F भगवान के अच्छे प्रवचन,ज्ञान प्रवचन,सत्संग के अच्छे प्रवचन - bhagwat kathanak
भगवान के अच्छे प्रवचन,ज्ञान प्रवचन,सत्संग के अच्छे प्रवचन

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भगवान के अच्छे प्रवचन,ज्ञान प्रवचन,सत्संग के अच्छे प्रवचन

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भगवान के अच्छे प्रवचन
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लब्धा विद्या राज मान्या ततः किम् ? 
भुक्ता नारी सुन्दरी वा ततः किम् ? 
दृष्टा नाना चारूदेशास्ततः किम् । 
केयूराद्यैर्भूषितो वा ततः किम् ? 
येन स्वात्मा नैव साक्षात्कृतो भूत् ।।
यदि किसी ने ऐसी विद्या प्राप्त कर ली कि बड़े-बड़े राजा धनाढ्यों में उसका सम्मान होने लगा तो क्या इससे मानव जीवन सफल हो गया ? किसी को अगर सुन्दर अनुकूल स्त्री मिल गई या स्त्री का अनुकूल पति मिल गया तो भी क्या इससे मानव जीवन सफल हो गया ? सुन्दर-सुन्दर देशों में भ्रमण करने पर भी जीवन की सार्थकता नहीं मानी जाती है, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और आभूषण पहनने से भी जीवन की सार्थकता नहीं मानी जाती । जीवन की सार्थकता तो आत्म-साक्षात्कार करने पर ही मानी गई है ।
उपनिषद् में याज्ञवल्कि गार्गी से कहते हैं - 
यो वा एतदक्षरम् गार्गि अविदित्वा अरमॉल्लोकात् प्रेति स कृपणः ।
। हे गार्गि इस अक्षर परमामा को जाने बिना जो इस लोक से चला गया वह कृपण है, दीन है ।
यो वा एतदक्षरम् गार्गि विदित्वास्मॉल्लोकातिप्रेति स ब्राह्मण: ।
- जो इस परमात्मा को जानकर इस शरीर को छोड़ता है वह ब्राह्मण है यह आत्मज्ञान मनुष्य शरीर में ही होता है। जैसे हम दर्पण में अपना मुख देख लेते है उसी प्रकार बुद्धि रूपी दर्पण में आत्मसाक्षात्कार हो सकता है, अथवा ब्रह्मलोक में आत्मसाक्षात्कार होता है। छाया तपयोरिव ब्रह्मलोके ब्रह्मलोक में धूप और छाया के समान स्पष्ट रूप से आत्मा अनात्मा की प्रतीति होती है इसलिए मनुष्य शरीर को बनाकर भगवान् भी प्रसन्न हो गये ।
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्त्या । 
वृक्षान्सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान् । 
तैरस्तैरतुष्टहृदयः पुरूष विधाय 
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ।।
भगवान् तिरासी लाख निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे शरीर की रचना करके प्रसन्न नहीं हुए क्योंकि इन शरीरों से जीव न तो भगवान् भजन करता है, और न ही भगवत स्वरूप को जान सकता है।
भगवान् ने मनुष्य का शरीर बनाया और उसे बनाकर बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि इसमें परमात्मा का साक्षात्कार करने वाली बुद्धि है। इसलिए मनुष्य शरीर प्राप्त करके आत्म साक्षात्कार के लिए प्रयत्न करना चाहिए ।
श्री सनत्कुमार जी महाराजा प्रथु को उपदेश करते हुए कहते है
@शास्त्रेष्वियानेव सुनिश्चितोनृणां, 
क्षेमस्य सधृक् विमृशेषु हेतुः । 
असग. आत्मव्यतिरिक्त आत्मनि, 
दृढा रतिर्ब्रह्मणि निर्गुणे च या ।
सास्त्रेषु सधृक् विमृशेषु शास्त्रों का भली प्रकार से विचार करने पर नृणां क्षेमस्य हेतुः मनुष्यों के कल्याण का साधन इयानेव सुनिश्चितः यही निश्चय किया गया है कि आत्मव्यतिरिक्ते प्रपञ्चे असङ्गे वैराग्य आत्मनि दृढारतिः इस नाम रूपात्मक जगत से वैराग्य और आत्मा में दृढ़ प्रीति हो। आत्मा का स्वरूप क्या है ? आत्मा निर्गुण ब्रह्मस्वरूप है।
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन् महती विनष्टि: । 
य एतदविदुरमृतास्ते भवन्ति अथेतरे दुःखमेवोपयन्ति ।।
इस मानव शरीर में यदि हमने आत्मा को जान लिया तो ये मानव जीवन सफल हो गया और यदि मानव शरीर पाकर के भी आत्मा को न जान सके तो बड़ी भारी हानि हुई महती विनष्टि:, जिन्होंने अपनी आत्मा को जान लिया वे अमर हो गये और जिन्होंने अपनी आत्मा को नहीं जाना वे इस संसार सागर में जन्म मृत्यु के चक्कर में दुःख ही भोगते हैं।
आराममस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कच्श्रन 
अस्य परमात्नः आरामं क्रीडा स्थानं ग्रामनगररदिकम् सर्वे जना। 
पश्यान्त त आराम निर्मातारं परमात्मानं कश्चन कोऽपि न पश्यति।।
उस परमात्मा के क्रीडास्थान जगत् को सब देखते हैं किन्तु इस जगत्क निर्माणकर्ता परमेश्वर का कोई स्मरण नहीं करता, उसी का स्मरण करने के लिए मानव शरीर मिला है ।
जीवों का यह स्वभाव है कि वे बनी हुई वस्तु से प्रेम करते है, उसका उपयोग करते हैं, पर बनाने वाले का स्मरण भी नही करते हैं। बालक से प्रेम करेंगे, उसे चूमेंगे, हृदय से लगायेंगे, पर जिसने उस बच्चे को बनाकर तुम्हारी गोदी में दिया उसका स्मरण भी नहीं करते । माता-पिता यदि चाहे तो भी वे बच्चे के एक रोम का निर्माण नहीं कर सकते। जिस स्त्री में प्रेमरत हो, आसक्त हो, जो तुम्हारी सेवा करती है उसकी जिसने रचना की है क्या कभी तुम उसका स्मरण करते हो ?
भगवान् शंकराचार्य जी कहते हैं -
आत्मनः किं निमित्तं दुःखम् ।
जब हमारा आत्मा सच्चिदानन्द रूप है तो उसमें दुःख का क्या कारण हम दुःखी क्यों ? तो स्वयं ही उसका उत्तर देते हैं ।
शरीर परिग्रह निमित्तम् ।
शरीर का मिलना ही दुःख का कारण है ये देहाध्यास ही दुःख का मूल है ।
शरीर परिग्रह: केन भवति ?
यह शरीर आत्मा को मिला क्यों ? तो इसका उत्तर है - कर्मणा। जीवों को यह कर्मानुसार मिलता है | कर्म तीन प्रकार के होते हैं कायिक, वाचिक, मानसिक
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तम् । 
वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ।। 
दूसरे की धन की इच्छा करना, मन में दूसरों का अनिष्ट सोचना झूठा अभिमान करना कि मैने य किया था में ये करूंगा येही मन के पाप है।
पारूष्यमनृतं चैव पैसुन्यं चापि सर्वशः । 
असम्बद्धप्रलापश्च बाड्मयं स्याच्चतुर्विधम् ।।
कडुवा बोलना, मिथ्या बोलना, चुगली करना और अनर्गल बात करना ये चार वाणी के पाप है।
अदत्तानामुपादान हिंसा चैवाभिधानतः । 
परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् ।।
चोरी करना, दूसरों की हिंसा करना, परस्त्री गमन अथवा व्यभिचार करना ये तीन शरीर के पाप है ।
शारीरजैः कर्मदोषैर्यातिस्थावरतां नरः । 
वाचिकैः पक्षिमृगता मानसैरन्त्यजातिताम् ।।
शरीर से किए हुए पाप वृक्षादि की योनियों में, वाणी से किए हुए प्रा पाप पक्षी और मृगादि योनियों में और मन से किए हुए पाप चाण्डालादि क योनियों में भोगे जाते हैं |
धान्सं हृत्वाभवत्याखुः कांस्यं हंसो जलं प्लवः । 
मधुदंसः पयः काकः रसं श्वा नकुलो घृतं ।। 
कौसेयं तित्तिरी हृत्वा फलमूलं तु मर्कटः । 
छुछुन्दरी शुभान् गन्धान् पत्र शाकन्तु वर्हिण: ।।
धान्य चुराने वाला दूसरे जन्म में चूहा होता है, कांसे को चुराने वाला हंस होता है, जल की चोरी करने वाला मेंढक होता है, मधु चुराने वाला मधु-मक्खी, दूध चुराने वाला कौआ, रस का चोर कुत्ता, घी चुराने वाला नेवला, रेशमी वस्त्र चुराने वाला तीतर, फल-मूल की चोरी करने वाला बन्दर, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थ चुराने वाला छडूंदर तथा पत्र, शाक को चुराने वाला दूसरे जन्म में मोर होता है ।
ससार में जो विषमता देखी जाती है वह हमारे कर्मो के द्वारा का हुई है । कोई देवता है, कोई मनुष्य है, कोई पशु है, कोई पक्षी है, कोई रिक्शा में बैठा है, कोई रिक्शा चला रहा है, कोई ठोकर मार रहा है, कोई ठोकर खा रहा है, कोई कुछ दे रहा है, कोई कुछ ले रहा है । यह जो परमात्मा की सृष्टि में विषमता है उसमें जीवों के कर्म की हेतु है । भगवान् शंकराचार्य जी अपने भाष्य में कहते हैं -
नहि निरपेक्षस्य निर्मातृत्वमस्ति सापेक्षो हीश्वरो विषमा 
सृष्टिं निर्मिमीते, किमपेक्षते, धर्माधर्मी अपेक्षते इति वदामः । 
स्वयं भगवान् ने सृष्टि को विषम नहीं बनाया किन्तु जीवों के धर्माधर्म की अपेक्षा से सृष्टि में विषमता की है ।
कर्म केन भवति ? चेत् ये धर्म कौन कराता है, कैसे होता है ?
रागादिभ्यः ।
कर्म के हेतु हैं राग द्वेष, सुख में राग है दुःख में द्वेष है इसलिए प्राणी विषय सुख की प्राप्ति के लिए कर्म करता है और दुःख से बचने का उपाय करता है इसी से पुण्य पाप कर्म होते हैं | पुण्य पापो के अनुसार जीवों को शरीर मिल जाते हैं ।
रागादयाऽपि कस्मात् भवन्ति ? चेत् 
ये राग द्वेष आत्मा में कहाँ से आये ?
अहंकारात् । 
रागद्वेष अहंकार से उत्पन्न होते हैं ।
अहंकारोऽपि कस्मात् जायते । 
यह अहंकार आत्मा में कहाँ से आया ?
अविवेकात् । यह अहंकार अविवेक से उत्पन्न होता है ।
अविवेकोऽपि कस्मात् जातः ? यह अविवेक भी कहाँ से आया ?
अज्ञानात् । यह अविवेक अज्ञान से उत्पन्न होता है ।
अज्ञानमपि कस्माज्जातम् ?
यह अज्ञान आत्मा में कहाँ से आया अज्ञान अनादि है अतः ऐसा प्रश्न नहीं बनता ।
अज्ञानं नाम अनादि सदसदभ्यामनिर्वचनीयं ज्ञान विरोधि भाव रूप यत्कञ्चित् ।
अज्ञान अनादि है न उसे सत् कह सकते हैं न असत् । इसलिन वह अनिर्वचनीय है और ज्ञान का विरोधी भाव रूप है । इस अज्ञान से ही अविवेक उत्पन्न होता है अविवेक से अहंकार और अहंकार से राग-द्वेष उत्पन्न हुए और राग-द्वेष से ही पुण्य पाप कर्म होते हैं और उनसे ही ये शरीर मिल जाते हैं शरीर की प्राप्ति ही दुःख का कारण है।
यही बात इस सूत्र में कही गई है -
दुःखजन्मप्रवृतिदोष मिथ्याज्ञानानां उत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः ।।
दुःख का जन्म और जन्म का कारण शुभाशुभ प्रवृति शुभाशुभ प्रवृति के हेतु रागादि दोष और रागादिदोष का मूल मिथ्याज्ञान है। मिथ्याज्ञान की निवृत्ति से, रागादि दोष की निवृत्ति होती है राग आदि दोष की निवृत्ति से जन्म की निवृत्ति और जन्म की निवृत्ति से दुःख की निवृत्ति होती है।
यह अज्ञान जिसको अविद्या कहते हैं इसके पशु के समान चार पैर हैं - पतन्जलि कहते हैं ।
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ।।
यह अविद्या अनित्य में नित्य बुद्धि, पवित्र में अपवित्र बुद्धि, दुःख में सुख बुद्धि, अनात्म में आत्मबुद्धि कराती है | अविद्या ही सम्पूर्ण अनर्थो का मूल है और ज्ञान इसका विरोधी है इसलिए ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरू की शरण में जाना चाहिए ।
गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । 
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्व दर्शिनः ।।
श्रुतियाँ इसलिए भगवान् से इस अविद्या को नष्ट करने के लिए प्रार्थना करती है।
जय जय जहृजामजित दोष गृभीत गुणाम्.........
हे अजीत ! अगजगदोकसां अजां जहि । हे भगवन स्थावर जंगम प्राणियों की अविद्या को आप नष्ट कर दें क्योंकि इस अविद्या के कारण ही प्राणी दुःखी हो रहे हैं।
भगवान के अच्छे प्रवचन

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