श्री मन्नारायण से बद्रीनाथ
श्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath
भगवान नारायण श्री बद्रीनाथ जी किस प्रकार कहलाये, इस विषय पर एक पौराणिक कथा है। पारम्भ में 'श्रीमन्नारायण को देवर्षि नारद का उपदेश' नामक प्रसंग में इस कथा का उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार भगवान नारायण हिमालय के केदारखण्ड में आये और प्राचीन शिवभूमि बद्रिकाश्रम को अपना वास बनायाश्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath
और नारद जी को पञ्चरात्र पूजा पद्धति का उपदेश दिया। तत्पश्चात् इधर तो भगवान तपस्या में लीन हो गए, लेकिन उधर क्षीर सागर में जब लक्ष्मी जी नाग-कन्याओं के पास से वापस लौटीं, तो उन्होंने शेषशय्या को खाली पाया। भगवान को वहाँ न पाकर लक्ष्मी जी बहुत व्याकुल हुईं और उनकी खोज में निकल पड़ी।
खोजते-खोजते वे केदारखण्ड की बड़ी वन घाटी में आ गयीं। यहाँ उन्होंने भगवान को तपस्या में लीन देखा।
अपने स्वामी को वर्षा, धूप, लू, तूफान आदि प्राकृतिक प्रकोपों में अनिश्चल भाव से तप करते देख कर लक्ष्मी जी का मन बहुत दुःखी हआ। लक्ष्मी जी उनकी रक्षार्थ बद्री अर्थात बेर का वक्ष बन गयीं और उनके ऊपर छाया कर दी। लक्ष्मी जी ने बद्री का वृक्ष बनकर भगवान नारायण को प्राकृतिक प्रकोपों से बचाया। अतः भगवान बद्री वृक्षों के बीच तल्लीन नाथ अर्थात् 'श्री बद्रीनाथ कहलाये। भगवान श्रीबद्रीनाथ जी बद्री वृक्ष की शीतल छाया में निरंतर तपस्या में लीन रहते हैं।
श्री मन्नारायण से बद्रीनाथ
श्री बद्रीनाथ जी की कथा
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इसी बद्री वृक्ष के कारण ही यह क्षेत्र बद्री क्षेत्र व बद्रीवन कहलाता है। आज यहाँ बद्रीवृक्ष हों या न हों किन्तु यह संभव है कि कभी यहाँ बद्री वृक्ष रहे होंगे। पुराणों में भी अनेक स्थानों पर इस क्षेत्र को बद्री वन कहा जाता है। महाभारत वन पर्व अध्याय 145 में इसी स्थान पर बद्री वृक्षों का वर्णन है। इसके अनुसार पाण्डव जब गन्धमादन पर्वत शिखर की ओर जा रहे थे तो मार्ग में उन्होंने इन्हीं दिव्य वृक्षों को देखा। वहां उन्होंने गोल तने वाली सुन्दर बद्री देखी, जो स्निग्ध शीतल छाया से सुशोभित तथा कोमल पल्लवों से यक्त थी, बद्री में लक्ष्मी जी का वास है। अतः लक्ष्मीपति को यह दिव्य वृक्ष अत्यन्त प्रिय है। लक्ष्मी जी ने भगवान के योग ध्यान मुद्रा त्यागकर शृंगारिक मुद्रा में आने के लिए प्रार्थना की। भगवान संसार के कल्याणार्थ सहमत हुए लेकिन तीन शर्तों के साथ1. बद्रीनाथ की घाटी तपस्या के लिए रहेगी और सांसारिक वासनाएँ इस पवित्र भूमि पर नहीं आयेंगी। 2. भगवान की पूजा दोनों रूपों, योग ध्यान एवं श्रृंगारिक रूप में होगी। देवता इनकी पूजा योग ध्यान मुद्रा में तथा मानव श्रृंगारिक मुद्रा में करेंगे। 3. योग ध्यान मुद्रा में लक्ष्मी जी भगवान के बाईं ओर बैठेंगी और शृंगारिक मुद्रा में दाईं ओर बैठेंगी। इन तीनों शर्तों का अभी भी नियमानुसार पालन हो रहा है। लक्ष्मी जी का भगवान के दायीं ओर बैठने का तात्पर्य यह है कि यहाँ लक्ष्मी जी की पूजा भगवान की पत्नी (वामांगी) के रूप में नहीं बल्कि भगवान में विद्यमान ऐसी दैवीय शक्ति के रूप में की जाती है, जिसके प्रभाव से संपूर्ण ब्रह्मांड का संचालन होता है। एसे परब्रह्म परमेश्वर के पुजारी को भी वामांगी न रखने का नियम है। इसी कारण बद्रीनाथ जी के रावल (पुजारी) पर भी विवाह न करने का प्रतिबंध है। यदि रावल विवाह कर ले तो उसे पूजा की गद्दी से हटना पड़ता है। इस प्रकार की व्यवस्था के अंतर्गत छह माह तक भगवान की पूजा मनुष्यों द्वारा होती है। कपाट बन्द होने के पश्चात् बाकी छह महीने भगवान योगध्यान मुद्रा में रहते हैं और उनकी पूजा देवता करते हैं। यहाँ भगवान नारायण बद्रीनाथ के रूप में निवास करते हैं।
श्री मन्नारायण से बद्रीनाथ
श्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath