भगवान् से मिलने का साधन
पूर्ण शरणागति तथा भगवान् के प्रति विशुद्ध प्रेम ही उनसे मिलने का | साधन है। मुख में प्रभु का नाम हो, हाथ से प्रभु का काम हो, निष्काम सेवा हो तथा हृदय में प्रभु का ध्यान हो तो भगवत्प्राप्ति सम्भव हो जाती है।
शुद्ध सत्संग के प्रभाव से यदि कोई भगवान् की अमोघ कृपा का आश्रय ग्रहण कर लेता है तो दयामय भगवान् अनुग्रह करके उसके हृदय से विषय-भोग की कामना, वासना को दूर करके, उसमें अपने चरणारविन्द-सेवन का भाव उत्पन्न कर देते हैं।
सद्गुरुदेव भगवान् के श्रीचरणों की प्रीत से मन वश में हो जाता है। भगवान् के श्रीचरणकमल सुगन्धित फूलों का उपवन है जो कि मन रूपी भँवरे को |
अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। मन उस प्रेम रूपी सुगन्ध में स्थिर हो जाता है | और फिर वहाँ से लौटना नहीं चाहता। यह है भगवान् की भक्ति। मन को भगवान् का वह प्रेम मिलता है जो कि शाश्वत होता है।
यह नियम है। इसलिए मन से ही भगवान् की साधना करनी होती है। सद्गुरुजनों का कहना है कि साधक को 'वासुदेव: सर्वं' का अनुभव हो जाने पर भी सत्संग, भजन करते रहना चाहिए। उच्चकोटि के सन्त, महात्मा एकान्तवास करते हैं। वे किसी से भी राग-द्वेष नहीं करते। उनकी कोई कामना नहीं रहती।
संसार के विषयों के प्रति उनका मन मर जाता है। इसका अर्थ है कि उनका मन भगवान में लीन हो जाता है। उनके मन की भटकन मिट जाती है।
भगवान् उनके मन-मन्दिर में बस जाते हैं, जिस साधक, भक्त को भगवान् की लगन लग जाती है, उसका संसार के प्रति आकर्षण धीरे-धीरे कम होता जाता है, राग-द्वेष मिट जाता है और सांसारिक कामनाएँ भी मिट जाती है।
और हृदय में भगवान् के प्रति प्रीति होने लगती है। ऐसा होने पर संसार का महत्त्व । उस साधक भक्त के लिए धीरे-धीरे कम हो जाता है। उसका संसार से सम्बन्ध-/ विच्छेद होने लगता है और भगवान् के प्रति उसका प्रेम बढ़ने लगता है।
जब तक मन में संसार के प्रति आसक्ति है, राग-द्वेष है, तबतक मनुष्य को || संसार सत्य ही दीखेगा। जब भीतर सब के प्रति समता आ जाएगी, तब ही सर्वत्र । भगवान् ही दिखाई देंगे।
शुद्ध सत्संग के प्रभाव से यदि कोई भगवान् की अमोघ कृपा का आश्रय ग्रहण कर लेता है तो दयामय भगवान् अनुग्रह करके उसके हृदय से विषय-भोग की कामना, वासना को दूर करके, उसमें अपने चरणारविन्द-सेवन का भाव उत्पन्न कर देते हैं।
सद्गुरुदेव भगवान् के श्रीचरणों की प्रीत से मन वश में हो जाता है। भगवान् के श्रीचरणकमल सुगन्धित फूलों का उपवन है जो कि मन रूपी भँवरे को |
अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। मन उस प्रेम रूपी सुगन्ध में स्थिर हो जाता है | और फिर वहाँ से लौटना नहीं चाहता। यह है भगवान् की भक्ति। मन को भगवान् का वह प्रेम मिलता है जो कि शाश्वत होता है।
उस परमानन्द का वर्णन नहीं हो सकता।
भगवान् की स्मृति में भक्त की आँखों से प्रेम अश्रु बहने लगते हैं। भक्त भगवान् के प्रेम में ही भाव-विभोर रहता है। निष्काम, विशुद्ध प्रेम ही एक ऐसा है जो हमेंभगवान् से मिला सकता है। जब मन भगवान् के सम्मुख होता है तब जीवात्मा भी भगवान् के सम्मुख हो जाती है।यह नियम है। इसलिए मन से ही भगवान् की साधना करनी होती है। सद्गुरुजनों का कहना है कि साधक को 'वासुदेव: सर्वं' का अनुभव हो जाने पर भी सत्संग, भजन करते रहना चाहिए। उच्चकोटि के सन्त, महात्मा एकान्तवास करते हैं। वे किसी से भी राग-द्वेष नहीं करते। उनकी कोई कामना नहीं रहती।
संसार के विषयों के प्रति उनका मन मर जाता है। इसका अर्थ है कि उनका मन भगवान में लीन हो जाता है। उनके मन की भटकन मिट जाती है।
भगवान् उनके मन-मन्दिर में बस जाते हैं, जिस साधक, भक्त को भगवान् की लगन लग जाती है, उसका संसार के प्रति आकर्षण धीरे-धीरे कम होता जाता है, राग-द्वेष मिट जाता है और सांसारिक कामनाएँ भी मिट जाती है।
भगवत्प्राप्ति का मार्ग यही है।
जप, ध्यान तथा सत्संग आदि से विवेक का विकास होता है, भगवान् की सम्मुखता होती है, अन्त:करण में पारमार्थिक (भगवत्प्राप्ति की) रुचि पैदा होती है ।और हृदय में भगवान् के प्रति प्रीति होने लगती है। ऐसा होने पर संसार का महत्त्व । उस साधक भक्त के लिए धीरे-धीरे कम हो जाता है। उसका संसार से सम्बन्ध-/ विच्छेद होने लगता है और भगवान् के प्रति उसका प्रेम बढ़ने लगता है।
जब तक मन में संसार के प्रति आसक्ति है, राग-द्वेष है, तबतक मनुष्य को || संसार सत्य ही दीखेगा। जब भीतर सब के प्रति समता आ जाएगी, तब ही सर्वत्र । भगवान् ही दिखाई देंगे।
"वासुदेव: सर्वं"
-गीता-अ07 श्लोक-19
राग के रहने के पाँच स्थान बताये हैं, यथा-पदार्थ में, इन्द्रियों में, मन में, बुद्धि में और अहं में। जब स्वयं में राग नहीं रहेगा, तब इन सब जगह भगवान्-हीभगवान् दिखाई देंगे।
राग छोड़ना भी साधन है और सब में परमात्मा को देखना भी भगवत्प्राप्ति का साधन है। कर्मयोगी राग का त्याग करता है और भक्ति योगी सब में परमात्मा को देखता है।
एक की सिद्धि होने से दोनों की सिद्धि हो जाती है। सब में परमात्मा को देखना सुलभ है क्योंकि सभी परमात्मा के अंश स्वरूप हैं। देखो. राग-द्वेष का कारण संसार विकति है। यदि राग-द्वेष न हो तो संसार भगवत्स्वरूप है।
बुद्धि में जड़ता नहीं हो तो यह संसार चिन्मय (ज्ञानमय, परमेश्वर) है। कर्मयोगी को मर्यादा के अनुसार सब के साथ यथायोग्य व्यवहार करना किसी को बुरा न समझे और किसी का भी अपमान, तिरस्कार न करे बुद्धि में विवेक बना रहता है और उच्चकोटि के विद्वान्, विरक्त, त्यागी सन्तों एवं सद्गुरुजनों का संग व सत्यकार रहने से साधक को अनुभव होता है कि प्रकृति परमात्मा की शक्ति है प्राणी स्वीकार कर लेता है कि मैं नहीं हूँ' अपितु केवल भगवान ही सबक हैं,
राग के रहने के पाँच स्थान बताये हैं, यथा-पदार्थ में, इन्द्रियों में, मन में, बुद्धि में और अहं में। जब स्वयं में राग नहीं रहेगा, तब इन सब जगह भगवान्-हीभगवान् दिखाई देंगे।
राग छोड़ना भी साधन है और सब में परमात्मा को देखना भी भगवत्प्राप्ति का साधन है। कर्मयोगी राग का त्याग करता है और भक्ति योगी सब में परमात्मा को देखता है।
एक की सिद्धि होने से दोनों की सिद्धि हो जाती है। सब में परमात्मा को देखना सुलभ है क्योंकि सभी परमात्मा के अंश स्वरूप हैं। देखो. राग-द्वेष का कारण संसार विकति है। यदि राग-द्वेष न हो तो संसार भगवत्स्वरूप है।
बुद्धि में जड़ता नहीं हो तो यह संसार चिन्मय (ज्ञानमय, परमेश्वर) है। कर्मयोगी को मर्यादा के अनुसार सब के साथ यथायोग्य व्यवहार करना किसी को बुरा न समझे और किसी का भी अपमान, तिरस्कार न करे बुद्धि में विवेक बना रहता है और उच्चकोटि के विद्वान्, विरक्त, त्यागी सन्तों एवं सद्गुरुजनों का संग व सत्यकार रहने से साधक को अनुभव होता है कि प्रकृति परमात्मा की शक्ति है प्राणी स्वीकार कर लेता है कि मैं नहीं हूँ' अपितु केवल भगवान ही सबक हैं,
तब उसमें विवेक जागृत होता है।
मनुष्य विवेक का आदर करे। यदि साधक विवेक विरुद्ध कार्य न करे सद्गुरुदेव की कृपा से उसका विवेक बढ़ता जाता है। विवेक की आवश्यक जड़ता का आकर्षण मिटाने के लिए है। विवेक से वैराग्य होता है और वैराग्य से ज्ञान स्थिर रहता है।
कामना वाले व्यक्ति के लिए भगवान् साध्य नहीं हैं। साधक, भक्त के मन में यदि संसार की कामना जागृत हो जाए तब उसका भगवान् के प्रति नाम-स्मरण तथा भजन छूट जाता है। साधक, भक्त को अपना मन सदा भगवान् के श्री चरण कमलों में ही लगाए रखने का आदेश है।
कामना वाले व्यक्ति के लिए भगवान् साध्य नहीं हैं। साधक, भक्त के मन में यदि संसार की कामना जागृत हो जाए तब उसका भगवान् के प्रति नाम-स्मरण तथा भजन छूट जाता है। साधक, भक्त को अपना मन सदा भगवान् के श्री चरण कमलों में ही लगाए रखने का आदेश है।
मन के संयोग से ही सभी कार्य होते हैं।
जब मन भगवान् में लग जाएगा, तो जीवात्मा स्वयं भगवान् के सम्मुख हो जाएगी। फिर कोई विकृति (विकार, दोष) नहीं रहेगी, शंका मिट जायेगी और भगवत्प्राप्ति भी हो जाएगी।