आध्यात्मिक ज्ञान की बातें- राग और प्रेम में क्या अन्तर है ? What is the difference between passion and love?

राग और प्रेम में क्या अन्तर है ?
किसी के प्रति राग होने पर, उसमें अवगुण, द्वेष होने पर भी व्यक्ति विशेष में वे अवगुण दिखाई नहीं देते।
राग में आग्रह होता है, आसक्ति होती है, कामना होती है और इसमें बाधा आने पर क्रोध आता है। साधन-सत्संग आदि में राग होने पर भगवान के प्रति प्रेम बढ़ता है और उस क्रिया में बाधा आने पर रोना आयेगा। जब । पहचान यही है।
हृदय में भगवद्-प्रेम उमड़ता है, तो साधक रोता है। राग (आग्रह) और प्रेम की यही पहचान है
राग में आग्रह होता है, आसक्ति होती है, कामना होती है और इसमें बाधा आने पर क्रोध आता है। साधन-सत्संग आदि में राग होने पर भगवान के प्रति प्रेम बढ़ता है और उस क्रिया में बाधा आने पर रोना आयेगा। जब । पहचान यही है।
हृदय में भगवद्-प्रेम उमड़ता है, तो साधक रोता है। राग (आग्रह) और प्रेम की यही पहचान है
मुक्त पुरुषों में सूक्ष्म अहम् कैसे रह जाता है ?
मुक्त परुषों में अपने मत का आग्रह (राग) रहने से उनमें अहं रह जाता है। यह सूक्ष्म अहं कोई विकार पैदा करने वाला तो नहीं होता. पर मतभेद पैदा करने वाला होता है।
मुक्त पुरुष में अभिमान शून्य अहम् ऐसे ही दिखाई देता है, जैसे जले हुए कागज पर अक्षर दिखाई देते हैं। सूक्ष्म अहम् रहने से उन मुक्त महापुरुषों का पुन: जन्म तो हो सकता है, पर पुनः पतन (बन्धन) नहीं हो सकता।
जैसे जड़भरत को अन्तकाल में हिरण का चिन्तन होने से उन्हें हरिण का शरीर मिला तो भी उनका पतन नहीं हुआ।
हरिण के जन्म में भी वे सूखे पत्ते खाकर संयम से रहते थे। शरीर का पुन: मिलना (पुनर्जन्म होना) पतन नहीं है, प्रत्युत् भीतरी स्थिति से नीचे गिरना पतन है।
भगवान् का ही आश्रय होने से भगवान् भक्त के आग्रह (राग) को स्वयं मिटा देते हैं। उसे परम प्रेम की प्राप्ति होती है। परम प्रेम को ही पराभक्ति कहते हैं।
पराभक्ति (परम प्रेम) की प्राप्ति होने पर यह सूक्ष्म अहम् सर्वथा मिट जाता है।
मुक्त परुषों में अपने मत का आग्रह (राग) रहने से उनमें अहं रह जाता है। यह सूक्ष्म अहं कोई विकार पैदा करने वाला तो नहीं होता. पर मतभेद पैदा करने वाला होता है।
मुक्त पुरुष में अभिमान शून्य अहम् ऐसे ही दिखाई देता है, जैसे जले हुए कागज पर अक्षर दिखाई देते हैं। सूक्ष्म अहम् रहने से उन मुक्त महापुरुषों का पुन: जन्म तो हो सकता है, पर पुनः पतन (बन्धन) नहीं हो सकता।
जैसे जड़भरत को अन्तकाल में हिरण का चिन्तन होने से उन्हें हरिण का शरीर मिला तो भी उनका पतन नहीं हुआ।
हरिण के जन्म में भी वे सूखे पत्ते खाकर संयम से रहते थे। शरीर का पुन: मिलना (पुनर्जन्म होना) पतन नहीं है, प्रत्युत् भीतरी स्थिति से नीचे गिरना पतन है।
भगवान् का ही आश्रय होने से भगवान् भक्त के आग्रह (राग) को स्वयं मिटा देते हैं। उसे परम प्रेम की प्राप्ति होती है। परम प्रेम को ही पराभक्ति कहते हैं।
मुक्त पुरुष में अभिमान शून्य अहम् ऐसे ही दिखाई देता है, जैसे जले हुए कागज पर अक्षर दिखाई देते हैं। सूक्ष्म अहम् रहने से उन मुक्त महापुरुषों का पुन: जन्म तो हो सकता है, पर पुनः पतन (बन्धन) नहीं हो सकता।
जैसे जड़भरत को अन्तकाल में हिरण का चिन्तन होने से उन्हें हरिण का शरीर मिला तो भी उनका पतन नहीं हुआ।
हरिण के जन्म में भी वे सूखे पत्ते खाकर संयम से रहते थे। शरीर का पुन: मिलना (पुनर्जन्म होना) पतन नहीं है, प्रत्युत् भीतरी स्थिति से नीचे गिरना पतन है।
भगवान् का ही आश्रय होने से भगवान् भक्त के आग्रह (राग) को स्वयं मिटा देते हैं। उसे परम प्रेम की प्राप्ति होती है। परम प्रेम को ही पराभक्ति कहते हैं।
पराभक्ति (परम प्रेम) की प्राप्ति होने पर यह सूक्ष्म अहम् सर्वथा मिट जाता है।
भगवन्नाम ही हमारे जीवन का साथी है।
मनुष्य-मनुष्य के बीच जहाँ प्रेम का आचरण और सहयोग का सम्बन्ध होना चाहिए, वहाँ पर जब ईर्ष्या, द्वेष, असूया (दूसरे के गुणों में दोष देखना) और द्रोह (वैर) का सम्बन्ध बढ़ने लगता है, उस स्थिति को कलियुग कहते हैं। कलियुग के प्रभाव को दूर किया जा सकता है।
भगवान् की दिव्य लीलाओं का ध्यान-स्मरण करना, सच्चे सन्तों, भक्तों एवं सद्गुरुजनों के जीवन-चरित का श्रवण, पठन एवं मनन करना और भगवन्नाम का आश्रय लेना, यही कलियुग के प्रभाव से बचने का उत्तम साधन है।
हम अपना अनुभव बतलाते हैं, वह यह कि भगवन्नाम ही हमारे जीवन का साथी और हमारा हाथ पकड़ने वाला परम गुरु है। भगवन्नाम लेते ही भक्तों के में भगवद्-प्रेम उमड़ पड़ता है।
यही है भक्ति की परमावस्था और यही है सच्चा नाम-स्मरण भगवन्नाम श्रद्धा और प्रेमपूर्वक लेने से भगवान् की दिव्य लीलाओं का है। सच बात तो यह है कि नाम-जाप, नाम-स्मरण सरलता से हो नाम जपने में कोई विधि नहीं है।
भगवान् की दिव्य लीलाओं का ध्यान-स्मरण करना, सच्चे सन्तों, भक्तों एवं सद्गुरुजनों के जीवन-चरित का श्रवण, पठन एवं मनन करना और भगवन्नाम का आश्रय लेना, यही कलियुग के प्रभाव से बचने का उत्तम साधन है।
हम अपना अनुभव बतलाते हैं, वह यह कि भगवन्नाम ही हमारे जीवन का साथी और हमारा हाथ पकड़ने वाला परम गुरु है। भगवन्नाम लेते ही भक्तों के में भगवद्-प्रेम उमड़ पड़ता है।
यही है भक्ति की परमावस्था और यही है सच्चा नाम-स्मरण भगवन्नाम श्रद्धा और प्रेमपूर्वक लेने से भगवान् की दिव्य लीलाओं का है। सच बात तो यह है कि नाम-जाप, नाम-स्मरण सरलता से हो नाम जपने में कोई विधि नहीं है।
मनुष्य किसी भी अवस्था में नाम जप कर सकता है।
गुरुदीक्षा मन्त्र जिसके साथ ॐ शब्द लगा हो. उस शिवत पवित्र स्थान पर बैठकर ही की जाती है। भगवन्नाम में पवित्र करने की शक्ति है। भगवन्नाम ही हमारे जीवन का आधार मंत्र है।
भक्त को ईश्वर की मंगलमयता पर नाम-स्मरण। भगवन्नाम श्रद्धा और पेय स्मरण होने लगता है। सच बात तो सकता है। भगवन्नाम जपने में जाप, नाम-स्मरण कर मन्त्र की उपासना विधिवत ।
हमें सद्गुरुजनों, सच्चे सन्तों तथा धर्म-शास्त्रों पर पूर्ण निष्ठा बनाये रखनी होगी,तभी भगवन्नाम हमारा सच्चा साथी और परमगुरु बन कर हमारी सब प्रकार से रक्षा करेगा।
भक्त को ईश्वर की मंगलमयता पर नाम-स्मरण। भगवन्नाम श्रद्धा और पेय स्मरण होने लगता है। सच बात तो सकता है। भगवन्नाम जपने में जाप, नाम-स्मरण कर मन्त्र की उपासना विधिवत ।
हमें सद्गुरुजनों, सच्चे सन्तों तथा धर्म-शास्त्रों पर पूर्ण निष्ठा बनाये रखनी होगी,तभी भगवन्नाम हमारा सच्चा साथी और परमगुरु बन कर हमारी सब प्रकार से रक्षा करेगा।