[ ब्रह्मसूक्तिः ]
सुक्तिसुधाकर
शिक्षा के नीति श्लोक अर्थ सहित (Niti Sloka)
सत्य जिनका व्रत है, जो सत्यपरायण, तीनों कालमें सत्य, सत्य (भाव) स्वरूप, संसारके उद्भवस्थान और अन्तर्यामीरूपसे सत्य (संसार) में निहित हैं तथा सत्य और ऋत जिनके नेत्र हैं, उन सत्यके सत्य आप सत्यस्वरूपकी हम शरण हैं ॥
नमस्ते सते ते जगत्कारणाय नमस्ते चिते सर्वलोकाश्रयाय।
नमोऽद्वैततत्त्वाय मुक्तिप्रदाय नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय॥
हे प्रभो! जगत्के कारणरूप और सत्स्वरूप आपको नमस्कार है, सर्वलोकोंके आश्रयभूत ज्ञानस्वरूप आपको नमस्कार है, मोक्षप्रद अद्वैततत्त्वरूप आपको नमस्कार है, शाश्वत और सर्वव्यापी ब्रह्मको नमस्कार है॥
त्वमेकं शरण्यं त्वमेकं वरेण्यं त्वमेकं जगत्पालकं स्वप्रकाशम्।
त्वमेकं जगत्कर्तृ पात प्रहर्त त्वमेकं परं निश्चलं निर्विकल्पम्॥
आप ही एक शरण लेने योग्य हैं, आप ही एक वरण करने योग्य हैं, आप ही एक जगत्को पालन करनेवाले तथा स्वप्रकाशस्वरूप हैं, इस जगत्के कर्ता, रक्षक और संहारक भी आप ही हैं तथा सबके परे निश्चल और निर्विकल्प ब्रह्म भी आप ही हैं ॥
आप भयको भी भय देनेवाले हैं, भीषणोंके लिये भी भीषणरूप हैं, प्राणियोंकी परम गतिस्वरूप और पवित्रको भी पवित्र करनेवाले आप ही हैं, आप सर्वोत्तम पदके नियन्ता, परके भी परे और रक्षकोंके भी रक्षक हैं ॥
हम एक आपका ही स्मरण करते हैं, आपका ही भजन करते हैं, जगत्के साक्षीरूप एक आपको ही नमस्कार करते हैं, आप ही एकमात्र सत्यस्वरूप हैं, निधान हैं, अवलम्बनरहित हैं, इसलिये संसार-सागरके नौकारूप आप ईश्वरकी हम शरण लेते हैं॥
'अन्वयव्यतिरेकसे जो जगत्की सृष्टि, स्थिति और प्रलयके कारण सिद्ध हैं, सर्वज्ञ हैं, स्वप्रकाश हैं, जिन्होंने आदिपुरुष ब्रह्माको वेदोपदेश दिया, जिनको जानने में विद्वान् भी मोहित हो रहे हैं, जिनके सकाशसे पृथ्वी, जल और तेजोमय संसार सत्य-सा दीख पड़ता है, ऐसे अपने तेजसे अज्ञानको नाश करनेवाले परमार्थ सत्य परमेश्वरका हम ध्यान करते हैं॥
ब्रह्मा दक्षः कुबेरो यमवरुणमरुद्वह्निचन्द्रेन्द्ररुद्राः
शैला नद्यः समुद्रा ग्रहगणमनुजा दैत्यगन्धर्वनागाः।
द्वीपा नक्षत्रतारा रविवसुमुनयो व्योम भूरश्विनौ च
संलीना यस्य सर्वे वपुषि स भगवान् पातु नो विश्वरूपः॥
जिनके शरीरमें-ब्रह्मा, दक्ष, कुबेर, यम, वरुण, वायु, अग्नि, चन्द्र, इन्द्र, शिव, पर्वत, नदी, समुद्र, ग्रह, मनुष्य, दैत्य, गन्धर्व, नाग, द्वीप, नक्षत्र, तारा, सूर्य, वसु, मुनि, आकाश, पृथ्वी और अश्विनीकुमार आदि सभी लीन हैं, वे विश्वरूप भगवान हमारा कल्याण करें॥
अम्भोधिः स्थलतां स्थलं जलधितां धूलीलवः शैलतां
मेरुम॒त्कणतां तृणं कुलिशतां वज्रं तृणप्रायताम्।
वह्निः शीतलतां हिमं दहनतामायाति यस्येच्छया
लीलादुर्ललिताद्भुतव्यसनिने देवाय तस्मै नमः॥
जिसकी इच्छामात्रसे समुद्र स्थलरूप और स्थल समद्ररूप हो सकता है, धूलिकण पर्वतसदृश और मेरुपर्वत धूलिके सदृश हो सकता है, तण वज्ररूप और वज्र तणरूपमें परिणत हो सकता है तथा अग्नि शीतल और बरफ अग्निवत दाहक हो सकता है; उस विचित्र लीला-रसिक देवको नमस्कार है
नीति संग्रह- मित्र लाभ:
शिक्षा के प्रेरक श्लोक अर्थ सहित-ब्रह्मसूक्तिः,