अखंडानंद जी महाराज के प्रवचन प्रहलाद चरित्र

[ अखंडानंद जी महाराज के प्रवचन प्रहलाद चरित्र ]

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जो काम भगवान्के किये नहीं होता है उसको भगवान के भक्त लोग करते हैं। जो काम भगवान से नहीं बनता है वह काम भगवानके भक्तलोग बनाते हैं। आप देखो, भागवतके प्रारम्भमें ही जब परीक्षित गर्भमें थे तब अश्वत्थामाने ब्रह्मास्त्र चलाया। उत्तरा आयी शरणमें, भगवानने गर्भमें प्रवेश किया और परीक्षितकी रक्षा की-भगवानने काम बना दिया। यह काम भगवान्से बन गया, क्योंकि वह हथियारका काम था, गर्भ में प्रवेश करनेका काम था। लेकिन जब एक ब्राह्मणने राजा परीक्षितको शाप दे दिया तब वह भगवानके काबूसे बाहर हो गया। भगवान् ब्राह्मणके शापको नहीं मिटा सकते। तब शुकदेवजी आये। वाणीसे दिया था शाप ब्राह्मणने और वाणीसे ही श्रीमद्भागवत बोलकर-मन्त्रके बदले मन्त्र पढ़कर श्रीशुकदेवजीने उस शापको निस्तेज कर दिया; क्योंकि ब्राह्मणके शापसे जो मरता है उसकी दुर्गति होती है

ब्रह्मदण्डो दुरत्ययः । भागवत ९.४.१४ 

नरकमें जाना पड़ता परीक्षितको। परन्तु, शुकदेवजीने वाणीसे दिये हुए शापको अपनी अदुभुत वाणीसे मिटा दिया। आप देखें-राजा युधिष्ठिरको हुआ शोक और व्यासजी आये। भगवान्ने स्वयं बहुत समझाया राजा युधिष्ठिरको कि यह कालदेवताका खेल है, जो दुःख होता है, संघर्ष होता है, प्रेम होता है, लोग मरते हैं, जीते हैं-इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है युधिष्ठिर । तो स्वयं भगवान् समझानेवाले और धर्मराज युधिष्ठिर समझनेवाले, फिर भी श्रीकृष्णके समझानेपर उनका शोक दूर नहीं हुआ। भीष्म पितामहने जब उनको समझाया तब उनका शोक दूर हुआ। क्या अद्भुत-लीला है! एक क्या ऐसी अनेक कथाएँ हैं-ध्रुवका चरित्र आप जानते ही हैं। भगवान्ने स्वयं दर्शन दिया ध्रुवको और उनके कपोलसे शङ्खका स्पर्श कराकर ब्रह्मज्ञान भी दिया । ध्रुव भक्त भी थे और ब्रह्मज्ञानी भी से लेकिन उनके भाईको जब यक्षोंने मारा तब ऐसा क्रोध आया ध्रवको कि लाखों-लाखों यक्षोंका मार दिया उन्होंने और यक्षपरी अलका ब्रह्मास्त्रका प्रयोग करके उसको नष्ट करना चाहते थे। भगवानका जिसको दर्शन हो चुका हो उसको इतना क्रोध, इतनी बदला लेनेकी भावना, तब भगवान्के परमभक्त, परम भागवत-मनुजी महाराज आये और उन्होंने ध्रुवको समझाया, बेटे, इतना क्रोध मत करो

 'अलं वत्सातिरोषेण' । (भागवत ४.११.७)

क्रोध वाणीका शत्रु है, जिसके हृदयमें आता है उसकी हानि करता है। तुम्हारा हृदय तो भगवान्के रहनेकी जगह है। ब्रह्माजी कमल पर रहते हैं-कितना ठण्डा होता है; विष्णु भगवान् क्षीरसागरमें शेष-शैय्या पर रहते हैं और वह कितनी ठण्डी होगी-क्षीरसागरको छू-छूकर हवा आती है कोमल-कोमल । आप लोगोंने सर्पका स्पर्श कभी किया हो कि न किया हो-बहुत सुकुमार होता है और उसपर भगवान् सोते हैं और शंकर भगवान कैलाशके शिखरपरबर्फके पहाड़ पर रहते हैं। तो भगवान् ठण्डी जगहमें रहते हैं और क्रोधकी आग जब तुम्हारे हृदयमें जल गयी तब वहाँ भगवान् कैसे रहेंगे? क्या भट्टीमें भगवान् रहेंगे? ध्रुव तुमने यह क्या गलत काम किया। ध्रुव मान गये। भगवान्के दर्शनसे जो काम नहीं हुआ, वह स्वयंभू मनु-परम भागवत्के समझानेसे बन गया। मनुजीने ध्रुवको जीवन्मुक्त बना दिया, राग-द्वेषसे रहित बना दिया। भगवान्ने ध्रुवको जीवन्मुक्त नहीं बनाया, मनुजीने ध्रुवको जीवन्मुक्त बनाया। भागवतमें ही यह कथा है।

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पृथुके सामने भगवान प्रकट हुए-यह कथा भी भागवतमे है और इन्द्रका हाथ पकड़कर ले गये और इन्द्रसे बोले कि तुम पृथुसे क्षमा माँगो और पृथुसे बोले कि तुम इसे क्षमा कर दो। क्योंकि, जब परस्परमें विद्वेष होता है तब धर्मके फल सखका उपभोग नहीं हा सकता-किसीके मनमें क्रोध बना हो, उसने धर्म तो खूब किया पर क्रोध बना हुआ है, तो धर्मका फल तो होता है सुख और क्रोधमें सख होता नहीं। तो धर्मका फल क्रोध आनेपर रुक जाता है, क्योंकि क्रोधमें जो जलन होगी, वह धर्मका फल थोड़े ही है। तो दोनोंको क्षमा करवाया-उनको उनसे, उनको उनसे । भगवान्का दर्शन हुआ,

बड़ी स्तुति-प्रार्थना की पृथुने, 

बड़ी पूजा की, यहाँतक कि जब भगवान् गरुड़पर चढ़कर जाने लगे तब पृथुने उनका पाँव पकड़ लिया। अब एक पाँव गरुड़पर और एक पाँव पृथुके हाथमें । भगवान् बहुत देरतक ऐसे ही खड़े रहे, आँसूकी धारा झर-झर पृथुकी आँखोंसे बहती रही, लेकिन फिर भी पृथुका काम नहीं बना । उनका काम तब बना जब सिद्ध जीवन्मुक्त भगवान्के भक्त सनकादि उनके पास आये और उन्होंने पृथुको उपदेश किया-'तमवेहि सोऽस्मि’ | महात्माओंने कहा कि जो परमात्मामें सत्-चित्-आनन्द घन तत्त्व है, वही तुम हो। तो वहाँ भी भगवान्के दर्शनसे काम नहीं बना महात्माओंके दर्शनसे काम बना । सनकादि परम भागवत् हैं, इनके दर्शनसे काम बना।
ध्रुवके ही वंशमें एक प्राचीनबर्हि नामके राजा हुए, उनके पुत्रका नाम था प्रचेता । वे जब तपस्या करनेके लिए गये तब पहले उन्हें शङ्कर भगवान्का दर्शन हुआ। शङ्करजीने कहा-तुम ध्रुवके वंशके हो बड़े धर्मात्मा हो, भगवानकी भक्ति करनेके योग्य हो । तो शङ्करजीने उनको मन्त्रोपदेश किया-यह मन्त्र जपो, यह स्तुति करो और इस ढंगसे रहो तुम्हें भगवान् नारायणके दर्शन होंगे। उन्होंने वैसा किया और उनको नारायणके दर्शन हुए।

 नारायणने भी प्रसन्न होकर खूब वरदान दिया उनको । 

जब नारायण दर्शन देकर चले गये और प्रचेता लोग अपने राज्यमें आये तब देखा कि प्राचीनबर्हि मर चुके हैं, कोई व्यवस्था नहीं है और सारा राज्य उच्छिन्न हो गया है, तो क्रोध आ गया और क्रोधमें आकर जंगलोंको जलाने लगे। तब वृक्षोंके राजा चन्द्रमा उनके पास आये और उन्होंने उनको शान्त करवाया, उनका विवाह करवाया, फिर उनके पुत्र हुआ। सबकुछ हुआ महाराज, परन्तु मनमें जो क्रोध या उनके, वह नहीं गया । नारायणके दर्शनके बाद भी क्रोध-भयंकर कोध था मनमें । अन्तमें उनके पास नारदजी गये और जो काम शङ्करजीके दर्शनसे नहीं हुआ, नारायणके दर्शन और वरदानसे नहीं इआ वह काम किसने किया? कि वह काम नारदजीने किया। नारदजीने उनके हृदयमें भगवान्की भक्ति भर दी।
'तत्कर्म हरितोषम् यत्सा विद्या या तन्मतिर्यया' । 
भागवत ४.२९.४९ कर्म वही कर्म है जिससे भगवान्की सेवा हो और वे प्रसन्न हों। नारायणका दर्शन करके, इतनी तपस्या करके भी तुमलोग इतने क्रोधी? कैसे रहेंगे भगवान् तुम्हारे हृदयमें? तो नारदजी भी परमभागवत हैं, उन्होंने प्रचेताओंको भक्तिका दान किया, उनके हृदयको शुद्ध किया, उनको परमात्म-तत्त्वका अनुभव कराया। जो काम भगवान्के दर्शनसे नहीं होता है वह काम भक्त लोग कर देते हैं। प्रह्लाद भगवान्के ऐसे भक्त हैं कि जो काम भगवान् नहीं कर सकते हैं वह काम प्रह्लाद कर देते हैं। प्रह्लादमें यह सामर्थ्य है। सारी विश्व-सृष्टिको परमानन्द दान करनेके लिए प्रह्लाद आये हैं। भगवान्ने हिरण्यकशिपुको मार तो दिया, परन्तु हिरण्यकशिपुका कल्याण भगवान्के दर्शनसे या भगवान्के मारनेसे नहीं हुआ-भागवत्में यह बात साफ-साफ कही हुई है। हिरण्यकशिपुका कल्याण हुआ प्रह्लादके पुत्र-रूपमें पैदा होनेसे । यदि हिरण्यकशिपुके पुत्र प्रह्लाद नहीं हुए होते तो नृसिंह भगवान् भी उसका कल्याण नहीं कर सकते थे। इस तरह पुराणोंकी कथाओंमें सबकुछ स्वर्गका ही नहीं है, सबकुछ वैकुण्ठका ही नहीं है, सबकुछ नारायणका दर्शन होने में ही नहीं है, हमारे जीवन में जो वस्तु प्राप्त हो सके उससे है। क्योंकि-न हम वैकुण्ठमें जा सकते हैं, न कैलाशमें जा सकते हैं,,

'अदृष्टं द्रष्टाऽश्रुतः श्रोता' । वृहदा० ३.७.२३ 

जो अनदेखा देखनेवाला है, जो अनसना सननेवाला है उसका हमलोग चाहें कि हम अपनी बद्धिसे देख सकें तो किसीकी बुद्धिमें यह सामर्थ्य नहीं है, जबतक महात्मा उस परमात्माका साक्षात्कार नही करा दें। प्रह्लादकी ही कथा है-प्रह्लादको भगवान्की बड़ी भारी कपा पाप्त थी, उनके लिए उनके बापको मार दिया। लेकिन प्रह्लादका कल्याण कब हुआ-यह भागवतमें ही है, ढूँढ़ोगे तो मिल जायेगा । एक अध्याय पूरा इस विषयका है कि प्रह्लादका कल्याण तब हुआ जब उनको दक्षिणमें कावेरीके तटपर सह्याद्रिके समीप दत्तात्रेयका दर्शन हुआ और उन्होंने प्रह्लादको उपदेश किया । दत्तात्रेयके उपदेश करनेके बाद प्रह्लादको परम-तत्त्वका अनुभव हुआ और जीवन-मुक्तिका परमसुख प्राप्त हुआ।  हमारे जीवन में भक्तोंका सत्संग प्राप्त हो, भक्तोंकी कृपा प्राप्त हो-भक्त लोग अनुग्रह करके हमारे अन्तःकरणकी शुद्धिका मार्ग दिखावें, हमारे अन्तःकरणको शुद्ध करें। भगवान् अन्तःकरण शुद्ध नहीं करते-देखो भरी सभामें यह बोलता हूँ। क्योंकि भगवान् तो सबके हृदयमें रहते हैं, लेकिन हमको दुःख भी होता है, सुख.भी होता है, काम भी होता है, क्रोध भी होता है, लोभ भी होता है और वे बैठेबैठे टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं-चाहे कोई जीये चाहे कोई मरे ।

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तो, जब महात्मा लोग हमारे हृदयमें सद्भाव भरते हैं, भक्ति भरते हैं, ज्ञानका सञ्चार करते हैं, तब हमारा कल्याण होता है। तो, हमारे जीवन में करनेकी वस्तु है-सत्सङ्ग; हमारे हृदयमें रहनेकी वस्तु है भगवानकी भक्ति; हमारे उच्चारण करनेकी वस्तु है-भगवान्का नाम। इसलिए आपलोग खूब प्रेमसे पुरुषोत्तम-मासमें प्रह्लादचरित्रका श्रवण कीजिए और उसमें जो भगवद्-भक्ति और भगवान्की महिमा बतायी है, उसको समझिये; भगवानके नामका उच्चारण कीजिए। अगर अन्तःकरण शुद्ध नहीं होगा तो आपका ब्रह्मज्ञान भी आपको इस जीवन में सुखी नहीं कर सकेगा। जब अन्तःकरण शुद्ध होगा तब ज्ञानका निर्मल प्रभाव आपके जीवनमें प्रकट होगा और आप निर्द्वन्द्व हो जायेंगे। और, नहीं तो वही नोन, वही लकड़ी और वही दुनिया और उसके लिए एक ओर रोते भी रहेंगे और एक ओर ज्ञानी भी बनेंगे। एक ओर दुःखी भी रहेंगे। काम-क्रोधके वशमें भी रहेंगे और फिर छाती तानकर बोलेंगे कि हम तो ब्रह्मज्ञानी हैं। तो ऐसे ब्रह्मज्ञानको लेकर क्या करेंगे जो हमारे जीवन में काम नहीं देता है?

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अब थोड़ी-सी चर्चा श्रवणके बारेमें भी कर लें, कि श्रवण कैसे करना चाहिए? यह तो आपको मालूम ही है कि जो वस्तु किसी लौकिक प्रमाणसे ज्ञात नहीं होती, जो शब्द हम कानसे सुन नहीं सकते, जिसको आँखसे देख नहीं सकते, जिसको जीभसे चख नहीं सकते, जिसके बारेमें विचार निश्चय करनेके लिए हमारे मन और बुद्धिको कोई बाहरी सामग्री नहीं मिलती-उस वस्तुके बारेमें यदि हम श्रवण नहीं करें तो हमें उसका ज्ञान नहीं हो सकता | ब्रह्मका स्वरूप ऐसा है अथवा आत्मा और ब्रह्म एक है अथवा अमुक धर्मानुष्ठानसे स्वर्ग मिलता है या वैकुण्ठ मिलता है या भगवान् प्रसन्न होते हैं-इन प्रश्नोंका उत्तर दूरबीन खुर्दबीनसे, साइन्स-गणितसे, अनुमानसे कोई निकालना चाहे तो नहीं मिल सकता। जो इनसे सिद्ध होगा वह जड़-पदार्थका ही अंश होगा और जो चेतन होता है वह द्रष्टा होता है, दृश्य नहीं होता। और, वह और किसी तरहसे भी आपको नहीं मिल सकता-आप चाहे जितनी युक्ति लगाओ, तर्क लगाओ, गणित लगाओ, ध्यान लगाओ, समाधि लगाओ, उसके लिए आपको श्रवण करना ही पड़ेगा।
'न नरेणावरेण प्रोक्त एव सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः'।
कठोपनिषद्का कहना है कि यह इतना सूक्ष्म है, इतना सूक्ष्म है कि छोटे-मोटे मनुष्यके द्वारा समझाने पर समझमें नहीं आता है। जब आचार्यसे विद्याकी प्राप्ति होती है तब वह लक्ष्य-वस्तुका साक्षात्कार कराती है। इसलिए, यदि भगवान्के रास्ते में चलना है, उनको प्राप्त करना है तो अनुभवी महापुरुषों द्वारा शास्त्रका श्रवण करना आवश्यक है। जो लोग 'साईन्स'से समझाते हैं वे लोग 'साईन्स'से कभी काटेंगे भी। हाँ, यदि श्रवणका समर्थन करनेके लिए 'साईन्स'का गणितका या तर्कका उपयोग करते हों तो बहुत बढ़िया है। अब बताते हैं कि श्रवण कैसा होना चाहिए? श्रवणमें तीन अङ्ग होने चाहिए-श्रद्धा पहला अङ्ग है। जो हम श्रवण कर रहे हैं वह शास्त्रकी वाणी है, सत्पुरुषकी वाणी है और सत्य है। यह श्रद्धा होनी आवश्यक है। हृत्-प्रसाद-निर्मल हृदय-दूसरा अङ्ग है। माने हृदय निर्मल होना चाहिए। यदि हृदय निर्मल नहीं होगा तो जब हम दोषोंका वर्णन सुनेंगे तब हम समझेंगे कि ये सारे दोष हमारे दुश्मन में हैं और जब हम गुणोंका वर्णन सुनेंगे तब हम समझेंगे कि ये सारे गुण हमारे अन्दर या हमारे दोस्तके अन्दर हैं-जिससे द्वेष होगा उसमें दोष दीखने लगेंगे और जिससे राग होगा उसमें गुण दीखने लगेंगे। और इस तरह हमारा अन्तःकरण शुद्ध होनेके बजाय और अशुद्ध हो जायेगा।

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इसलिए, परमात्माकी प्राप्तिके मार्गमें चलनेवालोंका हृदय शुद्ध होना चाहिए, हृदय निर्मल होना चाहिए।
'मनन' भी दो प्रकारका होता है-वस्तुकी दृष्टिसे 'मनन' होता है पहला और विचारकी दृष्टिसे 'मनन' होता है दूसरा । ___ जब हम परमेश्वरके सम्बन्धमें विचार करते हैं तब एक बात आप बिलकुल अपने ध्यानमें रख लें कि कृष्णका दर्शन हो जाये या रामका दर्शन हो जाये या नारायणका दर्शन हो जाये या शिवका दर्शन हो जाये, आप पहचान नहीं सकते हैं कि यह ईश्वर हैं। असलमें ईश्वर तो उसको कहते हैं जो जब सृष्टि नहीं थी तब भी था और जिसने सृष्टि बनायी, जो इसका पालन करता है और अन्त में जो इसका संहार भी कर देता है और फिर भी स्वयं रहता है।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति । 
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व ण तद्ब्रह्म।
तैत्ति० ३.१.१ अब आप बताओ कि जब आप एक व्यक्तिके रूपमें किसीका दर्शन करोगे तब, इसने सृष्टि बानायी है यह बात आपको कैसे मालूम पड़ेगी? आपको कैसे मालूम पड़ेगा कि यही सारी सृष्टिका पालन करता है और यही अन्तमें सृष्टिका संहार करेगा? वह केवल आपके हृदयका भाव होगा। इस तरह हम देखते हैं कि बिना श्रवणके ईश्वरका साक्षात्कार । अधूरा होगा, अपने मनका माना हुआ होगा। असलमें तो ईश्वर कैसा
होता है इसका पता तो महापुरुषोंके द्वारा श्रवण और मनन करनेके पश्चात् ही चलेगा।
श्रोतव्यो मनतव्यो निदिध्यासितव्यः ।

 भक्ति-सिद्धान्तमें भी श्रवण मुख्य है

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः । भगवान्के बारेमें श्रवण करना चाहिए ।बिना श्रवणके आपको कुछ पता नहीं चलेगा। यदि एक टेढ़ी-मेढ़ी लकीर आपके सामने खींच दी जाये और कोई आपको बोलकर न बतावे कि यह 'अ' है कि यह 'क' है, तो कोई ऐसा नहीं है जो उस अक्षरको पहचान ले । और तो और अपनी माँको, अपने बापको, अपने बेटे-बेटीको भी आप बिना श्रवणके नहीं पहचान सकते। और सच तो यह है कि आपके जन्मके दो दिन, दस दिन, पचास दिन बाद खींची गयी आपकी अपनी फोटोको देखकर भी आप नहीं पहचान सकते कि यह फोटो आपकी है। उस फोटोकी पहचानमें भी श्रवणकी आवश्यकता पड़ेगी। जब कोई आपको बतावेगा कि जब तुम बच्चे थे तब की यह फोटो है-तब आपसमझ पावेंगे कि यह आप हैं।

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तो जो लोग यह सोचते हैं कि हम श्रवणके बिना धर्म कर लेंगे, स्वर्ग पा लेंगे, ईश्वर पा लेंगे, हमें यों ही आत्मा-ब्रह्मकी एकताका साक्षात्कार हो जावेगा, वे लोग हमारे अध्यात्म-शास्त्र और धर्मक रहस्यसे सर्वथा अपरिचित हैं | श्रवणके बिना वे कुछ नहीं प्राप्त कर सकते।
- तो नारायण, भगवानके प्रति भक्ति बढ़ानेका साधन भक्तोंकी महिमाका श्रवण ही है,,

'यद्भागवतमाहात्म्यं भगवद्भक्तिवर्धनम् ।

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