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history of prabhas tirtha,प्रभास क्षेत्र की महिमा

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history of prabhas tirtha,प्रभास क्षेत्र की महिमा

history of prabhas tirtha,प्रभास क्षेत्र की महिमा
history of prabhas tirtha
प्रभास क्षेत्र की महिमा 
history of prabhas tirtha  प्रभास क्षेत्र की महिमा
। प्रागैतिहासीक प्रभास तीर्थ ।
प्रागैतिहासीक प्रभासतीर्थ पूर्वकालमें वर्तमान शीतलाके सूर्यमंदिर तक विस्तृत था। इसका साक्षी नगरके आदित्यका सूर्य मंदिर आजभी विद्यमान है । यहाँ नागरीक आबादि 'नगरपुरा' कहलाती थी । यहाँ त्रिवेणी संगम तक हिरण सरिताके तीर पर पाषाण निर्मित घाट थे। । कुछ वर्षों पूर्व नगरपुरा के उत्खननमें वहाँसे वेद काल  पूर्वके अवशेष प्राप्त हुए है। तब पुरातत्वविदोने निर्णय कीयाकी यहाँ पर पाँचसे भी अधिक संस्कृतिओका विकास और विनाश हुआ है । वर्तमान कालमें इ.स. १९९५ में प्रभासके भुगर्भमै विशाल बौध्ध गुफाए विद्यमान हुई थी और एक बड़ा ढेर सारा हजारो घोडा-हाथी आदिकें हड्डीयोंके अवशेष कीनारेकी रेतकी सतह के नीचे दिखाई पडे थे। प्रागैतिहासीक कालमें यहाँ अनार्योकी आबादि मिनुर नामक स्थानसे थी, मि-नुर का अर्थ (फारसी) भी तेज-प्रकाश -खुदाइ नुर होता है । यह शब्द कोई देव या प्रदेशसे है ? वो यहाँ से व्यापारीक वस्तुए विभिन्न बंदरगाहो को आयात निर्यात कीया करते थे। कालांतरमें सूर्यवंशिय आर्यो यहाँ आकर बस गये और इसका अर्कतीर्थ' अथवा 'भास्करतीर्थ' नामकरण कीया । इसके अनेक वर्षों बाद चंद्रवंशीय क्षत्रियोंने अपना प्रभुत्व स्थापित करके इसका नाम 'सोमतीर्थ या चंद्रतीर्थ' कर दिया। पुनः चंद्रवंशीय और सूर्यवंशीयमें मतऐक्य होने पर इस पवित्र तीर्थ का नाम 'प्रभास तीर्थ' प्रख्यात हो गया।
प्रभास प्रभास नामकरण के विवरणमें स्कंद पुराणमें वर्णन है की दक्षके शाप मुक्ति के प्रयास में चंद्रमाने यहाँ शिव की तपस्या की। शिवजीके वरदानसे अपनी नष्ट प्रभाए पुन: चंद्रने प्राप्त कर लिया इससे यह तप क्षेत्र प्रभासतीर्थ प्रख्यात हुआ। महाभारतमें यह प्रभासतीर्थ, भास्करतीर्थ, अर्कतीर्थ, सोमतीर्थ, आनर्तसार आदि नाम है। स्कंद पुराणमें यह सरस्वतीतीर्थ, शिवपटन नाम है। जैन ग्रंथोमें चंद्रप्रभास पाटण नाम लिखा है
प्राचीन गुजराती साहित्यमें प्रभासका देव पटन, प्राची पाटण नाम है । प्राचीन शिलालेख अनुसार सोमपुरा (वि.स.१२२०),हरनगर(वि.स.१२७२),शिवनगर (वि.स.१२७५), विलविलपुरपाटन(वि.स. १३२०), सुरपतन (वि.१३२८),सोमनाथपुरम्(वि.१४३७)नाम भी दिये गये है। 
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प्रभास क्षेत्र की महिमा 
महाभारतकालिन प्रभास 
प्रिय पाठक अपने पौराणिक ग्रंथ 'महाभारत' में प्रभास एक बडा आदरणीय पवित्र तीर्थ बताया है। महाभारतमें लिखा है की सरस्वती वडवानल अग्नि को साथ बहाती हुई लौटकर पूर्वाभिमुख हो गई और गंगाजीकी सहायताके साथ लौटती देवों के शत्रु वडवानल अग्निकों इस पश्चिम सागरमें मिला दीया इसलिए यह सागर देवोंका प्रभास तीर्थ है । (वन पर्व-१)
 सरस्वती पूर्वाभिमुखो भूत्वा प्रभासतीर्थो मुखी भवेत । 
महाभारतमें लिखा है की तीर्थोमें श्रेष्ठ प्रभास नामक महान तीर्थ प्रसिद्ध है (शल्य पर्व-३५) यह प्रभासमें सर्व यादव विहार करते रहते थे। कृष्णबलदेवने प्रभासकी यात्रा की थी। - इस तीर्थमें पाँडवोंने वनवास का कुछ समय वहन कीया था । यहाँ पर पाँडव और कृष्ण ज्ञानवार्ता कीया करते थे (वन पर्व)। वर्तमानमें यह स्थान पर पाँडवों की प्रतिमा, हींगलाज माताकी गुफा और ज्ञानवापी है । महाभारतके मौसल पर्वमें यादवों के पतनकी करुण कथा का विस्तृत वर्णन है।
पुराणवर्णित प्रभास 
वामन, कूर्म, गरुड, भविष्य, मत्स्य, पद्म, विष्णु, इत्यादि पुराण समूहों में, श्रीमद्भागवत तथा देवी भागवत में प्रभासतीर्थ की महती महिमा मंडित है। स्कंद पुराणमें एक पूर्ण खन्डमें यह वंदनिय रुपमें समावेशीत है । अनुमानत प्रभास खन्डका रचनाकाल इंसाकी सातवी-आठवी शताब्दी है। इसमें प्रभासक मंदिरो एवं तीर्थ स्थलोका विशद वर्णन है।
स्कंदपुराण  प्रभास खंड कथाक्रम 
प्रभास खंड विशद कथा, लघु कथा, आख्यानो से परीपर्ण है। यहाँ इसकी प्रचलित कथाका वर्णन प्रस्तुत है। स्कंदपुराण  प्रभास खंड में भगवान सोमनाथ के ज्योतिर्लिंगका प्राक्टय और प्रतिष्ठा क्रममें वर्णित है। पुराण कथा अनुसार एक दिन कलानिधान चंद्र महाराज अपनी मनस्वीतासे अपनीही प्रभाए - तेज खो बैठा।
दक्षमहाराजने अपनी २७ कन्याओंका विवाह चन्द्रदेवके साथ किया था। यह २७ बहनें थी जिनमें रोहिणी अति सुंदर थी। इसके प्रति चन्द्रमाका विशेष अनुराग रहता था। इसलिए दुसरी २६ पत्नीओंके साथ चन्द्रमाका वियोग रहता था । चन्द्र महाराजकी यह नक्षत्र नाम वाली छब्बीस असन्तुष्ठ पत्नीयोंके नाम इस प्रकार है
अश्विनी, भरणी, कृतिका, मृगशीर, आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त,चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, जयेष्ठा, मुल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभीजित, श्रवण, घनीष्ठा, शतभीषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपदा और रेवती।
- यह सभी बहेने थी जब सभी बहेने साथ मिलकर अपने पिता दक्ष के पास गई। पिता को असंतोष और नाखुशीके बताया की प्रियतम चन्द्र सदा रोहिणी के साथ प्रेममग्न रहते  है । इसलिए श्वसुर दक्षने जमात्र चन्द्रराज को समजाया सबक साथ मिलते रहो और कीसी भी पत्नीको नाखुश मत करो फिर भी चन्द्रमाने श्वसुर दक्षकी अवहेलना की और रोहिणी के प्रति अपना अनुराग नहीं छोड़ा।  चन्द्रसे अपमानीत छब्बीस दक्ष कन्याओंको साथ रखकर दक्ष महाराजने चन्द्रमाको बहुत समझाया पर उसके उपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । आखिरमें दुःखी पिता दक्षने चन्द्रमाको श्राप दे दिया 'हे चन्द तुम्हारा क्षय हो जाव' फलत: चन्द्रमा क्षयी हो गया।
क्षयी चन्द्रमा अपनी सुधावर्षा पृथ्वी उपर बरसाने में असमर्थ हो गया । चराचरमें त्राहि-त्राहि पुकार होने लगी पृथ्वीमें औषध और अन्न रस हीन हो गये। प्रजाको मृत:प्राय बन जानेको रोकनेसे प्रजापिता ब्रह्माजीने चन्द्रको इस प्रभास क्षेत्रमें शिवजीकी आराधना करनेका आदेश दीया। पितामहकी आज्ञा अनुसार रोहीणीके साथ चन्द्रमा रोग मुक्ति की आशा लिए इन्द्र आदी देवों और वसिष्ठ आदी ऋषिमुनी के साथ इस क्षेत्र में मृत्युञ्जय भगवान् की अर्चनाका अनुष्ठान आरंभ कर दिया । मृत्युञ्जय मंत्र से पूजा और जप होने लगा निरंतर जप और तपसे भगवान आशुतोष प्रसन्न हो गये, प्रकट होकर चन्द्रमा को कहा की, हे चन्द्र ! दक्ष के श्राप निवारणार्थ मेरे ही प्रभा मंडलमें तुम्हारे तप मंत्र अनुष्ठानसे में प्रसन्न हुँ। लेकिन दक्षके श्रापसे तुम्हे पूर्ण मुक्ति संभव नहीं है । तथापि में तुम्हे फिर तेजोमय करता हुँ । तुम्हारी एक एक कला बढ जाया करेगी। जब तुम पूर्ण कलायुक्त बन जाओगे तब संपूर्ण प्रभायमान बनकर पृथ्वी पर अमृतवर्षा करनेमें समर्थ हो जाओगे।
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प्रभास क्षेत्र की महिमा 
लेकिन दक्षराज के वचनके प्रभाव से फिर अंशत: एक एक कला कम होती रहेगी, फलत: तुम्हारा जब क्षय होगा,
मेरे वचन अनुसार फिर तुम्हारी कला बढती रहेगी और संसार में तम संपूर्ण प्रभा युक्त हो जाया करोगे यह वचन देता हूँ। फिर चन्द्र महाराजने शिवजीको नमस्कार कीया और स्वयंभु महादेवका ज्योतिर्लिंग जो सूर्यदेवकी किरणोंके समान देदीप्यमान था । चन्द्रमाने इसे सादर ब्रह्मशिलाके उपर अवस्थित कर स्थापित कर दीया । कृपानिधान शिवजीने अर्ध चन्द्रको अपने पास स्थान दे दीया । और इस प्रकार चन्द्रके प्रभू अर्थात सोमनाथ कहलाए । चन्द्रके स्थापित स्वर्णमय मंदिर में भगवान शिव सनातन ज्योतिर्लिंग स्वरुप में स+उमा सहित सदाके लिए अवस्थित हो गये और सोमनाथ' नामसें प्रसिद्ध बन गये।
ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुसे । 
श्रेयः प्राप्तिनिमिताय नम: सोमार्धधारिणे ।।
शुद्ध ज्ञानमय देहस्वरुपवाले, तीन वेद जीनके नेत्र है। कल्याण प्राप्तिके हेतुवाले अर्धचन्द्रको धारण करनेवाले शिवजीको नमस्कार। प्रिय पाठक पुराण कथा जो भी हो फिरभी आज भी ज्ञानिक मान्यतानुसार चन्द्र परप्रकाशित माना जाता है। इस प्रकार चन्द्र महाराज पूर्णिमा और अमावस्या के घोर अधेरेसे-ऊजालेमें शिवजीकी कपासे उदयास्त होते रहते है। काल गणनामें अनिर्णित समय काल होने से यह सौराष्ट्र मनाथं प्रथम-आद्य ज्योतिर्लिंग माना गया है। राणक अन्य कथाक्रममें महर्षि दधिचिका आख्यान है। नारदेवासुर संग्राममें विजय प्राप्त करनेके लिए देवताओने दधिचि से उनकी हड्डीयोंका दान माँगा। दधिचिने देवताओंकी प्रार्थना स्वीकार कर समाधी लगाकर योग क्रीयासे शरीर त्याग कर दिया । महर्षि दधिचिकी हड्डीयोंसे इन्द्रने अपना वज निर्मित कराया, अन्य देवताओंने अपने अपने विभिन्न शस्त्र निर्मित करायें। 1. इस घटनाके दिर्घ समयके बाद मुनीवर दधिचिके पुत्र पिपलादथे, उन्हें युवावय होने पर जब इस प्रकार देवोंके लिये अपने पिता के दु:खद अंत का पता चला, तब उन्होंने घोर तप करके वडवानल अग्निका वरदान प्राप्त कर लिया, और पुन: देवोंका विनाश का आदेश दे दीया। - वडवानलकी तेजोमय अग्नि शिखासे स्वर्ग भर गया। अग्निने देवोंको कहाँकी हे देवगण में वडवानल अग्नि हुं । आपमे से पहले कीसका भक्षण करु?? इस विपतिसे भयभीत होकर सब देवता विष्णुकी शरणमें रक्षा याचना लेकर गये। श्री विष्णुसे परामर्स करके वडवानलसे वर माँगा की आप शुचिमुख अर्थात सुईका मुख जैसा कद बनाकर सबसे पहले वरुण देवका भक्षण करे। वडवानलने एवमस्तु' कहा और बताया की सबसे पहीले तुम ही वरुणके पास मुझे ले चलोगे !!! । देवोंकी सहायतार्थ माता गंगाजीने तब सोना कुंभमें शचिमख वडवानलको रखकर वरुण याने सागरके पास पहँचाने के लिये सरस्वतीको पृथ्वी पर ले जाने के लिये कहाँ।
हिमालयसे बहती हुइ सरस्वती यहाँ तक आयी तब वडवानल के दु:सह तापसे पूर्वाभिमुख होकर माताका सहायतार्थ स्मरण किया, तब गंगाजी सब तीर्थोके जल प्रवाह के साथ सरस्वतीके पास प्रकट हो गये। 
गंगाजीकी सहायताके साथ वापस लौटती सरस्वतीने देवोंके शत्रु वडवानल अग्निको यहाँ पश्चिम महासागरमें मीला दिया। देवोंका संकट दुर हो गया और यह सागर देवोंका तीर्थ 'प्रभास' इसीलिये है। प्रिय पाठक पुराण कथा जो भी हो फिरभी आज भी वैज्ञानिक मान्यतानुसार इस महासागरके दक्षिणधृव तक बहता जल सेलाब सदाय गर्म-उष्ण ही रहता है। यहाँ के सागर तट पर वर्षाऋतुमें शुचिमुख अग्नि ब्ल्यु ज्योतका दिखाइ पडता है,और जब भी कोई भी जीव या मनुष्य के शरीरके साथ संपर्क होते ही आग की जलन महसुस होती है। प्राची संस्कृत शब्द है, अर्थात पूर्व दिशा । वर्तमान प्रभासके समीप २४की.मी. पूर्वमें पूर्वाभिमुख सरस्वती 'प्राची तीर्थ' की स्थिती मानी जाती है। पूर्वाभिमुख सरस्वतीके स्थान पर विष्णुकी प्रतिमा लक्ष्मीजीके साथ बिराजमान है। स्थानीय क्षेत्रमें वह माधवरायजीके नामसे प्रसिद्ध है।
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प्रभास क्षेत्र की महिमा 

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