ब्रह्म को जानने के बाद ब्रह्म को प्राप्त होता है जीव
(बृह० अ० ३ ब्रा० ८ ) __हे गार्गि ! जो कोई इस लोकमें इस अक्षरको न जानकर हवन करता, यज्ञ करता और अनेकों सहस्र वर्षपर्यन्त तप करता है, उसका वह सब कर्म अन्तवान् ही होता है। जो कोई भी इस अक्षरको बिना जाने इस लोकसे मरकर जाता है, वह कृपण ( दीन ) है और हे गार्गि ! जो इस अक्षरको जानकर इस लोकसे मरकर जाता है, वह ब्राह्मण है।( बृह० अ० ३ ब्रा० ८ ) हे गार्गि ! यह अक्षर स्वयं दृष्टिका विषय नहीं, किंतु द्रष्टा है। श्रवणका विषय नहीं, किंतु श्रोता है; मननका विषय नहीं, किंतु मन्ता है। स्वयं अविज्ञात रहकर दूसरोंका विज्ञाता है। इससे भिन्न कोई द्रष्टा नहीं है, इससे भिन्न कोई श्रोता नहीं है, इससे भिन्न कोई मन्ता नहीं है। इससे भिन्न कोई विज्ञाता नहीं है। हे गार्गि ! निश्चय इस अक्षर में जगत समाया हुआ है |
(बृह० अ० ४ ब्रा० ३ ) वह जो मनुष्योंमें सब अङ्गोंसे पूर्ण, समृद्ध, दूसरोंका अधिपति और मनुष्यसम्बन्धी सम्पूर्ण भोग-सामग्रियोंद्वारा सबसे अधिक सम्पन्न होता है, वह मनुष्योंका परम आनन्द है। अब जो मनुष्योंके सौ आनन्द हैं, वह पितृलोकको जीतनेवाले पितृगणका एक आनन्द है । और जो पितृलोकको जीतनेवाले पितरोंके सौ आनन्द हैं, वह गन्धर्वलोकका एक आनन्द है तथा जो गन्धर्वलोकके सौ आनन्द है, वह कर्मदेवोंका, जो कि कर्मके द्वारा देवत्वको प्राप्त होते हैं, एक आनन्द है। जो कर्मदेवोंके सौ आनन्द हैं, वह आजान ( जन्म-सिद्ध ) देवोंका एक आनन्द है और जो निष्पाप, निष्काम श्रोत्रिय है ( उसका भी वह आनन्द है)। जो आजानदेवोंके सौ आनन्द हैं, वह प्रजापतिलोकका एक आनन्द है और जो निष्पाप, निष्काम श्रोत्रिय है, उसका भी वह आनन्द है। जो प्रजापतिलोकके सौ आनन्द हैं, वह ब्रह्मलोकका एक आनन्द है और जो निष्पाप, निष्काम श्रोत्रिय है, उसका भी वह आनन्द है तथा यही परम आनन्द है । हे सम्राट ! यह ब्रह्मलोक है।
(बृह० अ० ४ ब्रा० ४) जो अकाम, निष्काम, आप्तकाम और आत्मकाम होता है, उसके प्राणोंका उत्क्रमण नहीं होता, वह ब्रह्म ही रहकर ब्रह्मको प्राप्त होता है।