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आध्यात्मिक प्रवचन/पुरुषार्थ/spiritual discourse in hindi/motivational story

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आध्यात्मिक प्रवचन/पुरुषार्थ/spiritual discourse in hindi/motivational story

आध्यात्मिक प्रवचन/पुरुषार्थ/spiritual discourse in hindi/motivational story

आध्यात्मिक प्रवचन

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   [ पुरुषार्थ ]

 पुरुषार्थ नाम है मनुष्य के उस उद्योग या हिम्मत का, 

जो अपने हित साधने के लिये और अहित से बचने के लिये वह करता है।  यह फलतः पराक्रमरूप ही होता है।  दूसरे शब्दों में कहें तो अच्छे कर्म करना और खोटे से  रहना अर्थात पुण्य जनक शुभ कर्म करना और अशुभ कर्मों को त्यागना कि वे आगे कभी भी ना बन पायें,पुरुषार्थ है।  शुभ कर्मों को भी करना कि वे संस्कार रूप में मन में बने रहें।अब अशुभों और अवगुणों को त्यागना और सब गुणों को एकत्र करना पुरुषार्थ का सच्चा रूप है। काम,क्रोध, लोभ,ईर्ष्या,मत्सर,मत और अधैर्य इत्यादि सब अशुभ गुण हैं।इसी प्रकार

वैराग्य,क्षमा,संतोष,मैत्री और धैर्य इत्यादि शुभ गुण हैं,

यह बिना बड़े परिश्रम के धारण नहीं किए जा सकते।  इनके लिए निरंतर यत्न बनाए रखना चाहिए,ताकि ये सदा बने रहें।यही सब पुरुषार्थ है।वैसे ही काम तथा क्रोध इत्यादि जितने भी विकार हैं,ये सब पशु-पक्षी के समान मनुष्यों में भी बिना यत्न के आते रहते हैं और सब अशुभ कर्म करवाते हैं।इनको भी यत्न और परिश्रम से टालते रहना,यह सब पुरुषार्थ है।
वैसे तो धर्मग्रंथों में धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष- ये चार पुरुषार्थ बतलाये गए हैं। परंतु यदि किसी उद्देश्य विशेष को पूर्ण करने के लिए मनुष्य यत्न करता है,तो पुरुष का वह प्रयोजन भी 'पुरुषार्थ'शब्द से निरूपित किया जाता है।मनुष्य को  धर्म का आचरण करना उसके भावी सुख रूप प्रयोजन के लिए है। इसी प्रकार लौकिक सुख हेतु धन-उपार्जन भी पुरुष का पुरुषार्थ रूप प्रयोजन है और प्रकृति की जगत् चलाने वाली शक्ति काम या कामसुख की भी पुरुषार्थ रूप से ही पुराने लोगों ने गणना (गिनती) की है।

इस काम सुख का जन साधारण त्याग नहीं कर सकता।

 बल से,बिना पूर्ण ज्ञान के त्याग ने पर मनुष्य का संतुलन भी दैवी शक्ति नष्ट कर सकती है, जिससे कि वह अपने जीवन का भी सदुपयोग उचित प्रकार से न कर पाये।इसलिए पुराने ऋषियोंने  इसे भी पुरुषार्थ रूप से स्वीकार किया है। वास्तव में तो यह प्रकृति की सहज प्रेरणा के फलस्वरूप सब को प्राप्त ही है।  मनुष्य का सब से उत्तम और वास्तव में पाने एवं चाहने का तो मोक्षरूपी प्रयोजन होना चाहिये।इसीलिये इसको अन्त में कहा जाता है और इसी के निमित्त उत्तम मोक्षोपयोगी घर्म  भी पुरुषार्थ रूप से ही समझा जाता है। अस्तु,  जो भी कोई प्रयत्न पुरुष करता है,  

उसे पुरुषार्थ रूप से कहा जा सकता है, 

परंतु शुभकारी धर्म द्वारा मोक्ष ही सब पुरुषों का परम प्रयोजन रूप पुरुषार्थ सब के लिये निर्विवाद रूप से मान्य होता है,  क्योंकि संसार के सुखों को भोगते-भोगते जो दुःख उत्पन्न हो गये,  उनसे मुक्ति या मोक्ष कौन नहीं चाहेगा?  परंतु यह संसार-बंधन जब तक मन  से न उतरे,  तब तक असंभव है कि इनके दुःख से मोक्ष प्राप्त हो।  इसलिये आत्म में  अर्थात् अपने-आप मैं ही प्रतिष्ठा पाने पर यह संसार या भव-बंधन छूटेगा और तभी आत्मा का सुख व्यक्त होगा,  तो ही मोक्ष प्राप्त हुआ समझा जाएगा।  इसलिये मोक्ष ही सब की इच्छा का पुरुषार्थ है, सब का परम प्रयोजन है।।...

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