|| यम सन्देश ।।
जन्म और जीवन क्या है
मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है
जीवन का महत्व
हमारे यहाँ तीन शासक माने जाते हैं :
गुरूरात्मवतां शास्ता राजा शास्ता दुरात्मनाम् ।
तथा प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ।।
जो सज्जन है, भक्त है, सदाचारी है वे अपना शासक गुरू और शास्त्र को ही मानते हैं । राजा का शासन उन पर नहीं होता, राजा उनका सेवक होता है, रक्षक होता है । राजा शासक होता है दुष्टों का, दुराचारियों का, हिसकों का, चोरों का, डाकुओं का और जो राजा से भी छिपकर पाप करने वाले हैं उनका शासन यमराज करते है ।
यमो वैवस्वतो राजा सर्वेषां हृदि संस्थितः ।
तेन चेदविवादस्ते मा गङ्गा मा कुरून् व्रज ||
यमराज के यहाँ पुण्यात्मा भी जाते हैं और पापी भी पुण्यात्माओं के बैठने के लिए सिंहासन होते हैं, वे आदर पूर्वक बैठाये जाते हैं और पापी लोग एक पंक्ति में खड़े रहते हैं यमराज जब वहाँ पधारते हैं तो पहले पुण्यात्माओं से यह निवेदन करते हैं -
यूयं सर्वे महात्मानो नरकक्लेश भीरवः ।
निज कर्म प्रभावेण गम्यतां परमं पदम् ।।
महात्माओं आप लोगों ने नरकों के क्लेश से डरते हुए पुण्य कर्म किए हैं इसलिए अपने कर्मो के प्रभाव से आप लोग उत्तम-उत्तम लोकों में जाइए । इसमें हमारी कोई दया नहीं है ।
संसारे जन्म संप्राप्य पुण्यं यः कुरूते नरः ।
स मे पिता स मे भ्राता स मे बन्धुः स मे सुहृत् ।।
संसार में मनुष्य जन्म लेकर जो सदाचार का पालन करता है, दान करता है, परोपकार करता है, उसका मैं पिता के समान, भाई के मान, मित्र के समान आदर करता हूँ। ऐसा कहकर के पुण्यात्माओ को उनके कर्मो के अनुसार उत्तम-उत्तम लोकों में भेज देते हैं । तत्पश्चात् पापियों पर दृष्टिपात करते हुए यमराज जी कहते हैं -अरे पापियों, दुराचारियों, तुमने मूर्खता से अपने को ही पीड़ा पहुँचाने वाले कर्मो को किया है ।
पुण्यात्मनामहं बन्धुरहं पापात्मनां रिपुः ।
इति कुत्रापि युष्माभिर्नश्रुतं श्रवणैः स्वकैः ।।
मैं पुण्यात्माओं का हितैषी हूँ और पापियों को दण्ड देने वाला हूँ। क्या ये बात तुमने अपने कानों से सुनी नहीं ।
निरयाः दुःसहा सन्ति नाना दुःख समन्विताः ।
पापिनो भुञ्जते ताँश्च युष्माभिर्नेति विश्रुतम् ।।
असह्य दुखों को देने वाले अट्ठाईस प्रकार के नरक है, पापी लोग उसमें भेजे जाते हैं । क्या इस बात को तुमने नहीं सुना था ? सुना तो होगा पर उस समय उसे मिथ्या मानते होंगे । उनमें से कुछ पापी लोग अभिमानपूर्वक कहने लगे -
अस्माभिर्यानि पापानि कृतानि भास्करात्मज ।
के स्थिताः साक्षिणस्तत्र कैर्वा यूयं निवेदिताः ।।
हे आदित्य नन्दन ! हमने जो पाप किए हैं वह किसने देखे हैं, आपसे किसने कहा है ।
अशुभं वाशुभं वापिऽयतो स्माभिः कृतं पुरा ।
तथा च दृष्टं केनात्र पुरोऽस्माकं निगद्यताम् ।।
जो हमने पहले शुभ अथवा अशुभ कर्म किए हैं उनको किसने देखा है उसको आप हमें बतावें । यमराज जी ने कहा, तुम लोग हमारे सामने भी घृष्टता करते हो ऐसा कहकर के यमराज जी ने शरीर में स्थित इन्द्रियों के देवता तथा रात्रि और दिन के अधिष्ठातृ देवताओं से कहा कि आप लोग प्रकट । होकर इनके दुष्कर्मो का वर्णन करें, ऐसा कहते ही इन्द्रियों के सभी देवता प्रगट हो गए और कहने लगे तुमने अमुक समय अमुक व्यक्ति की हत्या की थी, अमुक समय में चोरी की थी आदि-आदि । इसके बाद यमराज जी ने सभी पापियों को पृथक्-पृथक् नरकों में भेज दिया ।
परदार परद्रव्य परद्रोह पराङ्मुखाः ।
गंगाप्याह कदागत्य मामयं पावयिष्यति ।।
पर स्त्री और परधन से जो विमुख है और जो किसी से द्रोह नहीं करते उनकी तो गम भी प्रतीक्षा करती है कि ये कब आकर उनमे स्नान करें और उनको पवित्र करें ।
न तान् गम पुनाति किन्तु त एव गङ्गा पुनन्ति ।
उनको गङ्गा जी पवित्र नहीं करती अपितु वे ही गङ्गा जी को पवित्र करते हैं।
परापवादे ये मूकाः पर स्त्रीषु नपुंसकाः ।
परवित्तेषु ये चान्धाः तेषां गङ्म पदे पदे ।।
दूसरों की जहाँ निन्दा हो रही है वहाँ जो मौन रहता है, दूसरों की स्त्रियों में यदि रहना पड़े तो जो नपुंसक के समान रहता है और जो दूसरों के धन की ओर कभी देखता नहीं उसको गझ स्नान का पग पग पर फल प्राप्त होता है । ।
मा रतिः पर दारेषु पर द्रव्येषु मा मतिः ।
परापवादिनी जिह्या माभूत् जन्मनि जन्मनि ।।
मेरा चाहें किसी योनि में भी जन्म हो परन्तु पराई स्त्री में मेरी कोई प्रीति न हो, दूसरे के धन की ओर मेरी दृष्टि न जाये, मेरी जिह्मा दूसरे की निन्दा करने वाली न हो। गंगा जी को लाने के लिए भगीरथ जी ने तपस्या की । गंगा जी न प्रसनन होकर दर्शन दिया । भगीरथ जी ने निवेदन किया माताजी हम अपन पितरो का उद्धार करने के लिए आपको धरातल पर ले जाना चाहते है।गंगा - जब मैं आकाश से धारा के रूप में पृथ्वी पर गिरूँगी तो । मेरे वेग को कौन धारण करेगा, अन्यथा मैं पृथ्वी का भेदन करके पाताल में चली जाऊंगी। -
धारयिष्यति ते वेगं रूद्रस्त्वात्मा शरीरिणाम् ।
यस्मिन्नोतमिदं प्रोतं विश्वं शाटीव तन्तुषु ।।
भगीरथ - माता जी आपके वेग को भगवान् शंकर धारण करेंगे जो सभी देह धारियों की आत्मा हैं जिसमें सारा विश्व इस प्रकार ओत-प्रोत है जैसे तन्तुओं में साड़ी ।
तन्तुमात्रभवेदेव पटो यद्वद् विचारतः ।
आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्वद् विश्वं विचारितम् ।।
जैसे वस्त्र का विचार करने पर केवल तन्तु ही तन्तु रहते हैं वस्त्र नाम की कोई वस्तु नहीं होती इसी प्रकार विचार करने पर आत्मा से अतिरिक्त संसार नाम की कोई वस्तु नहीं ठहरती ।
किं चाहं न भुवं यास्ये न रामयामृजन्त्यघम् ।
मृजामि तदघं कुत्र राजन् तत्र विचिन्त्यताम् ।।
गंगा - तो भी हम धरातल पर नहीं जाना चाहती क्योंकि पापी लोग आकर हममें स्नान करेंगे और पापों को छोड़ जायेंगे | उन पापों को मैं कहाँ डालूंगी इस बात का भी तो विचार करें -
साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मष्ठिा लोक पावनाः ।
हरन्त्चंतेड़. संगात् तेष्वास्ते मघभिद्धरिः ।।
भगीरथ - माता जी भारत वर्ष में साधू हैं विरक्त संन्यासी हैं राग द्वेष से रहित होने के कारण जिनके अन्तःकरण शान्त है, संसार को पवित्र करने वाले ऐसे ब्रह्मनिष्ठ महात्मा जब आपमें स्नान करेंगे तो आपके सारे पापों का वे सन्त अपहरण कर लेंगे क्योंकि उनके हृदय में पापों को नष्ट करने वाले भगवान् श्री हरि सदा विराजमान रहते हैं । भगीरथ जी ने जब ऐसा कहा तो गंगा जी प्रसन्न हो गई और धरातल पर आ गई ।इसलिए शास्त्रों में यह बात कही गई है -
स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।
सर्वे विधिनिषेधाः स्युरेतयोरेव किंकराः ।।
भगवान् को निरन्तर स्मरण करते रहना चाहिए उनका विस्मरण कभी नहीं होना चाहिए । जितने भी विधि निषेध जन्य पुण्य पाप है वह स्मरण और विस्मरण के दास हैं, किंकर हैं । जहाँ भगवान् का स्मरण है वहाँ सभी पुण्य उसके साथ हैं और जहाँ भगवान् का विस्मरण है वहाँ सभी पाप उसके साथ है। भगवान् का स्मरण करना, चिन्तन करना, ध्यान करना यही हमारी सम्पत्ति है, पूंजी है, इसी को दैवी सम्पदा कहते हैं ।
दैवी सम्पद विमाक्षाय निबन्धायासुरीमता ।
दैवी समपत्ति से मोक्ष मिलता है और आसुरी सम्पत्ति बन्धन का हेतु है ।
निःश्वासे नहि विश्वासः कदा रूद्धो भविष्यति ।
कीर्तनीयमतो बाल्यात् हरेनमिव केवलम् ।।
इस श्वास का क्या विश्वास है कब इसका चलना बन्द हो जाये, कब मृत्यु हो जाये, इसलिए बचपन से ही भगवन्नाम कीर्तन करते रहना चाहिए । किसी भक्त ने एक महात्मा से पूछा कि महाराज भगवन्नाम के स्मरण की महिमा बताओ, महात्मा बोले भगवन्नाम की महिमा तो ब्रह्मादिक देवता भी वर्णन नहीं कर सकते हम क्या कहें । उसने कहा महाराज कुछ तो बताओ, तब उन्होंने कहा कि गौ के सींग पर सरसों रखो वह जितनी देर ठहरे "उतनी देर भी किया हुआ भगवन्नाम स्मरण" जीव का कल्याण कर देता है इसमें रहस्य यह है कि भगवन्नाम स्मरण एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ना चाहिए ।श्री व्यास जी कहते हैं -
विपदौ नैव विपदः सम्पदो नैव सम्पदः ।
विपद् विस्मरणं विष्णोः सम्पन्नारायणस्मृतिः ।।
इसी का अनुवाद श्री तुलसीदास जी शब्दों में स्मरण करें -
कह हनुमन्त विपति प्रभु सोई, जब तक सुमिरन भजन न होई।
इय मेव पराहानिरूपसर्गोऽयमेव हि ।
अभाग्यं परमं चैतद् वासुदेवं न यत्स्मरेत् ।।
ये ही सबसे बड़ी हानि है सबसे बड़ा प्रतिबन्ध भी यही है और सबसे बड़ा दुर्भाग्य भी यही है कि जो हम भगवान् का स्मरण नहीं करते। आयु का एक क्षण, आधा क्षण भी करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से प्राप्त नहीं हो सकता, वह सारी आयु व्यर्थ व्यतीत हो जाए इससे बड़ी और क्या हानि हो सकती है ।
जन्म और जीवन क्या है
मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है