पञ्चशिला व बद्रीनाथ धाम के अन्य शिलाओं के बारे में जाने
श्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath
श्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath
भगवान श्री बद्रीविशाल जी की पवित्र बद्रीपुरी में आकर प्रत्येक वस्तु परम पवित्र तथा दिव्य हो जाती है। यहाँ विशेष महत्व वाली पाँच शिलायें हैं, जो पञ्चशिला कहलाती हैं। सामान्यतः शिला का अर्थ बड़े पत्थर से लगाया जाता है। किन्तु पवित्र बद्रीपुरी की शिलायें उस क्षेत्र की महिमा के कारण सिद्धिदात्री हुईं। स्कन्द पुराण में इन पाँच शिलाओं के बारे में कहा गया है--
नारदी नारसिंही च वाराही गारुड़ी तथा।
मार्कडेयीती विख्याताः शिला सर्वार्थ सिद्धिदाः।।
अर्थात् नारद शिला, नृसिंह शिला, वाराही शिला, गरुड़ शिला और मार्कण्डेय शिला ये सिद्धि देने वाली पाँच शिलायें हैं।
नारद शिला- तप्त कुण्ड के समीप अलकनन्दा की ओर वाली शिला को नारद शिला कहते हैं। इस शिला के नीचे ही नारद कुण्ड है, जिसमें से भगवान श्री बद्रीविशाल जी की दिव्य मूर्ति प्राप्त हुई थी। नारद शिला आकार में त्रिकोणात्मक है। इस शिला का नाम "नारद शिला" क्यों हुआ तथा इसका महात्म्य बताते हुए स्कन्द पुराण में शिवजी अपने पुत्र स्कन्द जी से कहते हैं।
नारदो भगर्वास्तेपे तपः परम दारूणम्।
दर्शनायं महाविष्णोः शिलायां वायु भोजनः।।
अर्थात् भगवान नारद ने नारायण भगवान के दर्शनों के लिए केवल वायु का आहार करते हुए साठ हजार वर्षों तक स्थिर भाव से जिस शिला पर बैठकर परम दारुण तप किया, वह नारद शिला आज भी प्रसिद्ध है। नारद जी की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान नारायण वृद्ध ब्राह्मण के रूप में उनके सम्मुख आए। तब नारद जी ने उनसे पूछा-"हे देव! आप कौन हैं? आप इस निर्जन वन में कैसे आए। तब सम्पूर्ण कलाओं से सुशोभित दिव्य देवधारी भगवान नारायण ने उन्हें अपने चतुर्भुज रूप के दर्शन कराये। भावविभोर होकर नारद जी उनकी स्तुति करने लगे। उनकी प्रेममयी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान ने उनसे वरदान माँगने को कहा। नारद जी ने तीन वरदान मांगे--
1. आपके चरण कमलों में मेरी अविचल भक्ति रहे।
2. मेरी शिला के समीप सदा आपका वास हो।
3. जो मेरे इस तीर्थ के दर्शन, स्पर्श, स्नान तथा आचमन करे वह मोक्ष का अधिकारी हो।
भगवान ने नारद जी को यह तीनों वरदान दिए। तभी से यह शिला "नारद शिला" कहलायी।
नरसिंह शिला--
नृसिंहोऽपि शिलारूपी जलक्रीडा परोऽभवत्
(स्कन्द पुराण)
श्री अलकनन्दा गंगा के बीच नारद शिला से पीछे एक शिला है, यही "नरसिंह शिला" कहलाती है। इसकी आकृति भी सिंह के समान देखने पर लगता है सिंह का मुँह खुला हो और पंजे उठे हुए हैं। यहाँ भगवान नरसिंह का वास है। भगवान यहाँ क्यों आए? इस सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा है।
प्रह्लाद की रक्षार्थ हिरण्यकशिपु को मारकर जब भगवान नरसिंह उसके सिंहासन पर बैठे तो देवता भगवान के अद्भुत रूप को देखकर अत्यधिक भयभीत हो गए। उनमें से किसी का भी साहस न हो सका कि भगवान को उनका क्रोध शान्त करने के लिए कह सकें। देवताओं को भयाक्रांत देखकर भगवान ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। देवताओं ने कहा"हे प्रभु! हम आपसे यही वरदान मांगते हैं कि आप अपने इस अद्भुत रूप को समेट लीजिए तथा हमें सदा अपने मनोहर चतुर्भुज रूप में दर्शन दें।" तब भगवान अपना क्रोध शान्त करने के लिए बद्रिकाश्रम में आए। यहाँ अलकनन्दा के शीतल जल में क्रीड़ा करके भगवान ने अपना पूर्ववत् मनोहर एवं सौम्य रूप धारण कर लिया। भगवान के सौम्य रूप का दर्शन करके देवता अपने-अपने स्थानों को लौट गए। इधर जब ऋषि-मुनियों को पता चला कि भगवान इस पुण्य भूमि में आए हैं तो वे भगवान से प्रार्थना करने लगे कि अब आप इस क्षेत्र से न जाएँ। सदा यहीं वास करें ऋषि-मुनियों की प्रार्थना पर भगवान नरसिंह सहमत हो गए और शिला के रूप में यहाँ रहने लगे। आज भी जो यात्री श्रद्धा एवं भक्तिभाव से नरसिंह शिला के दर्शन करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।
वाराही शिला--
रसातलात् समुधृत्य महीं दैवतवैरिणम।
हिरण्याक्षं रणे हत्वा बदरी समुपागतः।।
नारद कुण्ड के समीप पुण्य सलिला अलकनन्दा जी के जल में एक ऊंची शिला है। ध्य. 1पूर्वक देखने से इस शिला में कराकृति का आभास होता है। यही वाराह शिला है। पुराणों में कहा गया है कि जब भगवान वाराह पृथ्वी को रसातल से ले आए और रणक्षेत्र में हिरण्याक्ष को मार डाला तब वे बदरीकाश्रम चले आए और शिला रूप में यहीं वास करने लगे। इस शिला के समीप दान करने का बहुत महात्म्य है, जो उपवास करके भक्तिभाव से इस शिला के दर्शन करता है, उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
गरुड़ शिला--
तप्त कुण्ड के समीप खड़ी हुई सी एक शिला है, यह गरुड़ शिला कहलाती है। यह शिला गरुड़ शिला के नाम से विख्यात क्यों हुई स्कन्द पुराण में इसकी बहुत सुन्दर कथा है
वर्ध्यः दक्षिणे भागे गंधमादनशृंगके।
गरुड़स्तपआतेपे हरिवाहनकाम्यया।
(स्कन्द पुराण)
कश्यप जी की पत्नी विनता के गर्भ से दो महाबली और महापराक्रमी पुत्र हुए, जिनका नाम था गरुड़ और अरुण। इनमें से अरुण तो भगवान सूर्य के सारथी हुए तथा गरुड़ ने भगवान नारायण (विष्णु) का वाहन होने की अभिलाषा से बद्रिकाश्रम के दक्षिण भाग में गंधमादन पर्वत शिखर पर 32 हजार वर्ष तक तपस्या की। गरुड़ जी की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिए। अपने सामने भगवान को चतुर्भुज रूप में पाकर गरुड़ जी उनकी दिव्य स्तुति करने लगे तथा पदार्घ्य के लिए जल खोजने लगे। तब भगवान ने वहाँ त्रिपथगामिनी गंगा का आवाहन किया। तब पर्वत के ऊपर साक्षात् पंचमुखी गंगा प्रकट हुई। उन्हीं के जल से गरुड़ जी ने भगवान को पदार्घ्य दिया। वर मांगने के लिए भगवान के द्वारा प्रेरित करने पर गरुड़ जी ने तीन वर माँगे
1. मैं एकमात्र आपका वाहन होऊँ। 2. आपकी श्रीकृपा से मुझे जल, वीर्य एवं
पराक्रम में देवता, गन्धर्व, दैत्य कोई न जीत सके। 3. यह शिला मेरे नाम से विख्यात हो, इसका स्मरण करने से मनुष्य को विषजनित व्याधि न हो। । यह वरदान देकर भगवान अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् गरुड़ जी ने बद्रिकाश्रम में तप्त कुण्ड -मार्कण्डेय शिला के समीप एक शिला पर बैठकर व्रत उपवास किया और भगवान के पुनः दर्शन किये। फिर वे अपने स्थान पर लौट गए। जिस शिला पर बैठकर गरुड़ जी ने तप किया था, वह शिला "गरुड़ शिला" कहलायी। आज भी जो उस शिला के दर्शन करते हैं वे परम पुण्य के भागी बनते हैं।
मार्कण्डेय शिला--
अलकनन्दा की धारा में नारद कुण्ड के समीप मार्कण्डेय शिला है। अधिकांश समय यह शिला अलकनन्दा में डूबी रहती है। मार्कण्डेय नामक बहुत बड़े महर्षि हुए है। इन पर मार्कण्डेय पुराण की रचना भी की गयी है। कहा जाता है पहले ये अल्पायु थे। भगवान की आराधना करने पर इन्हें 7 कल्प की आयु प्राप्त हुई। प्रलय पर्यन्त भी ये बने ही रहते हैं। एक बार मार्कण्डेय जी अनेक तीर्थों की यात्रा करते हुए मथुरापुरी में आए। उन दिनों बद्रिकाश्रम से नारद जी भी वहाँ आए हुए थे।
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