भगवान् की आज्ञानुसार अक्रूर जी पाण्डवों का समाचार लेने के लिए हस्तिनापुर गए । धृतराष्ट्र पाण्डवों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, यह जानने के लिए वहाँ कुछ महीने तक रहे और जब उन्होंने समया लिया कि धृतराष्ट्र में अपने पुत्रों की इच्छा के विपरित कुछ भी करने का साहस नहीं है तथा पाण्डु पुत्रों के साथ इनका व्यवहार उचित नहीं है --- तब उन्होंने एक दिन धृतराष्ट्र से कहा -
भो भो वैचित्रवीर्य त्वं कुरूणां कीर्तिवर्धन ।
भ्रातर्युपरते पाण्डावधुनाऽऽसनमास्थितः ।।
महाराज धृतराष्ट्र आप कुरूवंश की कीर्ति को बढ़ाइये, आप अपने भाई पाण्डु के परलोक सिधार जाने पर राज्य सिंहासन के अधिकारी हुए हैं इसलिए -
धर्मेण पालयन्नुर्वी प्रजाः शीलेन रञ्जयन् ।
वर्तमानः समः स्वेषु श्रेयःकीर्तिमवाप्स्यसि ।।
आप धर्म से पृथ्वी का पालन कीजिए, अपने सद्व्यवहार से। को प्रसन्न रखिए और अपने स्वजनों के साथ समान बर्ताव कीजिए ऐसा करने से आपको इस लोक में यश और परलोक में सद्रति प्राय होगी ।
अन्यथा त्वाचल्लोके गर्हितो यास्यसे तमः ।
तस्मात् समत्वे वर्तस्व पाण्डवेष्वात्मजेषच ।।
यदि आप इसके विपरित आचरण करेगे तो इस लोक में आपकी निन्दा होगी और मरने के बाद नरक में जाना पड़ेगा । इसलिए पाण्ड पुत्रों के और अपने पुत्रों के साथ समानता का व्यवहार कीजिए।
नेह चात्यन्तसवासः कर्हिचित् केनचित् सह ।
राजन् स्वेनापि देहैन किमुजायात्मजादिभिः ।।
यह तो आप भी जानते हैं कि इस संसार में कहीं कोई किसी के साथ सदा नहीं रह सकता । जिनके साथ रहते हैं उनसे एक दिन अलग शरीर भी एक दिन त्यागना पड़ेगा फिर होना पड़ेगा । राजन् ! ये अपना शरीर भी एक दिन त्य शरीर के सम्बन्धियों की तो बात ही क्या है ।
एक: प्रसूयते जन्तु: एक एव प्रलीयते ।।
एकोऽनुभुङ्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम् ।।
यह जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मर जाता अपने किए हुए पाप पुण्य का फल भी अकेले ही भोगना पड़ता है और आप का फल जो दुःख है वह तो उसी को ही भोगना पड़ेगा ।
पुष्णाति यानधर्मेण स्वबुद्ध्या तमपण्डितम् ।
तेऽकृतार्थ प्रहिण्वन्ति प्राणा रायः सुतादयः ।।
यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता पोषता है, वे प्राण, धन, पुत्र आदि इस जीव को छोड़कर चले जाते हैं।
स्वयं किल्विषमादाय तैस्त्यक्तो नार्थकोविदः ।
असिद्धार्थो विशत्यन्धं स्वधर्म विमुखस्तमः ।।
और वह अपने पापों की गठरी सिर पर लादकर स्वयं घोर नरक जाता है ।
तस्माल्लोकमिमं रालन् स्वप्नमायामनोरथम् ।
वीक्ष्यायम्यात्मनात्मानम् समः शान्तो भवप्रभो ।।
इसलिए महाराज यह बात समझ लीजिए कि यह संसार स्वप्न के समान है, जादू का खेल है, मनोराज्य मात्र है । इसलिए आप मन को वश में करके, ममतावश पक्षपात न कीजिए । समत्व में स्थित संसार से उपरत हो जाइए ।
यथा वदति कल्याणी वाच दानपते भवान् ।
तथानया न तृप्यामि मत्येः प्राप्य यथामृतम् ।।
धृतराष्ट्र बोले अक्रूर जी आप मेरे कल्याण की भले ही बात हैं जैसे कोई अमृत से तृप्त नहीं होता वैसे ही आपके वचनों से, दी। फिर भी मेरे चंचल चित्त मे आप का उपदेश ठहरता नहीं नहीं हो रही । फिर भी मेरे चंचल चित्त में आप क्योंकि मेरा हृदय पुत्रों की ममता के कारण अत्यन्त विषम हो गया
ईश्वरस्य विधि को नु विधुनोत्यन्यथा पुमान् ।
भूमे रावताराय योऽवतीर्णो यदोः कुले ।।
अक्रूर जी मैंने सुना है कि सर्वशक्तिमान् भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं । ऐसा कौन पुरूष है जो उनके विधान में उलट फेर कर सके । उनकी जैसी इच्छा होगी वही होगा ऐसा कहकर धृतराष्ट्र चुप हो गए ।
। धृतराष्ट्र को श्री अक्रूर का उपदेश ।
dhritarashtra ko akrur ka updes