बद्रीनाथ के अन्य तीर्थों के बारे में
श्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath
भगवान श्री बद्रीविशाल की बद्रीपुरी में अनेक गुप्त एवं प्रकट तीर्थ हैं, जिनमें मुख्य तीर्थ स्थलों का वर्णन यहाँ किया जा रहा है। यात्रीगण बदरी विटपवासी भगवान श्री बद्रीविशाल जी के पुण्य दर्शनों के साथ-साथ अन्य धार्मिक स्थलों का दर्शन कर लाभ उठा सकते हैं। प्रत्येक धार्मिक स्थल का अपने आप में बहुत -महत्व है। मुख्य-मुख्य स्थलों का संक्षिप्त विवरण आगे दिया जा रहा है घंटा कर्णश्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath
यत्र विष्णुर्जवान्नाथस्तपस्तप्त्वा सुदारूणम्।
द्विधाकरोत् स्यमात्मानं नर नारायणाख्यया।।
सिद्ध क्षेत्रमिदं प्राहुऋषयो वीत मत्सराः।
विशालां बदरी विष्णुस्तां द्रष्टुं सकलेश्वरः।।
(श्री हरिवंश 5 स्क. 21, 29 श्लोक)
हरिवंश पुराण में घंटा कर्ण की सुन्दर कथा का विस्तार से वर्णन किया गया है। घंटा कर्ण भगवान श्री बद्रीनाथ के द्वारपाल या कोतवाल हैं। श्री बद्रीनाथ के मंदिर में दाहिनी ओर परिक्रमा में बिना धड़ की एक मूर्ति है, यहीकर्ण की मूर्ति है। घंटा कर्ण कौन थे और भगवान के कोतवाल किस प्रकार हुए हरिवंश पराणान्तर्गत इनकी कथा इस प्रकार है* घंटा कर्ण रुधिर, मांस खाने वाला हिंसक पिशाच था। साथ ही वह शिवजी का अनुचर और अनन्य भक्त था। वह निरन्तर शिवजी का ही ध्यान करता था, अन्य किसी देवी-देवता का नाम भी उसकी जुबान पर नहीं आता था। भगवान नारायण का तो वह सख्त विरोधी था। वह अपने दोनों कानों में बड़े-बड़े घंटा बाँधे रहता था कि कहीं उसे भगवान नारायण का नाम सुनाई न दे जाए। हजारों वर्षों तक उसने अनन्य भाव से शिवजी की आराधना की। उसकी आराधना से प्रसन्न होकर शिवजी ने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। घंटा कर्ण ने कहा- 'हे देवाधिदेव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे मुक्ति प्रदान कीजिए।' । इस पर मुक्तिदाता कैलाशपति शिवजी ने सोचा- 'अभी इसके मन में मेरे तथा नारायण के प्रति भेदभाव है और भेदभाव रखने वाला भक्त मुक्ति का अधिकारी नहीं हो सकता।' यही सोचकर उन्होंने घंटा कर्ण से कहा- 'वत्स ! तुम मुझसे धन, ऐश्वर्य अथवा कोई भी वस्तु मांग लो, पर मैं मुक्ति नहीं दे सकता। मुक्ति के एकमात्र दाता तो श्रीमन्नारायण हैं यदि तुम्हें मुक्ति की कामना है तो तुम उनकी शरण में जाओ। ___ यह सुनकर घंटा कर्ण चौंक गया। वह कहने लगा- 'हे भगवन् ! मुझे धन, ऐश्वर्य या किसी अन्य वस्तु की लालसा नहीं है। मैं तो एकमात्र मुक्ति का इच्छुक हूँ। आप जिन बैकुण्ठनाथ श्री मन्नारायण को मुक्तिदाता बताते हैं, मैं तो सदा उनका विरोधी रहा हूँ। मैं तो उनका नाम भी नहीं सुनता था, इसलिए अपने कानों में बड़े-बड़े घंटा बाँधे रहता था। अब इस पाप का प्रायश्चित कैसे हो सकेगा? मुझ नारायणद्रोही को भगवान कहाँ दर्शन देंगे?' यह कहकर वह जोर-जोर से रोने लगा। शिवजी ने कहा- 'वत्स ! तुम घबराओ मत। श्रीमन्नारायण भक्तवत्सल हैं, वे सच्चे मन से शरण में आये हुए के सब अपराध क्षमा कर देते हैं। तुम उन्हीं करुणासागर श्रीमन्नारायण की शरण में जाओ। आजकल वे द्वारिका में श्रीकृष्ण रूप में अवतीर्ण हुए हैं तुम वहीं जाओ।' इस प्रकार शिवजा का आज्ञा प्राप्त कर घंटा
नेत्रों से अश्रुधारा बहाता, निरंतर भगवान गयण के नामों का स्मरण करता द्वारिका पहुंचा। द्वारिका पहुंचकर उसे पता चला कि भगवान कृष्ण पुत्र की कामना से शिवजी की आराधना करके उन्हें प्रसन्न करने कैलाश गए हैं तो वह सोचने लगा 'यह कैसी अद्भुत माया है! एक ओर तो शिवजी श्री कृष्ण को पूज्य बताकर मुझे उनकी शरण में भेजते हैं तो दूसरी ओर स्वयं श्रीकृष्ण उनकी आराधना के लिए कैलाश गए हैं।' तब तो उसकी उत्कंठा और भी बढ़ गयी और वह कैलाश की ओर चल पड़ा। मार्ग में जब वह बद्रिकाश्रम पहुँचा तो असंख्य ऋषि-मुनियों को श्री नारायण की आराधना करते देखा। वह भी अपनी करुणापूर्ण वाणी में जोर-जोर से श्री नारायण का जप कर रहा था। उसके इस प्रकार जप करने पर सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ। उस समय द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण भी बद्रिकाश्रम में ठहर कर समाधि में लीन थे। उन्होंने घंटा कर्ण को अपना नाम स्मरण करते सुनकर अपने नेत्र खोले और उससे पूछा कि तुम कौन हो और शांतचित्त तपस्वियों की इस भूमि में क्यों आए हो। तब घंटा कर्ण ने भगवान को सब बनान्त सुनाया और कहा कि इस प्रकार शिवजी की आज्ञा से मैं मुक्तिदाता श्रीमन्नारायण की शरण में आया हूँ। वे ही मेरे आश्रयदाता हैं। जाने कब मुझ पापकर्मा पिशाच को वे दर्शन देंगे?
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यह कहकर वह वहीं भगवान श्रीमन्नारायण के ध्यान में मग्न हो गया। भगवान के ध्यान में वह ऐसा लीन हुआ कि उसे अपने शरीर की सुध-बुध ही न रही, वह एकदम समाधि मग्न हो गया। उसकी ऐसी शुद्ध भाव की भक्ति देखकर कृपासिन्धु श्रीकृष्ण अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसके हृदय में चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। हृदय में शंख, चक्र, गदाधारी भगवान के अद्भुत दर्शन पाकर वह पिशाच प्रेम से गद्-गद् हो गया और भगवान के देव दुर्लभ सौंदर्य माधुर्य का श्रद्धा भक्ति के साथ पान करने लगा। आँसुओं से उसके वस्त्र भीग गये और रूद्ध कंठ से वह मन ही मन भगवान की स्तुति करने लगा। तब भगवान ने उससे कहा- 'हे घंटा कर्ण! आज से तुम अपने हिंसक कार्यों को त्याग दो और स्वर्ग का सुख ऐश्वर्य प्राप्त करो। इस इन्द्र के बाद तुम मेरे धाम को जाओगे।'ऐसा कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये। तबसे घंटा कर्ण बद्रिकाश्रम में भगवान का दारपाल बनकर वास करने लगा। इस प्रकार घंटा कर्ण अपने शुद्ध भाव से साक्षात् नारायण के प्रत्यक्ष दर्शन कर योगियों में दुर्लभ मुक्ति का अधिकारी हुआ और मृत्यु उपरांत भगवान के धाम को प्राप्त किया। ___ आज भी गढ़वाल में अनेक स्थानों पर घंटा कर्ण के मंदिर हैं, जहाँ इसकी पूजा होती है। अनेक स्थानों पर तामसी द्रव्यों द्वारा इसकी पूजा होती है। अब इसे घंटयाल अर्थात् घंटावाला भी कहते हैं।
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