F गंगासागर के स्नान से मुक्ति,गंगासागर का महत्व,सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार,story of Gangasagar - bhagwat kathanak
गंगासागर के स्नान से मुक्ति,गंगासागर का महत्व,सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार,story of Gangasagar

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गंगासागर के स्नान से मुक्ति,गंगासागर का महत्व,सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार,story of Gangasagar

गंगासागर के स्नान से मुक्ति,गंगासागर का महत्व,सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार,story of Gangasagar
गंगासागर का महत्व
सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार
गंगासागर-स्नान से वास्तव मे मुक्ति मिलती है? गंगासागर तीर्थ के पावन सलिल में गतानुगतिक भाव से स्थूल भौतिक स्नान की प्रक्रिया से क्या वास्तव में मुक्ति की प्राप्ति होती है? अनन्त पापों का तत्क्षण खण्डन केवलमात्र स्नान से ही क्या संभव है? नहीं, यह कदापि संभव नही। आचार्य शंकर ने सुसलित छन्द में गंगा की स्तुति की थी। उन्होने ही अन्य स्थान पर कहा है-ज्ञान के बिना, गंगासागरस्नान, से शत जन्मों में भी मुक्ति नहीं मिलती। मुक्ति व्रत-प्रतिपालन या दान आदि कर्मो द्वारा भी संभव नहीं है
कुरुते गंगासागरगमनं व्रतप्रतिपालन अथवा दानम्।
ज्ञानविहीने सर्वमनेन मुक्ति न जन्मशतेन॥ 
भक्ति तो वांछनीय है ही, उसके साथ ही इन्द्रियों का निग्रह करके काम पर विजय भी प्राप्त करनी होगी, साथ ही साथ निवृत्ति, योग एवं अतीन्द्रिय ज्ञान की साधना निष्ठापूर्वक करना भी वांछनीय है। संसार में दुःख है, अयोध्या के सम्राट सगर को भी था। मातृगर्भ में भी उन्हें विष देकर मारने की चेष्टा की गयी थी। यद्यपि मुनि की कृपा से उनके प्राणों की रक्षा हुई और वे समस्त धरित्री के सम्राट हुए, तथापि उन्हें सुख कहाँ मिला? एक पुत्र असमंजम विपथगामी हुआ, फलस्वरूप उसे त्याग दिया। दैवी कुचक्र से उनका यज्ञ भंग हुआ, जिससे और दुःख और अशान्ति बढ़ी। इसके पश्चात् साठ हजार पुत्रों की अकाल मृत्यु-उनके दु:ख की परिसीमा कहाँ है? मृत पुत्रों की मुक्ति की चिन्ता में ही राजा का सारा जीवन गल गया। सकाम अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा उन्होंने इच्छा की थी कि उन्हें ऐश्वर्य एवं स्वर्ग की प्राप्ति होगी। किन्तु साठ हजार पुत्रों के वियोग ने उनके मन में विशुद्ध वैराग्य के भाव उत्पन्न कर दिया -उन्हाने प्रवत्ति का मार्ग छोड़कर निवृत्ति का मार्ग अपनाया। उनके लिए स्वर्ग की अपेक्षा कैवल्य का मार्ग ही श्रेष्ठ था। महामुनि कपिल ने राजा की साठ हजार सन्तान का नाश उन्हें अपवर्ग की चेतना देने के लिए ही किया था। नाश नही, कपिलदेव लाना चाहते थे अमर जीवन। युगाचार्य स्वामी प्रणवानन्दजी महाराज ने कहा था- “मृत्यु-चिन्ता मानव की रिपु की, उत्तेजना एव इन्द्रियों के उत्पीडन से रक्षा करती हैं। मृत्यु-चिन्ता मनुष्य के भीतर विषय-वासना का नाश करके विवेक-वैराग्य को जगा देती है-भोग-विलास की स्पृहा का नाश करके मनुष्य के अन्तर में विवेकवैराग्य जगा देती है।" एक समय राजा सिद्धार्थ भी इसी मृत्यु-चिन्ता के प्रभाव से ही राजमुख का त्याग कर निर्वाण की खोज में निकल पड़े थे। साठ हजार पुत्रों के मृत्युशोक ने. निश्चय ही. राजा के मन में अथवा चित्त में निर्वेद भाव की सृष्टि की होगी। मृत्यु का यही शोक इक्ष्वाकुवंशीय नृपतियो के मन में घनीभूत होकर बस गया था, जिससे उनका मन वैराग्य से मंडित हो गया था। प्रेय नही, वे व्रती थे श्रेय के! सगर, अंशुमान, दिलीय पौन्त राजाओं का यही इतिहास रहा। दिलीप के बाद भगीरथ के जीवन में आयी चुणान्त साधन-सिद्धि। संत्रियों के ऊपर राजपाट का भार छोड़कर वे तपस्या के लिए गोकर्ण क्षेत्र में चले गये थे। सांख्य से उन्हें मिला था निर्वाद ; अब योगशक्ति द्वारा सुप्त कुण्डलिनी को जागृत करेंगे।
गंगासागर का महत्व
सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार
भगीरथ का अर्थ है उत्तमांग विशिष्ट । ज्ञान-वीर्य-वैराग्यादि षड्तत्वों से मंडित था उनका तनुरथ, इसी कारण वे कहलाये भगीरथ। सर्वसुलक्षणयक्त योग-शक्ति का यही योग्य आधार है। अपनी सत्ता की चैतन्य भूमि पर इडा-पिंगला-सषम्ना-त्रय नाड़ीरूपी त्रिपथगामिनी गंगा को अवतरित करेंगे। ये तीनों नाड़ियाँ ब्रह्मरन्ध्र में सुप्त अवस्था में है-वही है ब्रह्मा का वरकमण्डल। यही तो योगियो का मूलाधार चक्र है। योगी का कठोर कच्छप आरंभ हुआ-संयत-चित्त, संयताचार, ब्रह्मचर्य-निष्ठ हुए वे। उन्होने कठोर तपस्या की-ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि के मध्य खडे होकर, हेमन्त में जलमग्न होकर, वर्षा में मुक्त आकाश के तले खड़े होकर। सब ऋतुओं में ही वृक्षों से स्खलित पत्रों का आहार करके कुछ काल तक तपस्या की, फिर पैरो के अंगूठों पर खड़े हैकर तपस्या की। ऊर्ध्वबाहु, निजालम्ब होकर, वायु का भक्षण करके वे कुछ काल तक रहे। साधक की इसी कच्छ्र साधना से ब्रह्मा के कमण्डलु में बंद महाप्रकृति-स्वरूपा निस्तरंगा गंगा ने मुक्ति पायी थी। अर्थात् कुलकुण्डलिनी महाशक्ति ने ब्रह्म ग्रन्थि का भेदन किया था। गर्जन करते-करते वह प्रवाह बढ़ चला सहस्त्रार की ओर-महा-अमृत समुद्र की ओर। विष्णु-वाहन गरुड़ ने तो पहले ही विष्ण-ग्रन्थि के भेदन का उपदेश दिया था।
गंगासागर का महत्व
सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार
सुतरां, विष्णुपदी गंगा का मुक्तिरुपी प्रसाद साधक को कठोर तप के फलस्वरूप मिला। विष्णु अनन्त करुणामय हैं, विष्णुपदी माँ भी अशेष करुणामयी है। किन्तु सर्वशेष में रुद्रग्रन्थि के भेदन के लिए साधक को पुनश्च तपश्चर्या में व्रती होना होगा। भगवती गंगा अर्थात् कुलकुंण्डलिनी शक्ति शिव की घनी जटाओं में बन्दी हो गये हैं। तपसंतुष्ट शंकर अपनी जटाओं की जटिल ग्रन्थि छित्र करके गंगा अर्थात् कुलकुण्डलिनी शक्ति का निर्गमनपथ मुक्त करते हैरुद्रग्रन्थि खुल जाती है। यहीं पर साधक के आत्मा का यथार्थ गंगा-सागर संगम है। इस संगम-स्थल पर तुरीय अवगाहन आवश्यक है। इन्द्रियग्राह्य प्राकृतिक जगत की सीमा का अतिक्रमण करके स्वसत्ता में अवगाहन करना होगा। जीवात्मा और परमात्मा के मिलन का जो संधिस्थल है, मुख्यार्थ में उसे तत्त्वमय गंगासागर-संगम कहा जाता है। योगियों की परिभाषा में इसे ही द्विदलविशिष्ट अज्ञाचक्र कहते हैं। इसी चक्र में आत्मज्ञानोपदेष्टा, कृपा-कल्पतरु श्रीगुरुशक्ति का अधिष्ठान है। आदिज्ञानगुरु भगवान कपिल देव गंगासागर संगम में विराजमान है। इस रुपक को तोडिये एवं तत्त्वचिन्ता में अवगाहन करिये। केवलमात्र स्थुय भौगोलिक अर्थ में नही, सुक्ष्म अध्यात्म-दर्शन एवं यौगिक साधना के आलीक में इसका तात्पर्य अनुध्येय है। पुरुष का प्रकृति के बन्धन से मुक्त करने के लिए, त्रिविध दु:खों से जीवों को आत्यन्तिक निवृत्ति के लिए सांख्याचार्य रूप में, ज्ञानधन गुरु में भगवान कपिल इस तत्त्वज्ञान-सम्पृक्त महासागरसंगम पर, इस आज्ञाचक्र में, इस ज्योतिर्मय बिन्दुतीर्थ पर नित्य विराजमान रहते है। आत्मिक मुक्ति के प्रयोजन से, आज्ञाचक्र के उपर अवस्थित अवगाहन का संकेत सादर ग्राह्य है। तभी तो गंगासागर-स्नान सार्थक है ! इसके अभाव में तत्त्वज्ञानहीन, संयम-ब्रह्माचर्यहीन, तपश्चरणहीन, गतानुगतिक गंगासागर-स्नान हस्ति-स्नान के समान क्षणिक होगा।
गंगासागर का महत्व
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आज्ञाचक्र का ही योगीजन ज्योतिर्दित बिन्दु सरोवर कहते है। यही ज्ञानभूमि है। गंगा की सप्तधाराओं से सात विशेष ज्ञान-नाड़ियों का तात्पर्य है। जैसे सीताधारा = अध्यात्मदृष्टि ; नलिनीधारा = आत्मसत्ता का विकास; सिन्धुधारा = सहसार कमल से अमृत का स्वत: क्षरण ; कुचक्षुधारा = सर्वभूत में ब्रह्मदर्शन ('कु' अर्थात् आगाम-निगमादि वेदान्त का व्याख्यान): आह्लादिनी धारा-ब्रह्मानन्द-सुख ; पावनीधारा = परामुक्ति; भागीरथी धारा दिव्य दैहलाभ, सोग्हम् ज्ञान-प्रतिष्ठा, मत्ता की कैवल्यपद प्राप्ति।
इन समस्त निगूढ रहस्यो को जानकर, ज्ञानपूर्वक जो गंगासागर तीर्थ में स्नान करेंगे, उन्हें निश्चय ही मुक्ति की प्राप्ति होगी। युगाचार्य स्वामी प्रणवानन्द जी महाराज की तीर्थ-उद्धार के पीछे यही प्रेरणा थी। व चाहते थे, कि प्रत्येक तीर्थ आत्मिक मुक्ति की प्रेरणा का उत्स और ज्ञानीय ऐक्य का महासाधन-पीठ हो।
आज पौष की संग्रान्ति है-उत्तरायण है। देवयान का पथ अथति मुक्ति के आलोक से उज्ज्वल सरणि के द्वार खुल गये हैं। कामशक्ति मकर भी आज माथे पर जढ़ बैठा है, बल्कि वह बैठा है माँ गंगा के पदतल पर-मातृवशीभूत है। आदये, इस पुण्यक्षण में गंगा-सागर-संगम में योगस्थ होकर, एकाग्र चित्त से माँ गंगा की मोक्षदायिनी-भावमयी मूर्ति का ध्यान करें, उनका स्तवन करें--
चतुर्भुजां त्रिनेत्रां सर्वावयवभूषिताम्। 
स्लुकुम्भां सिताम्भोजां वरदामभयप्रदाम्।। 
श्वेतवस्त्रपरीधानां मुक्तामणिविभूषिनाम्। 
ततो ध्यायेत् सुरूपांज चन्द्रायुतसमप्रभाम्॥ 
चामरैर्वीज्यमा नास्न्च श्वेतच्छत्रोपशोभित्मम्॥ 
सुप्रसन्नां सुवदनां करुणानिजान्तराम्॥ 
सुआप्लावितभूपृष्ठामा गन्धानुलेपनां। 
त्रैलोक्यनमितां गंगा देवादिरभिष्टुतां॥
दिव्यरूपविभुषाज दिव्यमाल्यानुलेपनाम्॥ 
ॐ गंगायै नमः देवी गंगा चतुर्भूजा, त्रिनेत्रा, सर्वावयव-विभुषिता, रदमय कुम्भ एवं शवेतपद्म-धारिणी हैं। वे शवेतवस्त्र-परिहिता, मुक्तामणि-विभुषिता, अतिसुन्दरी, अयुत चन्द्र के समान प्रभायुक्ता हैं। वे चामर के द्वारा आन्दोलित,श्वेत छत्र से सुशोभिता, सुप्रसन्ना, सुबदना, करूणार्द्रचित्ता हैं। वे अपनी अमतोपम जस्तराशि द्वारा भुपृष्ठ को परिप्लवित कर रही हैं। वे गन्धद्रव्यों द्वारा चर्चित हैं। ऐसी देवी को त्रिलोक नमस्कार करता है। देवता जनकी वन्दना करते हैं। दिव्यमालानुलेपन से विभूषिता देवी को हम भी सर्वदा नमस्कार करते हैं, उनका ध्यान धरते हैं। हे मातः ! हे पतितोद्धारिणी गंगे। हमारी चेतना की भूमि को तुम अपने अमृतमय करुणा-जल द्वारा नित्य ही अभिषिक्त करो। इस अनित्य संसार के सुख-दुःखके अभिनय से जब शान्त होकर मै मृत्यूशय्या पर शायित हूँ, उस समय हे मातः, तम्हारी कलंकल माधुर ध्वनि का ही श्रवण कर सकुँ। उस अमृत के सिंचन से अभिषिक्त होकर हे मातः, हम तुम्हारे ही स्नेहिल अंग में नित्य आश्रय ग्रहण करें।
गंगासागर का महत्व
सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार
हे मातः ! तुम शंभु का निजस्व हो, उनके अंग से .एकात्म हो। तुम्हारा प्रसाद जिसे मिला, वह मृत्युञ्जय हुआ-उसे न यम का भय रहता है न मृत्यु का-मृत्यु तो उसके लिए प्राण-प्रयाण का उत्सव मात्र है। कारण, तुम्हारे तीर पर मरण के वरण से आनन्द और मुक्ति का लाभ होता है। इसी कारण मस्तक पर करंबद्ध प्रणाम करके कहता हूँ-माँ, मेरे अन्तिम समय में तुम्हारा पुण्य सलिल मेरे शरीर पर पड़े, मैं नारायण का नाम लेता-लेता एवं तुम्हारा स्मरण करता-करता ही अद्वैत हरिहरात्मकं ब्रह्म की पराभक्ति में, अचला भक्ति में लीन हो जाऊँ। मुझे परमगति की प्राप्ति हो
मातः शान्तति शम्भुसंगमिलिते मौलो निधायाञ्जलिं। 
त्वत्तीरे वपुषोऽवसानसमये नारायणाध्रिद्वयम्॥ 
त्वनाथ स्मरतो भविष्यति मम प्राणप्रयाणोत्सवे। 
भूयादभक्तिरविच्युता हरिहराद्वैतात्मिका शश्वतो॥
गंगासागर का महत्व
सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार

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