बद्रीविशाल जी का वर्तमान विग्रह की जानकारी
श्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath
कलयुग में श्री भगवान बद्रीविशाल जी का विग्रह शालग्राम शिला द्वारा प्रकट हुआ है। भगवान के इस स्वरूप की स्थापना कब और किसके द्वारा की गयी इसका स्पष्ट प्रमाण नहीं, मिलता। इस विषय में जानने के लिए पुराण ही हमारे अवलम्ब हैं।श्री बद्रीनाथ जी की कथा
Story of Shri Badrinath
पुराकृतयुयस्पादौ सर्वभूत हिताय च।
मूर्तिमान्भगवांस्तत्रतपोयोग समाश्रिताः।।
त्रेतायुगेहि ऋषिगणै योगभ्यासैक तत्परः।
द्वापरे समनुप्राप्ते ज्ञान निष्ठोहि दुर्लभः।।
(स्कन्ध0 वै0 बदरी0 म0 अ0 3, 4, 5 श्लोक)श्री भगवान सतयुग में बद्रिकाश्रम में साक्षात् ग रूप से निवास करते थे। त्रेता युग में योगाभ्यासी ऋषिगण ही योगाभ्यास द्वारा भगवान के दर्शन करते थे, परन्तु द्वापर आन पर जब श्री भगवान श्री कष्णावतार धारण करने जाने लगे तो ज्ञाननिष्ठ ऋषि-मुनियों को भी भगवान के दर्शन दुर्लभ हो गए। साथ ही देवता भी भगवान के दर्शन सुख से वंचित हो गये। भगवान के दर्शन न होने पर वे सब घबरा गये और अत्यन्त दीन स्वर में भगवान से प्रार्थना करने लगे- 'हे प्रभु! आप ही हमारे एकमात्र अवलम्ब हैं। आप हमारा तथा इस . क्षेत्र का त्याग न करें। उनकी श्रद्धा एवं भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान कहने लगे- 'हे देवताओं और ऋषियों ! अब से कुछ काल पश्चात् कलयुग का प्रवेश होगा। कलयुग के प्राणी पापी, धर्म-कर्म हीन और अभिमानी प्रवृत्ति के होंगे, अतः उनके समक्ष में साक्षात् रूप से नहीं रह सकता, किन्तु यहाँ नारद शिला के नीचे अलकनन्दा में मेरी एक दिव्य मूर्ति है, तुम लोग उसे निकालकर उसकी स्थापना करो। उसके दर्शन मात्र से प्राणियों को मेरे साक्षात् दर्शन का फल प्राप्त होगा।' ब्रह्मादि देवताओं ने नारदकुण्ड से वह मूर्ति निकाली। तत्पश्चात् देवताओं ने विश्वकर्मा से
एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया और उस मन्दिर में मूर्ति की स्थापना की। नारद जी उन प्रधान अर्चक नियुक्त किये गये और यह प्रावधान रखा गया कि श्री भगवान की पूजा 6 माह मनुष्यों द्वारा तथा शेष 6 माह देवताओं द्वारा की जायेगी। आज भी इस नियम का पालन किया जाता है। स्कन्द पुराण में भी भगवान श्री बद्रीविशाल जी की मूर्ति स्थापना की मनोरम कथा मिलती है। इसके अन्तर्गत स्वयं शंकर जी अपने पुत्र स्कन्ध जी से कहते हैं कि--
ततोऽहं यतिरूपेणं तीर्थान्नारद संज्ञकात्।
उद्धत्य स्थापयिष्यामि हरिं लोकहितेच्छया।।
यस्य दर्शनमात्रेण पातकानि महान्त्यपि।
विलीयन्ते क्षणादेव सिंहदृष्टवा मृगाइव।।
(स्क0 बद0 म0 अ0 5 श्लोक 24-25)
अर्थात् 'हे पुत्र ! (कलियुग आने पर) मैं नारद कुण्ड से मूर्ति को संन्यासी (श्री शंकराचार्य) के रूप से उठाकर स्थापित करूंगा। जिसके दर्शन मात्र से कैसे भी पाप क्यों न हों उनके पाप उसी प्रकार भाग जायेंगे जैसे सिंह कादेखकर हाथियों के झुण्ड भाग जाते हैं। - कालांतर में भगवान शंकर ने श्री शंकराचार्य रूप में जन्म लिया और बद्रीपुरी में श्री बद्रीनाथ जी की मूर्ति स्थापित करके जन-जन को अपने पुण्य कार्य से कृतकृत्य कर दिया।
कलौ गते त्रिसाहस्त्रे वर्षाणां शंकरो यतिः।
बौद्धमीमांसकतमं जेतुमाविर्बभूव ह।।
(शिव रहस्य)
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