सज्जनदुर्जनविवेकः-सुक्तिसुधाकर
नीति श्लोक अर्थ सहित
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषांकन परिपीडनाय।
खलस्य साधोविपरीतमेतदज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
➡दुष्टकी विद्या विवादके लिये, धन मदके लिये और शक्ति दूसरोंको कष्ट देनेके लिये होते हैं, और सज्जनके इससे विपरीत ही विद्या ज्ञान, धन दान और शक्ति रक्षा करनेके लिये होते हैं ॥
➡एक तो सत्पुरुष ऐसे होते हैं कि स्वार्थको त्यागकर भी दूसरोंके कार्य साधते हैं, दूसरे साधारण जन ऐसे होते हैं जो स्वार्थको न बिगाड़ते हुए दूसरोंके कार्यमें तत्पर रहते हैं और जो स्वार्थके लिये परहितका नाश करते हैं वे मनुष्यरूपी राक्षस हैं, पर जो बिना स्वार्थके भी दूसरोंके हितका नाश करते हैं, वे कौन हैं यह समझमें नहीं आता।
अनार्यता निष्ठरता करता निष्क्रियात्मता।
पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम्॥
➡असज्जनता, निष्ठुरता, क्रूरता और विहित कर्म न करना-ये बातें लोकमें संकीर्ण जातिके मनष्यको प्रकट कर देती हैं ॥
मूलं भुजङ्गैः शिखरं प्लवङ्गैःशाखा विहङ्गैः कुसुमानि भृङ्गैः।
आसेव्यते दुष्टजनैः समस्तैन चन्दनं मुञ्चतिशीतलत्वम्॥
➡चन्दनके मूलमें सर्प रहते हैं, शिखरपर बन्दर रहते हैं शाखाओंपर पक्षी तथा पुष्पोंपर भ्रमर रहते हैं, इस प्रकार वह समस्त दुष्ट प्राणियोंसे सेवित होता है, परंतु फिर भी अपनी शीतलताको नहीं छोड़ता॥
वासः काञ्चनपिञ्जरे नृपवरैर्नित्यं तनोर्मार्जनं भक्ष्यं
स्वादुरसालदाडिमफलं पेयं सुधाभं पयः।
वाच्यं संसदि रामनाम सततं धीरस्य कीरस्य भो
हा हा हन्त तथापि जन्मविटपिकोडं मनो धावति॥
➡ सोनेके पिंजड़ेमें रहना, राजाके हाथोंसे शरीरका नहलाया जाना, स्वादिष्ट आम अनार आदि भोजन करना, अमृत-सा जल पीना और सभाओंमें निरन्तर राम-नामको रटना. इतना होते हुए भी अहो! धीर शुकका मन इनसे उदास होकर, अपने जन्मस्थान वलके कोटरकी ओर ही दौड़ता है॥
अगाधजलसञ्चारी विकारी नैष रोहितः।
गण्डूषजलमात्रेण म शफरीन फर्फरायते॥
➡ अगाध जलमें रहनेवाला रोहित नामक महामत्स्य कभी विकारको प्राप्त नहीं होता; किन्तु चुल्लूभर पानीमें रहनेवाली मछली हर समय फुदकती रहती है [इसी प्रकार महापुरुष महान् विभूति पाकर भी र होते; किन्तु छोटे आदमी थोड़े-से धनसे ही मर्यादासे बाहर हो जाते ।