महाप्रभुका कुष्ठरोगीसे प्यार
धन्यं तं नौमि चैतन्यं वासुदेवं दयार्द्रधीः |
नष्टकुष्टं रूपपुष्टं भक्तितुष्टं चकार यः ||
जिन्होंने दयार्द्र होकर वासुदेव नामक पुरुष के गलित कुष्ठ को नष्ट करके उसे सुंदर रूप प्रदान किया और भगवत भक्ति देकर संतुष्ट किया, ऐसे धन्य जीवन श्री चैतन्य को हम नमस्कार करते हैं | श्री चैतन्य आंध्र देश के एक गांव में पधारे, वासुदेव उसी ग्राम में रहता था सारे अंगों में गलित कुष्ठ है, घाव हो रहे हैं और उन में कीड़े पड़ गए हैं | वासुदेव भगवान का भक्त है और मानता है कि यह कुष्ठ रोग भी भगवान का दिया हुआ है , इससे उसके मन में कोई दुख नहीं है | उसने सुना एक रूप लावण्य युक्त तरुण विरक्त सन्यासी पधारे हैं और वह कूर्मदेव ब्राह्मण के घर ठहरे हैं , उनके दर्शन मात्र से हृदय में पवित्र भावों का संचार हो जाता है और जीभ अपने आप हरी हरी पुकार उठती है | वासुदेव से रहा नहीं गया वह कुर्म देव ब्राम्हण के घर दौड़ा गया , उसे पता लगा कि श्री चैतन्य आगे की ओर चल दिए हैं |वह जोर जोर से रोने लगा और भगवान से कातर प्रार्थना करने लगा |
भगवान की प्रेरणा हुई, चैतन्यदेव थोड़ी ही दूर से लौट पड़े और कूर्मदेव के घर आकर वासुदेव को जबरदस्ती बड़े प्रेम से उन्होंने हृदय से लगा लिया | वासुदेव पीछे की ओर हटकर बोला भगवन क्या कर रहे हैं,