ञा के अनुसार आचरण करना और उनके इच्छा अनुसार जो कुछ हो उसी को सिर चढ़ाना इसका नाम प्रभु के प्रति विनय है |
18. जो मनुष्य ईश्वर के सिवा दूसरों की आशा नहीं रखता और ईश्वर के अतिरिक्त दूसरे का भय नहीं रखता, उसी को सच्चा ईश्वर पर निर्भर जानना चाहिए |
19. जो मनुष्य अपने बंधुओं के प्रति बाहर से प्रेम दिखलाता है और अंदर शत्रुता रखता है, उस पर तो ईश्वर का शाप ही उतरता है |
20. जिसके हृदय में सदा प्रभु का भय रहता है , उसकी जीभ अनर्गल नहीं बोलती | उसके हृदय में रहने वाले प्रभु भय की अग्नि उसकी संसाराशक्ति और विषय कामनाओं को जलाकर भस्म कर देती है |
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21. संसार में प्रवेश करना सहज है पर निकल सकना बहुत कठिन |
22. जो मनुष्य अपने को महान ज्ञानी मानता है, वह अज्ञानी और विनय रहित है |
23. विषयी मनुष्य तीन बातों के लिए अफसोस करते हुए मरते हैं--- (1) इंद्रियों के भोगों से तृप्ति नहीं हुई | (2) मन की आशाएं पूरी ना होने होकर अधूरी रह गई | (3) परलोक के लिए पाथेय नहीं लिया जा सका |
24. इस संसार में इंद्रियों को बांधने के लिए जितनी मजबूत का रस्सी की जरूरत है , उतनी मजबूत रस्सी की जरूरत पशुओं को बांधने के लिए नहीं है |
25. जो मनुष्य संसार को नाशवान और धर्म को सदा का साथी समझ कर चलता है , वही उत्तम गति पाता है | और जो नाशवान पदार्थों में मोह ना रखकर संसार का सारा भार प्रभु पर ही छोड़कर भार रहित बन जाता है, वह सहज ही संसार सागर से तर जाता है |
26. जो मनुष्य प्रभु को पहचानता है , वही उन पर विश्वास और प्रेम रख सकता है, परंतु जो मनुष्य केवल संसार को ही पहचानता है , वह तो प्रभु के प्रति शत्रुता ही किया करता है |
27. जो मनुष्य विचार कर नहीं बोलता, वह विपत्ति में पड़ता है | जो मनुष्य वितार कर मौन नहीं रहता उसका मन दुष्टों इच्छाओं का स्थान बन जाता है और जो मनुष्य अपनी दृष्टि को वश में नहीं रखता, उसकी दृष्टि उसे कुमार्ग में ले जाती है |
28. जिसने वासनाओं को अपने पैरों से कुचल दिया है, वहीं मुक्त आत्मा हो सका है | जिसने ईर्ष्या का त्याग किया है, वही प्रेम प्राप्त कर सका है और जिसने धैर्य धारण किया है उसी को शुभ परिणाम की प्राप्ति हुई है |
29. मनुष्यों की अपेक्षा तो भेड़ और बकरी भी अधिक सावधान हैं, क्योंकि वह रखवाले की आवाज सुनते ही तुरंत उसके तरफ दौड जाते हैं , खाना पीना भी छोड़ देते हैं पंरतु मनुष्य इतने लापरवाह हैं कि वे ईश्वर की ओर जाने की पुकार ( बांग ) सुनने पर भी उसकी तरफ नहीं जाते और आहार-विहार आदि मे ही रचे बसे रहते हैं |
30. तुम्हारी मृत्यु के बाद संसार तुम्हारे लिए कैसे विचार प्रकट करेगा, इसको जीते जी ही जानना हो तो दूसरे मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात उनके लिए संसार कैसे विचार प्रकट करते हैं इसे देख लो |
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31. तुम्हारे मन का चिंतन ही तुम्हारे लिए दर्पण रूप है | क्योंकि तुम्हारा शुभ या अशुभ जो कुछ होने वाला है , उसी में दिख जाएगा ( जैसा चिंतन वैसा परिणाम ) |
32. अनासक्ति की तीन अवस्थाएं हैं---(1) साधक स्वयं बड़ा महात्मा, शोधक या बड़ा उद्धारक है , इस रूप में नहीं बोलता | वह केवल प्रभु की आज्ञा का ही अनुवाद करता है | (2) जिस बात को प्रभु पसंद नहीं करते , उसकी तरफ अपनीं इन्द्रियों को नहीं जाने देता | (3) जिस बात से प्रभु प्रसन्न होते हैं, वह उसी का आचरण करता है |
33. जब तक तुम संसार से ही सुख- संतोष प्राप्त करने की आशा में रहोगे, तब तक ईश्वर के प्रति संतोषी नहीं बन सकोगे | यदि तुम संसारियों का भय रखा करोगे तो तुम्हारे अंतर में ईश्वर का भय नहीं रहेगा |
34. जो मनुष्य ईश्वर के सिवा दूसरे से भय नहीं करता और ईश्वर के सिवा दूसरे से कोई आशा नहीं रखता, उसने अपने सुख- संतोष की अपेक्षा प्रभु की प्रसन्नता की ओर अधिक ध्यान दिया है | ऐसे ही मनुष्य को ईश्वर के साथ मेल होता है |
35. जो मनुष्यों के साथ लज्जा के संबंध में बातें करता है , परंतु ईश्वर से लज्जित नहीं होता, उसका कथन बिरला ही सच्चा होता है |
33. जब तक तुम संसार से ही सुख- संतोष प्राप्त करने की आशा में रहोगे, तब तक ईश्वर के प्रति संतोषी नहीं बन सकोगे | यदि तुम संसारियों का भय रखा करोगे तो तुम्हारे अंतर में ईश्वर का भय नहीं रहेगा |
34. जो मनुष्य ईश्वर के सिवा दूसरे से भय नहीं करता और ईश्वर के सिवा दूसरे से कोई आशा नहीं रखता, उसने अपने सुख- संतोष की अपेक्षा प्रभु की प्रसन्नता की ओर अधिक ध्यान दिया है | ऐसे ही मनुष्य को ईश्वर के साथ मेल होता है |