F अत्रि मुनि की कथा,अत्रि ऋषि की कहानी - bhagwat kathanak
अत्रि मुनि की कथा,अत्रि ऋषि की कहानी

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अत्रि मुनि की कथा,अत्रि ऋषि की कहानी

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अत्रि मुनि की कथा
अत्रि ऋषि की कहानी
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ये भी महर्षि मरीचिकी भाँति ब्रह्माजीके मानसपुत्र और प्रजापति हैं। ये दक्षिण दिशामें रहते हैं, इनकी पत्नी अनसूया भगवदवतार कपिलकी भगिनी है तथा कर्दमप्रजापतिकी पत्नी देवहूतिके गर्भसे पैदा हुई हैं। जैसे महर्षि अत्रि अपने नामके अनुसार त्रिगुणातीत थे, वैसे ही अनसूया भी असूयारहित थीं। इन दम्पतीको जब ब्रह्माने आज्ञा की कि सृष्टि करो, तब इन्होंने सृष्टि करनेके पहले तपस्या करनेका विचार किया और बड़ी घोर तपस्या की। इनके तपका लक्ष्य संतानोत्पादन नहीं था बल्कि इन्हीं आँखोंसे भगवान्का दर्शन प्राप्त करना था। इनकी श्रद्धापूर्वक दीर्घकालकी निरन्तर साधना और प्रेमसे आकृष्ट होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेशतीनों ही देवता प्रत्यक्ष उपस्थित हुए। उस समय ये दोनों उनके चिन्तनमें इस प्रकार तल्लीन थे कि उनके आनेका पतातक न चला। जब उन्होंने ही इन्हें जगाया तब ये उनके चरणोंपर गिर पड़े, किसी प्रकार सँभलकर उठे और गद्गद वाणीसे उनकी स्तुति करने लगे। इनके प्रेम, सचाई और निष्ठाको देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने वरदान माँगनेको कहा। इन दम्पतीके मनमें अब संसारी सुखकी इच्छा तो थी ही नहीं, परंतु ब्रह्माकी आज्ञा थी सृष्टि करनेकी और वे इस समय सामने ही उपस्थित थे; तब इन्होंने और कोई दूसरा वरदान न माँगकर उन्हीं तीनोंको पुत्ररूपमें माँगा और भक्तिपरवश भगवान्ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके एवमस्तु' कह दिया। समयपर तीनोंहीने इनके पुत्ररूपसे अवतार ग्रहण किया। विष्णुके अंशसे दत्तात्रेय, ब्रह्माके अंशसे चन्द्रमा और शंकरके अंशसे दुर्वासाका जन्म हुआ। जिनकी चरणधूलिके लिये बड़े-बड़े योगी और ज्ञानी तरसते रहते हैं, वे ही भगवान् अत्रिके आश्रममें बालक बनकर खेलने लगे और दोनों दम्पती उनके दर्शन और वात्सल्यस्नेहके द्वारा अपना जीवन सफल करने लगे। अनसूयाको तो अब कुछ दूसरी बात सूझती ही न थी। अपने तीनों बालकोंको खिलाने-पिलानेमें ही लगी रहतीं।
अत्रि मुनि की कथा
अत्रि ऋषि की कहानी
इन्हींके पातिव्रत्य, सतीत्वसे प्रसन्न होकर वनगमनके समय स्वयं भगवान् श्रीराम सीता और लक्ष्मणके साथ इनके आश्रमपर पधारे और इन्हें जगज्जननी माँ सीताको उपदेश करनेका गौरव प्रदान किया।
कहीं-कहीं ऐसी कथा भी आती है कि महर्षि अत्रि ब्रह्माके नेत्रसे प्रकट हुए थे और अनसूया दक्षप्रजापतिकी कन्या थीं। यह बात कल्पभेदसे बन सकता है। अनेकों बार बड़ी-बड़ी आपत्तियोंसे इन्होंने जगतकी रक्षा की है। पुराणों में ऐसी कथा आती है कि एक बार राहुने अपनी पुरानी शत्रुताके कारण सूर्यपर आक्रमण किया और सूर्य अपने स्थानसे च्युत हो गये , गिर पड़े। उस समय महर्षि अत्रिके तपोबल और शुभ संकल्पसे उनकी रक्षा हुई तथा जगत् जीवन  एव प्रकाश से शून्य होते-होते बच गया। तबसे महर्षियोंने इनका एक नाम प्रभाकर रख दिया। महर्षि अत्रि की चर्चा वेदो भी आती है। एक बार  जब ये  समाधिमग्न थे दैत्यों ने इन्हे उठाकर शतद्वार यन्त्र में  डालकर अग्नि  जला दी और इन्हें नष्ट करने की चेस्टा की इन्हें इस बातका पतातक न था। उस समय भगवत्प्रेरणासे अश्विनीकुमारोंने वहाँ पहुँचकर इन्हें न धर्मशास्त्रोंमें अत्रिसंहिता एक प्रधान स्मृति है और हमारे कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय करनेके लिये वर अमूल्य ग्रन्थरत्न है। इनके विस्तृत और पवित्र जीवनकी चर्चा प्रायः समस्त आर्ष ग्रन्थोंमें आयी है  ।
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