ज्ञान की बातें इन हिंदी

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आध्यात्मिक प्रेरणात्मक प्रसंग"

भगवान् के मूलस्वरूप के अत्यन्त निकट तत्त्व केवल उनका नाम ही है।
भगवन्नाम-प्रेमी सन्तों एवं भक्तों को हम नमन करते हैं। प्रेमी सन्तों, भक्तों के हृदय में सर्वदा भगवन्नाम की महिमा निहित रहती है। उनके मुख में सर्वदा भगवन्नाम की महिमा का ही वर्णन रहता है। भगवन्नाम-प्रेमी सन्त चमत्कार तथा प्रसिद्धि का उल्लेख नहीं करते। वे तो भगवन्नाम सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण वचनों को ही उद्धृत करते हैं। श्री भगवन्नाम के मूलस्वरूप के अत्यन्त निकट का यदि कोई तत्त्व है तो वह केवल उनका नाम ही है। भगवान् और उनका नाम दोनों एक ही रूप हैं। यदि भगवान् का प्रेम ही न उमड़ा और पढ़े हुए को जीवन में धारण नहीं किया तो अधिक ग्रन्थ आदि पढ़ने से क्या लाभ होगा? भक्त तो केवल नाम का ही आश्रय लेकर भव-सागर पार कर जाता है।

भगवन्नाम की स्मृति हमें भगवान् के सम्मुख ले जायेगी, मुक्ति तक पहुंचाएगी।

इसलिए हृदय से भगवन्नाम का संकीर्तन, जप करते रहना चाहिए। नाम-स्मरण करते हुए नामी इष्टदेव (भगवान्) का साक्षात्कार हो जाएगा और भगवान् प्रकट हो जाएँगे। नामस्मरण करते रहने से साधक, भक्त का मन श्रीहरि भगवान् के श्रीचरणों मे स्थिर हो जाएगा। फिर कोई भय नहीं रहता और शंकाएँ भी मिट जाती हैं।_नाम-स्मरण में जीव को पूर्ण मनोयोग से लग जाना चाहिए। मनोयोग अर्थात् मन का लगाव केवल हरि के नाम-स्मरण में हो। संशय रहित होकर नाम-स्मरण में लगे रहना चाहिए। प्रभु-नाम की अन्य किसी साधना के साथ तुलना करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। प्रभु नाम-स्मरण करते-करते प्रभु के स्वरूप में अत्यन्त प्रेम हो जाता है। भक्त, साधक प्रभु के विरह में तथा उनके प्रेम में एकान्त में बैठकर बहुत आँसू बहाता है। इससे उसका मन श्री भगवान् एवं श्री सद्गुरुदेव जी के श्रीचरणों में स्थिर होता है। भक्त के इस आनन्द का बखान नहीं किया जा सकता। ऐसी प्रभु के नाम की महिमा है। ऐसा प्रभु का नाम जपने वाला साधक, भक्त अपने देहाभिमान को भूलकर भगवान् के दिव्य-प्रेम में खो जाता है। ऐसा होने पर भगवान् भी फिर पीछे नहीं रहते। वे भक्तों के साथ रह कर नित्य नई-नई लीलाएँ करते हैं। अपने भक्तों को अपने संस्पर्श का अनुभव भी करा देते हैं। नाम-स्मरण करते-करते स्वयं का विस्मरण हो जाने से भगवान् से अनन्यता हो जाती है यही भगवान् का सच्चा एवं अखण्ड रहने वाला दर्शन है। भगवान् अपने अनन्य भक्तों को दर्शन देते रहते हैं। भगवान् की शरण होकर अत्यन्त तत्परता एवं व्याकुलता से इस प्रकार प्रार्थना करें कि 'हे भगवन् ! मुझे अपने पावन नाम में प्रेम दीजियेगा।'

इससे भगवान् से प्रेम बढ़ेगा

और नाम-स्मरण, नाम-जप तथा प्रार्थना के प्रभाव से भगवद्दर्शन भी प्राप्त होंगे। इससे प्राणी का कल्याण होगा। प्रभु के नाम-स्मरण, नाम-जप से अन्त:करण शुद्ध होगा तथा शंकाओं का समाधान होकर आत्मज्ञान का लाभ होगा। प्रभु का नाम ही ब्रह्मपद है, निज आत्मसुख भी प्रभु का नाम है एवं तत्त्व वस्त भी प्रभु का नाम ही है। प्रभु नाम ही परमार्थ है और प्रभ का नाम ही योग सिद्धि का वैभव है। प्रभु नाम ही वेदान्त का बीज रूप वेद है। भगवान् का अखण्ड स्मरण करते हुए बाहर देह के प्रारब्ध अनुसार जैसा भी सुख-दुःख भोग प्राप्त हो, उसे भोगते हुए मनुष्य को सन्तुष्ट रहना चाहिए। प्रेम की आवश्यकता की पूर्ति न स्वयं से हो सकती है और न किसी अन्य ढंग से। इसकी पूर्ति केवल एक ईश्वर से ही हो सकती है। अत: हमें ईश्वर को मानना ही होगा। यही सत्य है। भगवान् से प्रेम होने पर सांसारिक आसक्ति दूर होती है और ईश्वर की आवश्कता की भावना जागृत होती है। परमात्मा का कोई भी पूर्ण वर्णन नहीं कर सकता, फिर भी भगवान् के किसी भी श्री अंग का, नाम, रूप, गुण, लीला तथा धाम का ध्यान कर लेने से उनकी प्राप्ति हो सकती है। साधक, भक्त को केवल भगवान् पर विश्वास होना चाहिए। भगवान् कैसे हैं? किस रूप वाले हैं, कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं? आदि बातों पर साधक बुद्धि न लगावे।

भगवान् मन-बुद्धि से परे हैं।

परमात्मा हैं, ऐसा मान लेने से सब के साथ समन्वय (निर्वाह) हो जाता है। भक्त प्रहलाद ने भगवान् नृसिंह (भगवान् विष्णु का नर सिंह रूपी अवतार) रूप का ध्यान नहीं किया था, उनको अपना इष्टदेव भी नहीं माना था। उन्होंने केवल दृढ़ता से यही मान लिया था कि भगवान् की सत्ता है और वे मेरे अपने हैं। इसी तरह गजेन्द्र ने भी भगवान् को सर्वव्यापक सत्ता के रूप में मानकर पुकारा। भगवान् न जाने कब, किस रूप में किस को मिल जाएँ ।

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