F नारद को पञ्चरात्र प्राप्ति की कथा,श्री बद्रीनाथ जी की कथा,Story of Shri Badrinath,part-3 - bhagwat kathanak
नारद को पञ्चरात्र प्राप्ति की कथा,श्री बद्रीनाथ जी की कथा,Story of Shri Badrinath,part-3

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नारद को पञ्चरात्र प्राप्ति की कथा,श्री बद्रीनाथ जी की कथा,Story of Shri Badrinath,part-3

नारद को पञ्चरात्र प्राप्ति की कथा,श्री बद्रीनाथ जी की कथा,Story of Shri Badrinath,part-3
नारद को पञ्चरात्र प्राप्ति की कथा 
श्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath
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यदिदं पञ्चरात्र में शास्त्रं परम दुर्लभम। 
तद्भवान् वेत्स्यते सर्वं मत् प्रसादान्न संशयः।।
(वाराह पुराण, 66 अ0 18 श्लोक)
इस संबंध में एक बड़ी ही रोचक कथा है। एक बार देवर्षि नारद बद्रिकाश्रम में गए। वे रहते तो वहीं थे परन्तु यदा-कदा भ्रमण के लिए चले जाते थे अथवा 6 महीने जाड़ों में पूजा करने के लिए वहाँ रहते थे और 6 महीने मनुष्यों द्वारा पूजा के समय भ्रमण के लिए चले जाते थे। कुछ भी हो एक दिन जब इन्हें बद्रिकाश्रम में भगवान नारायण के दर्शन न हुए तो इन्हें बहुत चिन्ता हुई। वे भगवान को इधर- उधर खोजने लगे। खोजते-खोजते वे सुमेरू पर्वत तक निकल गये, किन्तु वहाँ भी उन्हें भगवान के दर्शन न हुए। नारद जी बड़े चक्कर में फंस गये, यह भगवान आज कैसी माया कर रहे हैं। भगवान को खोजते-खोजते नारद जी को बहुत प्यास लगी, उनके प्राण व्याकुल हो गये। तभी उन्ह दूर एक कुटी दिखाई दी। डूबते को तिनके का सहारा बहुत होता है। नारद जी को कुछ आशा
हुई। यदि वहाँ कोई आदमी हो तो जल भी होगा। सचमुच वहाँ जाने पर एक तपस्वी दिखाई दिया। नारद जी ने बड़ी व्याकुलता से कहा'बाबा, थोड़ा जल पिला दो तो प्राण बचें।' यह सुनते ही उस तपस्वी ने जमीन पर प्रहार किया। वहाँ की जमीन फट गयी और एक बहुत चौड़े बर्तन को पकड़े सहस्त्रों अप्सरायें निकल आयीं। उन अप्सराओं ने नारद जी से कहा- 'हे ब्रह्मन्! आप पहले स्नान कीजिए तत्पश्चात् जलपान कीजिये।' उस समय नारद जी अपना कमण्डलु भी भूल आये थे। वे चिन्ता में पड़ गये कि स्नान कैसे करूं। तब उन अप्सराओं ने कहा'ब्रह्मन् ! आप इसी पात्र में स्नान कीजिये।'
नारद को पञ्चरात्र प्राप्ति की कथा 
श्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath
नारद जी सोचने लगे- 'यह पात्र चौड़ा तो बहुत है, परन्तु इसमें स्नान कैसे करूँ। इसमें तो मेरे पैर भी न भीगेंगे। उनकी चिन्ता को समझकर अप्सरायें बोली- 'देवर्षे ! आप चिन्तित न हों, इसमें प्रवेश तो कीजिए।' अप्सराओं के इस प्रकार प्रार्थना करने पर नारद जी उस पात्र में उतरे। उनके पात्र में गोता लगाते ही वह पात्र बहुत विशाल हो गया, जिसका कहीं अन्त ही नहीं था। नारद जी बिना प्रयास उसमें घुसे ही जा रहे थे। बड़ी देर के पश्चात् उन्होंने स्वयं को एक रमणीक नगर में पाया। वहाँ की शोभा अवर्णनीय थी। दिव्य स्वर्ण के महल थे तथा हीरे पन्नों की दीवारें चारों ओर ही जगमगाहट थीं। कूप, तड़ाग, वन, उपवनों में सुशोभित वह नगर परम मनोहर था। पूछने पर पता चला वह 'श्वेत द्वीप' है। नारद जी ने देखा वहाँ के सभी लोग चतुर्भुज है। सबके गले में वनमाला है। सभी शंख, चक्र, गदा पद्मधारी हैं, सभी के शरीरों से दिव्यगंध आ रही है। नारद जी जिसे देखते उन्हें ही भगवान नारायण समझकर प्रणाम करते तो वे कहते- 'भगवान नारायण का भवन तो आगे है।' नारद जी आश्चर्यचकित थे। यह अजीब नगर है चलते-चलते वे श्रीहरि के श्वेत द्वीप के बैकुण्ठ धाम (बद्री क्षेत्र) में पहुंचे। वहाँ उन्होंने भगवान श्रीमन्नारायण के दर्शन किए। भगवान के दर्शनों के अनन्तर नारदजी ने उनकी पूजा स्तुति की।
उनकी पूजा स्तुति और तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उनसे वर माँगने को कहा। नारद जी बोले- 'हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो जिस पूजा पद्धति से आपको प्राप्ति हो सके उसे आप मुझसे कहें।' भगवान ने उन्हें पूजा पद्धति बताई और कहा--
अलाभे वेदशास्त्राणां पञ्चारात्रोदितेनाहि। 
मार्गेणमा यजन्तेयेते मां प्राप्स्यन्तिमानवा, 
ब्राह्मणक्षत्रिय विशांपञ्चरात्रं विधियते 
सूद्रादीनांतुमे क्षेत्र पदवीगमतंद्विज। 
मन्नाग विहितंतेषां नान्यत् पूजादिकं चरेत्।
(वाराह पुराण, 66 अ0 11, 12, 13 श्लोक) 
अर्थात्- 'वेद शास्त्रों के नियमों से पञ्चरात्र विधि से जो मेरी पूजा करते हैं उन्हें मेरी प्राप्ति होती है। यह पूजा द्विजों के लिए ही है शूद्र आदि द्विजेतर जातियों के लिए मेरे क्षेत्रों की तीर्थयात्रा और मेरे नामों का जप कीर्तन ही श्रेष्ठ साधन है।' इस प्रकार भगवान से पञ्चरात्र पूजा पद्धति का उपदेश ग्रहण करके सहसा नारद जी चौंक उठे। उन्होंने देखा वे उसी स्थान पर खड़े हैं, वहीं अप्सरायें खड़ी हैं। वे बाबा जी चतुर्भुज रूपधारी साक्षात् श्रीमन्नाराण ही हैं। उनकी पूजा करके नारद जी ने इसका रहस्य पूछा तो भगवान ने कहा- 'श्वेत द्वीप में तुमने जिस रूप के दर्शन किये हैं वह मेरा ही रूप है, मुझमें और उनमें कोई अन्तर नहीं। मैंने तुम्हें पूजा पद्धति का उपदेश ग्रहण करने ही भेजा था। तुम इसी पूजा पद्धति से मेरी अर्चना करो।'
तब से नारद जी भगवान की उसी पद्धति से पूजा करने लगे। नारद जी पाँच रात्रि वहाँ रहे इसलिए इस पूजा पद्धति का नाम 'पञ्चरात्र पूजा पद्धति' पड़ा। नारद जी बद्रिकाश्रम में रहकर भगवान की पूजा एवं स्तुति करने लगे और लक्ष्मी जी को छोड़ कर आये, तपोवेशधारी भगवान नारायण पुनः तपस्या में लीन हो गये।
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