सोपानभूतं मोक्षस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम्।
यस्तारयति नात्मानं तस्मात्यापतरोऽत्र कः॥
जो पुरुष मुक्ति रूपी सोपान [सीडी]रूप अति दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर भी अपनेको नहीं तारता उससे बड़ा पापी संसारमें कौन है? ॥
विलक्षणं यथा ध्वान्तं लीयते भानुतेजसि।
तथैव सकलं दृश्यं ब्रह्मणि प्रविलीयते॥
सूर्यका प्रकाश होनेपर जिस प्रकार अंधकार विपरीतधर्मी होता हुआ भी उसमें लीन हो जाता है, उसी प्रकार यह सम्पूर्ण द्रश्य भी बह्ममें लीन हो जाता है ॥
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशी कलाम्॥
संसारका विषयानन्द और परलोकका महान दिव्यानन्द ये तृष्णाक्षयके आनन्दके सोलहवें भाग भी नहीं हो सकते॥
नीतिज्ञा निर्यातज्ञा वेदज्ञा अपि भवन्ति शास्त्रज्ञाः।
ब्रह्मज्ञा अपि लभ्या: स्वाज्ञानज्ञानिनो विरलाः॥
संसारमें नीति, भविष्य, वेद, शास्त्र और ब्रह्म सबके जाननेवाले मिल सकते हैं; परंतु अपने अज्ञानके जाननेवाले मनुष्य विरले ही हैं॥
त्यक्तव्यो ममकारस्त्यक्तुं यदि शक्यते नासौ।
कर्तव्यो ममकारः किन्तु स सर्वत्र कर्तव्यः॥
या तो ममत्व बिलकुल छोड़ दे और यदि न छोड़ सके, (ममत्व करना ही हो) तो सर्वत्र करे॥
आत्मानं यदि निन्दन्ति स्वात्मानं स्वयमेव हि।
शरीरं यदि निन्दन्ति सहायास्ते जनामम॥
यदि कोई पुरुष मेरे आत्मा की निन्दा करते हैं तो स्वयं अपने आत्मा की ही निंदा करते हैं और यदि इस निंदनीय शरीर की निंदा करते हैं तो मेरे सहायक ही हैं |
मन्निन्दया यदि जनः परितोषमेति नन्वप्रयत्नसुलभोऽयमनुग्रहोमे।
श्रेयोऽर्थिनो हि पुरुषाः परतुष्टिहेतो दुखार्जितान्यपि धनानि परित्यजन्ति॥
मेरी निन्दासे यदि किसीको सन्तोष होता है तो बिना प्रयत्नके ही मेरी उनपर कृपा हई, क्योंकि श्रेयके इच्छुक पुरुषयदि कोई पुरुष मेरे आत्माकी निन्दा करते हैं तो दूसरोंके सन्तोषके लिये अपने कष्टोपार्जित धनका भी परित्याग करते हैं।
इस दु:खमय जीवलोकमें, जिसमें सदा दीनता ही सुलभ है. यदि किसीको मेरी निन्दासे सन्तोष होता है तो वह चाहे मेरे सामने, चाहे पीछे मेरी यथेष्ट निन्दा करे; क्योंकि इस दु:खमय संसारमें प्रसन्नताकी प्राप्ति बड़ी दुर्लभ है॥
जो गोपालसे विमुख है उस कुलको, कुटुम्बको, घरको, पुत्रको, आत्माको और शरीरको धिक्कार है ! धिक्कार है !!॥
मृग, हाथी, पतंग, मत्स्य और भ्रमर-ये पाँच जीव पाँचों (विषयों) मेंसे एकएकसे मारे जाते हैं, फिर जो प्रमादी अकेले ही अपनी पाँचों इन्द्रियोंसे पाँचों विषयोंका सेवन करता है वह क्यों न मारा जायगा? |,
मनुष्यकी मृत्युके पश्चात् उसका 'धन पृथ्वीमें गड़ा रह जाता है, पशु गोष्ठमें बँधे रह जाते हैं, स्त्री घरके द्वारपर छूट जाती है; और परिजन श्मशानतक तथा शरीर चितातक साथ देता है, परलोकके मार्गमें केवल धर्मको साथ लेकर जीव अकेला ही जाता है ।
नवच्छिद्रसमाकीर्णे शरीरे पवनस्थितिः।
प्रयाणस्य किमाश्चर्यं चित्रं तत्र स्थितेर्महत्॥
नव छिद्रोंसे युक्त इस शरीरमें वायु रहता है, उसके निकल जानेमें क्या आश्चर्य है? विचित्रता तो उसके ठहरने में ही है॥
चेतोहरा युवतयः सुहृदोऽनुकूलाः सद्वान्धवाःप्रणयगर्भगिरश्चन भृत्याः ।
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरङ्गाः सम्मीलने नयनयोर्नहि किञ्चिदस्ति॥
अति मनोमोहिनी स्त्रियाँ हैं, मित्र भी अनुकूल हैं, बन्धुजन भी बड़े सुयोग्य हैं, सेवक भी प्रेमपूर्ण बोली बोलनेवाले हैं, कितने ही हाथी चिग्घाड़ रहे हैं और तेज घोड़े हिनहिना रहे हैं किंतु आँख मूंदते ही कोई अपना नहीं रहता॥
अनन्तपारं बहु वेदशास्त्रं स्वल्पं तथायुर्बहवश्च विघ्नाः।
सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्॥
वेद-शास्त्र बहुत और अपार हैं, आयु बहुत थोड़ी है और विघ्न अनेक हैं। अत: हंस जिस प्रकार जलमेंसे दूधको निकाल लेता है उसी प्रकार व्यर्थ विस्तारको त्यागकर सारका ग्रहण करना चाहिये॥
पुत्रा इति दारा इति पोष्यान्मूखों जनान्ब्रूते।
अन्धे तमसि निमज्जन्नात्मा पोष्य इति नावैति॥
मूर्खजन पुत्र, स्त्री आदिको रक्षणीय कहते रहते हैं; पर अन्धकारमें डूबी अपनी आत्माके उद्धारका विचार भी नहीं करते ॥
पाठकाः पठितारश्च ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान् स पण्डितः॥
पढ़ने-पढ़ानेवाले और दूसरे जो शास्त्रचिन्तनमें लीन हैं वे सभी व्यसनी और नासमझ हैं, पर जो क्रियावान् (आचरण करनेवाला) है, वही वास्तविक पण्डित है॥
सुरा मत्स्याः पाशोरमासं द्विजातीनां बलिस्तथा।
धूर्तेः प्रवर्तितं यज्ञे नैतद्वेदेषु कथ्यते॥
मद्य, मत्स्य, पशुका मांस तथा द्विजातियोंद्वारा बलि-इन चीजोंको धूर्तोने ही यज्ञमें प्रवृत्त किया है, इसका वेदमें विधान नहीं है ।।
गेरुए वस्त्र पहिनना, कपाल धारण करना, केशोंका नोचना, पाखण्डव्रत, भस्म, कौपीन, जटा आदि धारण करना, उन्मत्त हो जाना, नंगे रहना और सभाओंमें वेद, शास्त्र कविता आदिकी गोष्ठी करना-ये सब केवल उदरपूर्तिके लिये नृत्य हैं, वास्तविक कल्याणके कारण नहीं हैं ॥
गुरुर्न स स्यात् स्वजनो न स स्यात्पि ता न स स्याज्जननी न सा स्यात्।
देवो न स स्यान्न पतिश्च स स्या न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्॥
जो समीप आयी हुई मृत्युसे नहीं छुड़ाता [अर्थात् बोधदानके द्वारा अमरपदकी प्राप्ति नहीं कराता] वह न गुरु है, न स्वजन है, न पिता है, न माता है, न देव है और न पति है॥
नीति श्लोक-विवेकः सूक्तिसुधाकर
niti ke shlok sanskrit in hind
नीति श्लोक-विवेकः सूक्तिसुधाकर
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