भगवत गीता का ज्ञान

भगवत गीता का ज्ञान

विश्वास से भगवत प्राप्ति होती है

भगवान् हैं और वे ही मेरे अपने हैं। इस विश्वास से ही भगवान् के साथ प्रेम हो जाता है। भगवान् से केवल श्रद्धा-विश्वास ही माँगना चाहिए। विश्वास के अतिरिक्त और कछ भी माँगने की जरूरत नहीं है। विश्वास ही प्रेम का साधन है। भगवान् परम दयालु हैं। भगवान् अनन्त, अपार और असीम हैं।

परमात्मा का त्याग कोई कर ही नहीं सकता। भगवान् केवल प्रेम से ही प्रकट होते हैं। मैं भगवान् का है भगवान ही केवल मेरे हैं, जो इस दृढ़ता के साथ भगवान को अपना मान लेता है, उसके लिए सद्गुरुदेव भगवान् की प्रेरणा का स्रोत खुल जाता है। हम अपने को शरीर मानकर भगवान् से कुछ माँगते हैं तो भगवान् भी वैसे ही बन कर आते हैं।

इसका अर्थ है कि जब हम असत् में स्थित होकर देखते हैं, तो भगवान् भी असत् रूप से ही दिखाई देते हैं। हम जैसा देखना चाहते हैं, भगवान् हमें वैसे ही दिखाई देते हैं क्योंकि भगवान् का स्वभाव ही ऐसा है। भगवान् फ़रमाते हैं कि 'जो जिस प्रकार मेरी शरण लेता है, मैं उसे उसी प्रकार आश्रय देता हूँ'

'ये यथा मां प्रपद्यन्तेतांस्तथैव भजाम्यहम् ।'

- (गीता अ० 4 श्लोक 11) _भक्तों में स्वाभाविक ही सच्चे, विद्वान्, विरक्त तथा त्यागी सन्तों, सद्गुरुजनों एवं भगवान् की सेवा करने का, उनको सुख देने का भाव रहता है क्योंकि वे स्वयं भी भगवान् के हैं और उनके शरीर, इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि भी भगवान् के ही हैं। कर्मों का कर्ता केवल मन है। जो स्वयं को कर्ता मानता है, वही भोक्ता भी बनता है।

वह अपनी भूल का ही फल भोगता है। ईश्वर किसी को दण्ड नहीं देता। भगवान् ने हमें स्वतन्त्रता सद्-कर्म करने की दी हुई है। यदि वे स्वतन्त्रता न देते तो हम भी पशु-पक्षियों की तरह ही होते। मनुष्य ने उस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके संसार को अपना मान लिया है और भगवान् को भूल गया है।

भक्ति मार्ग में भक्त को तो शरणागत होना ही पड़ेगा, भगवान् को मनाना ही पड़ेगा। शरीर और आत्मा भिन्न हैं। मैं भगवान् का हूँ, केवल भगवान् ही मेरे हैं,' ऐसा |

भाव बनाना है, तभी कल्याण सम्भव है।

भगवान् की शरण ग्रहण करने से मनुष्य प्रकृति के कठोर नियमों को लांघ सकता है। वह अपने सब कर्म भगवद्-प्रीति अर्थ एवं उनके निमित्त करे तो भगवान् उसे अपनी भक्ति तथा तत्त्वज्ञान प्रदान कर देते हैं। भगवान् ही अपने हैं और कोई भी अपना नहीं है, ऐसा मानने से हमारा अनाथपन दूर हो जाएगा और सभी कष्ट मिट जायेंगे। भगवान् की विशेष कृपा किसी-किसी भक्त पर ही होती है।

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वैसे भगवान् किसी का अहित नहीं चाहते, सबका कल्याण करते हैं। विशेष कृपा होने पर ही परमहंस विरक्त, त्यागी तथा समर्थ सन्त, महापुरुष, सद्गुरुजन भक्तों का आध्यात्मिक-मार्ग में मार्ग-दर्शन करते रहते हैं। एक क्षण के लिए भी हम से भगवान् का चिन्तन-भजन छूटना नहीं चाहिए। ऐसा होने पर बन्धन-विकार दूर होंगे। ऐसा हमारा अनुभव है। वह भक्त धन्य है जो लौकिक, पारलौकिक समस्त कामनाओं का त्याग करके श्रीहरि में ही अपना मन लगा कर भजन-चिन्तन तथा नाम-स्मरण करता है।

उनके कारण धरित्री (पृथ्वी) धन्य होती है। ऐसे भक्त के दर्शन, स्पर्श तथा सेवा से सब का मंगल होता है। कैलास पर्वत पर शिव के वाम भाग में विराजित श्री पर्वतराज नन्दिनी भगवती पार्वती ने भगवान् शंकर से प्रार्थना की कि देव! आज किसी भक्तश्रेष्ठ का दर्शन कराने का अनुग्रह करें।

भगवान् शंकर फ़रमाते हैं कि 'चलो देवी।' भगवान् शिव तत्काल उठ खड़े हुए और बोले कि ‘साक्षात् श्रीहरि के दर्शन की अपेक्षा उनके भक्तों का दर्शन परम पावन है।
जीवन के वे ही क्षण सार्थक हैं, देवी! जो भगवान् के स्मरण अथवा उनके भक्तों के सान्निध्य में व्यतीत हों।
भगवती पार्वती जी ने पूछा कि 'भगवन् हम कहाँ जा रहे हैं?' भगवान् शंकर जी ने भगवती पार्वती जी को बतलाया कि 'देवी! हम हस्तिनापुर चलेंगे। जिसके रथ के सारथी बनना भगवान् श्यामसुन्दर स्वीकार करते हैं, उन महाभाग धनंजय अर्जुन के अतिरिक्त श्रेष्ठ भक्त इस धराधर पर कहाँ मिलता है? अर्जुन के भवन के द्वार पर पहुँचने पर पता लगा कि इस समय पार्थ शयन कर रहे हैं।

भगवान् शंकर भक्त अर्जुन के द्वार पर पहुँच ही जाते हैं। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण जी का स्मरण किया। ऊधव जी, महादेवी रुक्मिणी एवं सत्यभामा जी के साथ भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ पधारे। भगवान् श्रीकृष्ण जी ने वृषभध्वज महादेव को प्रणाम किया और अर्जुन के द्वार पर रुकने का कारण पूछा।

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भोले नाथ जी ने भगवान् श्रीकृष्ण जी से कहा कि 'आप अन्दर जाकर अपने सखा अर्जुन को जगा दें क्योंकि आज देवी पार्वती |

पृथानन्दन अर्जुन के दर्शन को उत्सुक हैं।'

मस्तक झुकाकर भगवान् श्रीकृष्ण ऊधवादि के साथ भीतर चले जाते हैं। देखो! अर्जुन अपने कक्ष में पृथ्वी पर शयन कर रहे हैं। सिरहाने उनकी पत्नी सुभद्रा जी उन्हें पंखा झल रही है। ऊधव जी ने कहा कि 'धन्य हैं ये कुन्तीनन्दन, निद्रा में भी इनके रोमरोम से भगवान् श्रीकृष्ण के नाम की ध्वनि, निकल रही है। भगवान् के प्रिय भक्त ऐसे ही होते हैं।

भगवान् श्रीकृष्ण के कोमल स्पर्श से अर्जुन की निद्रा और प्रगाढ़ हो गयी। भगवान् भूल गए कि वे पार्थ को जगाने भीतर आये हैं। भगवान् शंकर जी ने द्वार पर तीक्षा करने के पश्चात् ब्रह्मा जी का स्मरण किया। हंसवाहन चतुर्मुख सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी के आने पर भगवान् शिवजी ने उन्हें अर्जुन को जगाने के लिए अर्जुन के कक्ष में भेजा।

कुछ परिणाम न मिलने पर आशुतोष भगवान् शिवजी ने देवर्षि नारद जी का आह्वान किया। देवर्षि वीणा की झंकृति के साथ 'नारायण, नारायण, नारायण' कहते हुए अर्जन के कक्ष में गए, परन्तु अन्दर कक्ष से कोई भी नहीं लौटा। भगवती पार्वती जी ने कहा कि 'प्रभो! वहाँ तो जो जाता है, वहीं का हो जाता है। पता नहीं वहाँ क्या हो रहा है?' महादेव जी ने कहा कि 'देवी!

यह सत्संग तथा नाम-स्मरण की महिमा है।

आइये! अब हम स्वयं चलते हैं।' भोले नाथ भगवान् शंकर जी ने देवी उमा को वृषभ से उतारा और उनके साथ वे भक्त अर्जुन के अन्त:पुर में पधारे। उन्होंने देखा कि अर्जुन शयन कर रहा है, सुभद्रा जी उन्हें पंखा झल रही हैं। ऊधव के हाथ में भी पंखा है।

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वहाँ सत्यभामा जी आती हैं, वे सुभद्रा का स्थान ले लेती हैं। रुक्मिणी जी भी पार्थ की सेवा मे लगी हैं। स्वयं त्रिलोकीनाथ अपनी प्रिया के साथ अर्जुन पर कृपा बनाए हुए हैं। यह दृश्य देखते ही ब्रह्मा जी | भाव विह्वल होकर अपने चारों मुखों से वेद-स्तुति करने लगे। सृष्टिकर्ता ही अपना मान भूल गये। यह भक्त और भगवान् की लीला है, ध्यान-लीला दर्शन है।

देवर्षि वीणा की झंकार के साथ संकीर्तन में संलग्न हैं। भगवान् शंकर भी नृत्य करने लगे। अर्जुन के रोमरोम से भगवद्-नाम की ध्वनि ने सभी को आत्म-विस्मृत करके प्रेममत्त बना दिया। देखो,

इस लीला दर्शन से अज्ञान, माया तथा भ्रान्तियाँ दूर होती हैं।

जिनकी बुद्धि शुद्ध हो जाती है, वे निरन्तर भगवान् का ही भजन-ध्यान करते रहते हैं। भगवान् की आज्ञा में रहते हुए कर्म करते हैं। भगवान् से कुछ माँगना है तो उनसे उनकी भक्ति, प्रेम तथा कृपा की ही याचना करनी चाहिए जिससे भगवान् की स्मृति सदा बनी रहे।

जीवों को नाम-स्मरण में प्रवृत करने के लिए ही सच्चे सन्तों एवं सद्गुरुजनों का इस धरा पर आना होता है। अवतार स्वरूप सद्गुरुजन जीवों के कल्याण के लिए ही आते हैं।

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