सुंदर दृष्टांत- कर्तव्य पालन से मुक्ति

सुंदर दृष्टांत- कर्तव्य पालन से मुक्ति  

Discharge from duty

जबाला के पुत्र- सत्यकाम ने महात्मा हारिद्रुमत गौतम की आज्ञा का पालन किया | उसने यह निश्चय कर लिया कि जो बात गुरुजी ने कही है, उसका अक्षरशः पालन करना चाहिए | वह अपना कर्तव्य समझकर उसके पालन के लिए तत्पर हो गया और मन लगाकर उसने वह कार्य किया | गौओं की सेवा करते करते ही उसे ब्रह्म की प्राप्ति हो गई | गुरु ने चार सौ दुर्बल गौएँ अलग निकालकर उससे कहा था कि तू इन गौओं के पीछे जा और इनकी सेवा कर | कितने आश्चर्य की बात है | देखने में तो यह कोई ब्रह्म की प्राप्ति का साधन नहीं है | वह तो आया था गुरु की सेवा में परमात्मा की प्राप्ति के लिए और गुरु ने कह दिया कि तुम गौओं के पीछे जाओ | पर उसको यह दृढ़ विश्वास था कि गुरु की आज्ञा का पालन करने से परमात्मा की प्राप्ति अपने आप अवश्य होगी | गुरुजी जो कुछ कहते हैं, मेरे कल्याण के लिए ही कहते हैं | उसको यह पूरा निश्चय था | नहीं तो वह इस प्रकार कैसे करता |उसका परिणाम भी परम कल्याणकारी हुआ उसे परमात्मा की प्राप्ति हो गई और आगे चलकर वह भी एक उच्च कोटि का आचार्य बन गया | उसके पास भी विद्यार्थी लोग शिक्षा लेने के लिए आने लगे | उसको यह विश्वास था कि जैसे मुझको अपने आप ही गुरु की कृपा से परमात्मा की प्राप्ति हो गई , इसी प्रकार मेरे समीप रहने वालों को भी हो जानी चाहिए |

उपकौशल नाम का उसका एक शिष्य था | 

उसको गुरु की तथा अग्नियों की सेवा करते करते बारह वर्ष बीत गए , किंतु आचार्य ने अन्य ब्रह्मचारी ओं को तो समावर्तन संस्कार करके विदा कर दिया , केवल उसी को नहीं किया | तब एक दिन सत्यकाम से उनकी धर्मपत्नी ने कहा-- स्वामी यह ब्रह्मचारी बड़ी तपस्या कर चुका है |इसने आपकी और अग्निओं की भी भली-भांति सेवा की है | अतः इसे ब्रह्म का उपदेश करना चाहिए | परंतु सत्यकाम उसे उपदेश दिए बिना ही बाहर वन की ओर चले गए, क्योंकि उनको यह पूरा विश्वास था कि यह श्रद्धालु है और कर्तव्य का पालन कर रहा है, इसलिए इसे अपने आप ही निश्चित ब्रम्ह की प्राप्ति हो जाएगी | पत्नी के अनुरोध करने पर भी वे अपने निश्चय पर डटे रहे और ब्रह्म का उपदेश दिए बिना ही चले गए | इससे उपकोशल ने अपने आप को आयोग्य समझा और दुखी होकर यह निश्चय किया कि जब तक मुझे गुरुजी ब्रह्म का उपदेश नहीं देंगे तब तक मैं उपवास रखूंगा | तदनंतर गुरूपत्नी ने उसे भोजन के लिए आग्रह किया , किंतु उसने मानसिक व्याधि बताकर भोजन नहीं किया |अग्नि साला में तीन कुंडों में तीन अग्निया होती हैं ---  १- गार्हपत्याग्नि, २- दक्षिणाग्नि, ३- आहवनीयाग्नि | जिसमें नित्य हवन किया जाता है, उसका नाम आहवनीय अग्नि है | 

पूर्णमासी तथा अमावस्या के दिन जिसमें हवन किया जाता है 

वह दक्षिणाग्नि है और जिसमें बलि वैश्वदेव किया जाता है वह गार्हपत्याग्नि है | गार्हपत्याग्नि का मतलब जिससे ग्रहस्थ का काम चले | जब मनुष्य का विवाह होता है तब विवाह में हवन की अग्नि ससुर के यहां से लाई जाती है और जीवन पर्यंत उसमें वह  बलिवैस्वदेव करता रहता है तथा मरने के बाद उसी अग्नि में उसकी अंत्येष्टि क्रिया होती है | विवाह से लेकर मरण पर्यंत वह अग्नि अटल रहती है,उसे निरंतर कायम रखा जाता हैवे तीनों अग्नियां अग्निशाला में हवन कुंड से प्रकट हुई और आपस में उनकी इस प्रकार बातें होने लगी कि यह उपकोशल नाम का लड़का गुरु की, गुरू पत्नी की और हम लोगों की बड़ी भारी सेवा करता है | इसलिए इसको हम लोग ब्रम्ह का उपदेश करें |फिर गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आहवनीय अग्नियों ने क्रमशः उसे ब्रम्ह का उपदेश दिया , जिससे उसे ब्रह्म ज्ञान हो गया |ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति होने के पश्चात गुरुजी भी वन से लौटकर आए | गुरु जी ने उपकौशल से कहा तेरा मुख ब्रह्मवेता के सामान शांत जान पड़ता है, 

तुझे किसने ब्रह्म का उपदेश किया है | 

उपकौशल ने अंगुलियों से अग्नियों की ओर संकेत करके बतलाया कि इन अग्नियों ने मुझको उपदेश दिया है | सत्यकाम ने पूछा उन्होंने क्या उपदेश दिया ? और कौशल ने अग्नियों ने ब्रह्म विषयक जो कुछ उपदेश दिया था वह ज्यों का त्यों सुना दिया और कहा कि, अब कृपया आप बतलाइए | इस पर सत्यकाम ने उसे विस्तार के साथ ब्रह्म का उपदेश दिया |सत्यकाम के हृदय में कितना दृढ़ विश्वास था कि निश्चय ही उसे अपने आप ही ब्रह्म की प्राप्ति होगी | यह दृढ़ विश्वास इसलिए था कि उन्हें स्वयं इसी प्रकार ब्रह्म की प्राप्ति हुई थी | इससे हम लोगों को समझना चाहिए कि मनुष्य जब अपने कर्तव्य का पालन करता रहता है , तब एक दिन अवश्य उसे ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है | इसके लिए सत्यकाम का उदाहरण आदर्श है | सत्यकाम के गुरुजी महापुरुष थे, उनकी कृपा से सत्यकाम को  परमात्मा की प्राप्ति हो गई और महात्मा सत्यकाम की सेवा करने पर उनकी कृपा से  उपकौशल को परमात्मा की प्राप्ति हो गई |जो साधक महापुरुषों की आज्ञा के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करता रहता है, उनको उनकी कृपा से निश्चय ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है | फिर जो भगवान की आज्ञा के अनुसार अनन्य शरण होकर अपने कर्तव्य का पालन करता है, उसका कल्याण होने में तो कहना ही क्या ?भक्त प्रहलाद निष्काम भाव से अपने कर्तव्य का पालन करते रहे |

सुंदर दृष्टांत- कर्तव्य पालन से मुक्ति  

उन्होंने कभी दर्शन देने के लिए भी भगवान से प्रार्थना नहीं कि | 

उन पर भारी से भारी अत्याचार होते रहे किंतु उन्होंने कभी अपने कर्तव्य पालन से मुंह नहीं मोड़ा | इस प्रकार करते करते एक दिन वह आया जबकि स्वयं भगवान नरसिंह रूप में प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिए और पहलाद से कहा--- प्रिय, वत्स ! कहां तो तेरा कोमल शरीर और तेरी सुकुमार अवस्था और कहां उस उन्मत्त दैत्य के द्वारा की हुई तुझ पर दारुण यातनाएं | अहो यह कैसा अभूतपूर्व प्रसंग देखने में आया ! मुझे आने में देर हो गई हो तो मुझे क्षमा कर |   यह सुनकर पहलाद जी लज्जित हो गए और बोले---  महाराज आप यह क्या कहते हैं | उसके बाद भगवान नरसिंह पृहलाद से बोले कि तेरी इच्छा जो हो सो वरदान मांग |इसपर पृहलाद जी ने कहा-- प्रभो मैं जन्म से ही विषयों भोगों में आसक्त हूं , अब मुझे इन वरों के द्वारा आप लुभाइये नहीं | मैं उन लोभों से भयभीत होकर-- उनसे निर्विण्ण होकर उनसे छूटने की इच्छा से ही आपकी शरण में आया हूं | 

भगवन मुझे में भक्तों के लक्षण हैं या नहीं, 

यह जानने के लिए आपने अपने भक्त को वरदान मांगने को प्रेरित किया है | यह विषय भोग हृदय की गांठ को और भी मजबूत करने वाले तथा बार-बार जन्म मृत्यु के चक्कर में डालने वाले हैं | जगतगुरु परीक्षा के सिवा ऐसा कहने का और कोई कारण नहीं दिखता | क्योंकि आप परम दयालु हैं | आपके जो सेवक अपनी कामनाएं पूर्ण करना चाहता है, वह सेवक नहीं वह तो लेनदेन करने वाला बनिया है | जो स्वामी से अपनी कामनाओं की पूर्ति चाहता है और वह सेवक नहीं और जो सेवक से सेवा कराने के लिए ही उसका स्वामी बनने के लिए उसकी कामनाएं पूर्ण करता है तो है स्वामी नहीं | 

मैं आपका निष्काम सेवक हूं और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं | 



जैसे राजा और उसके सेवकों का प्रयोजनवश स्वामी सेवक का संबंध रहता है , वैसा तो मेरा और आपका संबंध है नहीं |  मेरे स्वामी | यदि आप मुझे मुहं मागा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिए कि मेरे हृदय में कभी किसी कामना का बीज अंकुरित ही ना हो यह है निष्काम भाव !  निष्काम का स्तर सबसे ऊंचा है | फिर भी हम भगवान से अपनी आत्मा के कल्याण के लिए , परमात्मा के दर्शन के लिए भगवान में प्रेम होने के लिए प्रार्थना करें | तो वह कामना शुद्ध होने के कारण निष्काम ही है |

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