|| शरीर की प्रशंसा ।।
इस मनुष्य शरीर की शास्त्रों में प्रशंसा भी की गई है. भगवान् शंकराचार्य जी कहते हैं ।संसार में तीन ही वस्तु दुर्लभ हैं मनुष्य जन्म मिलना, मोक्ष की इच्छा होना और किसी महापुरूष का आश्रय मिल जाना, ये तीनों वस्ताँ ही भगवान् की कृपा से प्राप्त होती है ।
महता पण्य पुण्येन क्रीतेयं कायनौस्त्वया ।
गन्तुं भवनिधे: पारं तर यावन्न भिद्यते ।।
जीव ने अनेक जन्मों के पुण्य पुञ्जों से इस शरीर रूपी नौका को खरीदा है । संसार सागर से पार जाने के लिए जब तक ये शरीर रूपी नौका सब तरह से ठीक है तब तक इससे संसार सागर को पार कर लेना चाहिए ।यहाँ इस श्लोक में मनुष्य शरीर को संसार सागर से पार होने की नौका बताया है यही बात एकादश स्कन्ध में भगवान् ने उद्धव जी से कही थी--
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभम् प्लवं सुकल्पं गुरू कर्णधारम् । ।
मयानुकूलेन नभस्वतेरित पुमान् भवाब्धिन तरेत् स आत्माह।।
मनुष्य का शरीर सबसे श्रेष्ठ है जो जीव के लिए दुर्लभ था वह भगवत् कृपा से सुलभ हो गया है और ये मनुष्य शरीर संसार सागर को पार करने की सुन्दर नौका है, गुरू इसके कर्णधार है अर्थात संचालक हैं और भगवान् कहते हैं कि मेरी अनुकूलता रूपी अनुकूल वायु बह रहा है । ऐसा संयोग पाकर के भी जो भव सागर को पार नहीं कर लेता वह आत्मघाती है। भगवान् शंकराचार्य जी ने भी इसको नौका बताया है ।
संसृति पारावारे ह्यगाधविषयोदकेन सम्पूर्णे ।।
नृशरीरमम्बुतरणं कर्म समीरैरितस्ततश्चलति ।।
छिद्रैर्नवभिरूपेतं जीवो नौकापतिर्महानलसः ।
छिद्राणामनिरोधात् जलपरिपूर्ण पतत्यधः सततम् ।।
छिद्राणां तु निरोधात् सुखेन पारं परं याति ।
तस्मादिन्द्रिय निग्रहमतेन न कश्चित् तरति संसारम् ।।
यह संसार एक समुद्र है और विषय रूपी जल से भरा हुआ है अर्थात शब्द, स्पर्श आदि के विषयों से यह परिपूर्ण है। मनुष्य शरीर इसे पार करने की नौका है। यह नौका प्रारब्ध रूपी वायु से इधर-उधर घूम रही है यह नौका नौ छिद्रों वाली है जिन छिद्रों से विषय रूपी जल इसमें भरता जा रहा है । नौका का स्वामी जीव महा आलसी है, वह छिद्रों को रोकता नहीं है । जैसे नौका में जब जल भर जाता है तब नौका डूब जाती है । इसी प्रकार विषय रूपी जल इसमें भर जाने से ये डूब जायेगी पार नहीं हो सकेगी ।यदि कोई पुरूषार्थी इन छिद्रों को रोक दे, विषय रूपी जल को मन में न आने दे तो सुख पूर्वक संसार सागर से पार हो जायेगा । यह सिद्धान्त है कि बिना इन्द्रिय निग्रह के कोई संसार सागर से पार नहीं हो सकता ।
जाती शतेषु लभते भुवि मानुषत्वम् तत्रापि दुर्लभतरं खलु भो द्विजत्वम् ।
यस्तं न लालयति पालयतीन्द्रियाणि तस्यामृतं क्षरति हस्तगतं प्रमादात् ।।
संसार में सहस्त्रों जातियाँ है उनमें से मनुष्य योनि में जन्म होना दुर्लभ है, मनुष्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जाति में जन्म होना और भी कठिन है । जो इस उत्तम शरीर को पाकर इसका सदुपयोग नहीं करता, केवल इन्द्रियों को तृप्त करने में लगा रहता है उसको ऐसा व्यक्ति समझना चाहिए जिसके हाथ आया हुआ अमृत प्रसाद से पृथ्वी पर गिर जाता है । श्री तुलसीदास जी कहते हैं -
बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थन गावा।
मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है, देवता लोग भी इस शरीर लिए तरसते हैं, ऐसा सदग्रन्थ कहते हैं ।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा, पाइ न जेहि परलोक सँवारा।।
इस मनुष्य शरीर में सारे साधन किए जा सकते हैं इसको मुक्ति का दरवाजा कहा गया है यदि दरवाजा बन्द हो तो भवन में प्रवेश नहीं कर सकते, इसलिए मोक्षद्वार मपावृतम् यह शरीर खुला हुआ मोक्ष भवन का द्वारा है।
नर समान नहिं कवनिउ देही, जीव चराचर जाचत जेहि ।
मनुष्य शरीर के समान और कोई दूसरा शरीर नहीं है प्राणी मात्र इसको चाहते हैं ।
जो न तरइ भव सागरहि नर समाज अस पाइ ।
सो कृत निन्दक मन्द मति आतमहन गति जाइ ।।
मनुष्य शरीर को पाकर जिसने संसार सागर को पार नहीं किया वह निन्दनीय है, मूर्ख है, उसको आत्महत्या का पाप लगता है ।
कहीं इस शरीर को क्षेत्र बताया है कहीं वृक्ष,
कहीं रथ, कहीं तीर्थ, कहीं इसको नसेनी बताया है ।
भगवान् ने इस शरीर को क्षेत्र बताया है ।
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।।
अर्जन यह शरीर क्षेत्र है, खेत में जैसा बीज बोया जाता है वैसा फल मिलता है, जिसने गेहूँ बोया है उसे गेहूँ मिलेगा. जिसने जौ बोय उसे जौं मिलेंगे, जिसने चना बोया है, उसे चना मिलेंगे। इसी प्रकार शरीर भी क्षेत्र है इसमें जैसे पुण्य पाप रूपी बीज बोये जाते हैं वैसा हा सख-दुःख रूपी फल मिलता है । इस शरीर को भगवान ने गीता में वृक्ष बताया है -
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थम् प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।
अर्जुन यह शरीर एक वृक्ष है इसकी मूल ऊपर की ओर है और शाखायें नीचे की ओर फैली हुई है । यह उलटा वृक्ष है, वृक्ष की मूल नीचे होती है और शाखायें ऊपर, पर शरीर रूपी वक्ष की मल ऊपर की ओर है और शाखायें अर्थात हाथ और पैर आदि इसका फैलाब नीचे की ओर है। भगवान् कहते हैं, हे अर्जुन ये अश्वत्थ है न श्वो पि स्थाता यह कल तक रहेगा इस विश्वास के योग्य नहीं है इसको लोग अव्यय कहते हैं, नित्य मान बैठे हैं, वेद इसके पत्ते हैं, वृक्ष की पत्तों से ही शोभा होती है इसलिए इस मनुष्य शरीर की शास्त्र विहित कर्म करने से ही शोभा है | जो इस रहस्य को जानता है वही वेद के तात्पर्य को जानता है । भगवत् में भी इस शरीर को वृक्ष बताया है -
एकायनौऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पञ्चविध: षडात्मा ।
सप्त त्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो हादिवृक्षः ।।
एक प्रकृति ही इस शरीर वृक्ष का आश्रय है । अन्य वृक्षों पर सैकड़ों फल आते हैं परन्तु शरीर रूपी वृक्ष पर दो ही फल लगते हैं । एक सुख तथा दूसरा दुःख । अन्य किसी एक वृक्ष पर दो प्रकार के फल नहीं लगते, किसी वृक्ष पर यदि एक मीठा फल है तो उस वृक्ष पर सभी फल मीठे ही होंगे, यदि एक कड़वा फल होगा तो उसपर लगने वाले सभी फल कडुवे ही होंगे, परन्तु शरीर एक ऐसा विलक्षण वृक्ष है जिस पर सुख एवं दुःख रूपी मीठा तथा कडुवा दोनों फल लगते हैं। वृक्ष की अनेकों जड़ें होती है पर शरीर रूपी वृक्ष की तीन ही जड़ें हैं सत्व, रज एवं तम । शरीर वृक्ष में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार रस हैं । पाँच इसमें ज्ञान के साधन है पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ । यह शरीर वृक्ष छ: स्वभावों वाला है, "जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, नश्यति" जन्म लेना, सद्रूप में व्यवहरित होना, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश। इस शरीर रूपी वृक्ष की सात त्वचा है त्वक, मांस, रूधि र स्त्राय, मेदा, मज्जा, अस्थि । इस शरीर रूपी वृक्ष की आठ शाखायें हैं, पञ्चमहाभूत, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार । इस शरीर रूपी वृक्ष में नौ छिद्र है तथा इसमें प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग कर्म ककल, देवदत्त, धनञ्जय ये दस पत्ते हैं । इस शरीर पर दो ही पक्षी निवास करते हैं जीव और ईश्वर | आदि जो श्री हरि हैं उनका शरीर
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च इन्द्रियाणि हयान्याहुः विषयाँस्तेषु गोचरान्।। कठो०।।
आत्मा रथी है अर्थात् रथ पर बैठने वाला है, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियों के जो विषय है वहीं मार्ग हैं । जब किसी को कहीं जाना होता है तभी वह रथ में बैठता है। हम शरीर रूपी रथ में बैठे हुए हैं, हमें कहाँ जाना है तद्विष्णोः परम पदम् भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त करने के लिए ये हमारी यात्रा | हैं । हमको ऐसा वाहन प्राप्त हुआ है कि जिससे हम भगवान् के पास पहुँच सकते हैं वाहन बदलने की आवश्यकता नहीं है । रथ का सारथी बुद्धिमान् और घोड़े सदे हुए होने चाहिए तब हमारा रथ लक्ष्य पर पहुँच सकता है अन्यथा नहीं ।
जाके, घोड़ा अनसधे और सारथी क्रूर ।
ताको रथ पहुँचे नहीं बीचइ चकना चूर ।।
कर्ण ने शल्य से कहा मैं अर्जुन से न तो शरीरिक बल में, न शस्त्र बल में और न ही अस्त्र बल में कम हूँ पर विजय अर्जुन की होगी । शल्य ने कहा जब आप अर्जुन से किसी बात में कम नहीं है तब विजय अर्जुन की क्यों होगी? तब कर्ण ने कहा जैसा अर्जुन के पास सारथि है वैसा सारथि मेरे पास नहीं है सारथि हमको तुम जैसा मिला है जो हमारी शक्ति को हर पल क्षीण करता रहता है ।
विश्वेशोऽयं तुरीयः सकलजनमन: साक्षिभूतोन्तरात्मा ।
देहे सर्व मदीये यदि वसति पुनः तीर्थ मन्यत् किमस्ति ।।
भगवान् जगदीश्वर प्राणीमात्र के अन्तःकरण के साक्षी सर्वान्तरात्मा हमारे सारे शरीर में व्याप्त हैं । ये शरीर ही तीर्थ है इससे बड़ा तीथ और क्या हो सकता है ।
आहुः शरीरं रथमिन्द्रियाणि हयानभीषून मन इन्द्रियेशम्।'
वानि मात्रा धिषणां च सूतं सत्वं वृहद् बन्धुरमीशसृष्टम्।।,
श्री नारद जी ने युधिष्ठिर महाराज को बताया कि उपनिषद् इर.. शरीर को रथ कहते हैं इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, शब्दादि विषय ही मार्ग है, बुद्धि रथ का सारथि है, भगवान् के द्वारा रचित चित्त ही विशाल रस्सी है ।
स्वर्ग नरक अपवर्ग नसेनी ___गोस्वामी तुलसीदास जी ने मनुष्य शरीर को नसेनी बताया । जैसे नसेनी से ऊपर तथा नीचे जा सकते हैं उसी प्रकार मनुष्य शरीर के द्वारा स्वर्ग एवं नरक दोनों प्राप्त किये जा सकते हैं, इतना ही नहीं इस शरीर से मोक्ष को भी प्राप्त किया जा सकता है ।
|| शरीर की प्रशंसा ।।