गायत्री मंत्र की शक्ति
gayatri mantra ki shakti
भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का उद्गम स्रोत गायत्री
भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति (अच्छे संस्कार) का उद्गम (आरंभिक शान स्थान वेद माता गायत्री ही है। गायत्री समस्त ज्ञान का भण्डार है।
गायत्री विश्व शान्ति एवं मानव कल्याण का माध्यम बनती है। गायत्री ज्ञान से प्राणीमात्र के कल्याण की सम्भावनाएँ (उम्मीदें) बढ़ती हैं। गायत्री की तरह यज्ञ से भी जीव का कल्याण होता है। यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं, यथा--
गायत्री विश्व शान्ति एवं मानव कल्याण का माध्यम बनती है। गायत्री ज्ञान से प्राणीमात्र के कल्याण की सम्भावनाएँ (उम्मीदें) बढ़ती हैं। गायत्री की तरह यज्ञ से भी जीव का कल्याण होता है। यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं, यथा--
देव पूजा 2. दान 3. संगतिकरण।
करण का अर्थ है- प्रभु से प्रेम होना, उनके साथ एकाकार होना। आध्यात्मिक क्षेत्र में जहाँ कहीं भी भक्ति शब्द का प्रयोग हआ है वहाँ उसका प्रच्छन्न (छिपा, ढपा हुआ) अर्थ प्रभु-प्रेम ही होता है।
ईश्वर के प्रति प्रेम की सीमा) ही समर्पण, शरणागति कहलाती है। यह समर्पण वहीं हो जहाँ उच्च आदेशों का समुच्चय (मिलान) हो।
यह भगवान और सदगरु के तिरिक्त दूसरा कोई हो ही नहीं सकता। अत: जहाँ कहीं भी इस प्रकार का समर्पण होता है,
ईश्वर के प्रति प्रेम की सीमा) ही समर्पण, शरणागति कहलाती है। यह समर्पण वहीं हो जहाँ उच्च आदेशों का समुच्चय (मिलान) हो।
यह भगवान और सदगरु के तिरिक्त दूसरा कोई हो ही नहीं सकता। अत: जहाँ कहीं भी इस प्रकार का समर्पण होता है,
वहाँ किसी की कृपा बरसने की प्रतीक्षा नहीं की जाती।
वहाँ किसी प्रकार की याचना (कामना, माँगना) की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार का जो समर्पण होता है, वह विशुद्ध प्रेम भाव ही होता है। यही आदि और यही अंत है।
प्रभु-प्रेम से यात्रा आरम्भ कर व्यक्ति अन्तिम पडाव महाप्रेम अर्थात् ईश्वर-प्रेम में ही आकर ठहरता है।
पृथ्वी गोल है। अत: उसका कोई ओर-छोर (आरम्भ, अंत) नहीं है। चाहे जहाँ से यात्रा प्रारम्भ की जाए, अन्त में वहीं आना पड़ेगा, जहाँ से यात्रा का शुभारम्भ किया था।
इसी प्रकार प्रभु-प्रेम का श्रीगणेश चाहे जिस रूप में, जहाँ से भी किया जाए, उसका समापन्न (समाप्ति) उस महाप्रेम में ही होगा जिसे महापुरुषों ने 'रसो वै सः' कहकर सम्बोधित किया है। ये सब सद्गुरुदेव जी की कृपा से ही सम्भव है।
इसलिए हम महापुरुषों तथा सद्गुरुजनों की चरण-सेवा करते हैं, उन्हें अपनी आत्मा के तुल्य प्यार करते हैं और सम्मान देते हैं। उनके चरण-स्पर्श से हमारा जीवन तथा स्वभाव सुधरता है और चित्त चेतन होता है।
सद्गुरुजनों के सत्संग तथा सद्ज्ञान से मन में प्रकाश तथा ज्ञान-ज्योति का प्राकट्य होता है। सद्गुरुजनों द्वारा बतलाए गए सद्-मार्ग पर चलकर श्रद्धालु जन अपना ईश्वर प्राप्ति का लक्ष्य साध (प्राप्त कर) लेता है।
प्रभु-प्रेम से यात्रा आरम्भ कर व्यक्ति अन्तिम पडाव महाप्रेम अर्थात् ईश्वर-प्रेम में ही आकर ठहरता है।
पृथ्वी गोल है। अत: उसका कोई ओर-छोर (आरम्भ, अंत) नहीं है। चाहे जहाँ से यात्रा प्रारम्भ की जाए, अन्त में वहीं आना पड़ेगा, जहाँ से यात्रा का शुभारम्भ किया था।
इसी प्रकार प्रभु-प्रेम का श्रीगणेश चाहे जिस रूप में, जहाँ से भी किया जाए, उसका समापन्न (समाप्ति) उस महाप्रेम में ही होगा जिसे महापुरुषों ने 'रसो वै सः' कहकर सम्बोधित किया है। ये सब सद्गुरुदेव जी की कृपा से ही सम्भव है।
इसलिए हम महापुरुषों तथा सद्गुरुजनों की चरण-सेवा करते हैं, उन्हें अपनी आत्मा के तुल्य प्यार करते हैं और सम्मान देते हैं। उनके चरण-स्पर्श से हमारा जीवन तथा स्वभाव सुधरता है और चित्त चेतन होता है।
सद्गुरुजनों के सत्संग तथा सद्ज्ञान से मन में प्रकाश तथा ज्ञान-ज्योति का प्राकट्य होता है। सद्गुरुजनों द्वारा बतलाए गए सद्-मार्ग पर चलकर श्रद्धालु जन अपना ईश्वर प्राप्ति का लक्ष्य साध (प्राप्त कर) लेता है।
गायत्री मंत्र की शक्ति
gayatri mantra ki shakti
"आध्यात्मिक-जीवन पद्यावली"
[ आत्म-प्रेरणा ]
धर्म का संगी न मिलने पै शोक में कभी न खोये,
धार्मिक जन का जीवन खोजे कभी हुआ जो कोये।
पूर्ण प्रज्ञ सर्वज्ञ की चर्या में श्रद्धा राख प्रीति;
उन्हीं के पद चिन्हों का हो अनुगम, छोड़े न उनकी रीति।।