F ramcharitmanas manas भगवान से प्रेम कैसे होता जानें- रामचरित मानस - bhagwat kathanak
ramcharitmanas manas भगवान से प्रेम कैसे होता जानें- रामचरित मानस

bhagwat katha sikhe

ramcharitmanas manas भगवान से प्रेम कैसे होता जानें- रामचरित मानस

ramcharitmanas manas भगवान से प्रेम कैसे होता जानें- रामचरित मानस

भगवान् का प्रेम अन्तःकरण का सबसे बड़ा आकर्षण है।

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा |
किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ||
तन से कर्म करहु विधि नाना |
मन राखहु जहँ कृपानिधाना ||
मन ते सकल बासना भागी |
केवल राम चरन लय लागी ||
रामचरितमानस-(उत्तरकाण्ड- दोहा-62/1,-,110/3)
भगवान् के श्रीचरणकमल में अन्त:करण को जोड़ देना ही योग है। भगवान् के स्मरण और चिन्तन में एक आनन्द की अनुभूति होती है। भगवान् को यदि हम हृदय से प्यार करेंगे तो उनका ध्यान सदैव बना रहेगा।

उनका स्मरण और चिन्तन करने से प्रेम बढ़ेगा, हृदय में भगवान् के नाम की मस्ती छाई रहेगी और भगवान् से मिलने के लिए विरहाग्नि जागृत हो जाएगी। अन्त:करण का सबसे बड़ा आकर्षण प्रेम है।

भगवान् भक्त के अन्त:करण को अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। इससे भक्त का भगवान् से योग बना रहता है। बिना प्रेम के यदि बलपूर्वक मन को भगवान् में लगाया भी जाए तो वहाँ वह अधिक देर तक नहीं स्थिर रह सकता, क्योंकि मन चंचल है और यह हठात विषयो का आर चला जाता है।

जीवात्मा में जीवन है और वह हर चीज को अनुभव और अन्त में सभी कर्मों का उत्तरदायित्व जीव-आत्मा का ही है। ईश्वर को अपने कर्मों का हिसाब भी जीव-आत्मा को ही देना पड़ता है।

प्राण हमारी सोच और काम करता है, जिसे हम मन कहते हैं जो संसार की वस्तुओं में रुचि लेता हित होता है, उनमें लिप्त होता और आत्मा की आवाज को अनसुनीमन उन्हीं वस्तुओं में लिप्त रहता है क्योंकि संसार की चीजें शरीर वाली होती हैं, भले ही आत्मा उस में प्रसन्न न हो और अन्तरात्मा सकर्मों को करने से मना करे। मन को भगवान् में लगाने के लिए और अनवरत (सर्वदा, निरन्तर) प्रार्थना ही तो है।

इससे मन को है, उनसे उत्साहित होता है, उनमें लिप्त कर देता है। यह मन उन्हीं वस्तुओं में को आनन्द देने वाली होती हैं, भले मन को बार-बार ऐसे कर्मों को करने ही भगवन्नाम जप और अनवरत (स भगवान् में स्थिर करने तथा भगवान् से प्रेम करने की आदत लग जाती है।

अपने-आप को भगवान् के श्री चरणकमलों में समर्पित कर,

अपने कल्याण के लिा प्रार्थना करनी चाहिए, क्योंकि प्रार्थना भगवान् से मिलने का सर्वोत्तम साधन है।भगवन्नाम जप और प्रार्थना से ही भक्ति का उदय होता है।

शास्त्र तथा विधि अनुसार जीवन के सारे कर्तव्य (कार्यों) को करो, पर उन्हें भगवन्निमित्त करो। भोग-वासना से प्रेरित होकर कर्म नहीं करने चाहियें, पर कर्तव्य की प्रेरणा से. भगवद्-प्रेरणा से और हृदय की प्रेरणा से भगवत्-ऐक्य कर्म (भगवान् के हेतु, भगवान् से एकता बनाकर) सोच समझकर करने चाहिएँ।

इससे साधक, भक्त के सब कर्म पवित्र हो जाते हैं। शरीर को निरर्थक कष्ट देने से आत्म-तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती। जीव के अन्त:करण में जो वासना रूपी सर्पिणी छिपी हुई बैठी है, वह कर्मों का रस पीती रहती है।

यह वासना (खोटे संस्कार) असंख्य जन्मों के प्रारब्ध कर्मों का परिणाम है। केवल वाक्य-ज्ञान से इस वासना को नष्ट नहीं कर सकते। वासना को निर्मूल करने के लिए प्राणी को निष्काम भाव से भगवन्नाम की तथा सद्गुरुजनों की शरण लेनी ही होगी। श्री गुरुदेव भगवान् जी की कृपा को प्राप्त करके मनुष्य भगवत्प्राप्ति कर सकता है।

इससे मन में भगवान् के प्रति भक्ति-भाव का उदय होगा और उनसे प्रेम होगा।

सद्गुरुदेव जी की सेवा तथा उनकी आज्ञा का पालन करने से संसार-बन्धन क्षीण होगा और भगवान् के प्रति प्रेम जागृत होगा।

भगवान् से की गई प्रार्थना से, उनके ध्यान-चिन्तन से, स्मरण से तथा सद्गुरुजनों के सत्संग से हृदय के सभी विकार-वासनाएँ अपने-आप नष्ट हो जाती हैं। ध्यान ज्योतिस्वरूप परमात्मा का ही करें। इससे उस ज्योतिस्वरूप में अपने-आप इष्टस्वरूप का अनुभव होगा और अपनी पावन आत्मा का उसमें समावेश होगा।

भगवान् के चिन्मय, ज्ञानमय तथा आनन्दमय रूप का प्रकाश हृदय में आते ही अन्त:करण का अज्ञात जाता है। आत्म-साक्षात्कार, परमात्म-साक्षात्कार होते ही माया का बम है, हृदय की गाँठ खुल जाती है और कर्म-संस्कार नष्ट हो जाते हैं। भगवत्प्राप्ति में भगवान् की कृपा की आवश्यकता है। जब साधक अपने अन्त:करण को भगवत्स्मृति में लगा देता है, तब भगवान् की कपा दोबारा भगवत्कृपा ही भगवत्प्राप्ति का उपाय है।

अपने बल पर भगवत्प्राप्ति नहीं होती सत्य बात है। मनुष्य सदैव भूल करता रहता है। वह तो कमजोरी का पुतला है। उसके अन्त:करण (मन, बुद्धि, चित्त और अंहकार) में तृष्णा भरी हुई है, भोगवासना का विष भरा है और वासना रूपी सर्पिणी कर्मों का रस पीकर बलवती हो गयी है।

वह इन्द्रियों को विषयों की ओर ले जाती है। इसमें दुर्बल मानव क्या करे? भोग-वासना अपने संकेत पर मनुष्य को नचाती रहती है। शक्तिहीन मानव पाप करता है, दुःख भोगता है, पश्चाताप करता है और फिर पाप नहीं करने की प्रतिज्ञा भी करता है, परन्तु प्रलोभ रूपी भँवर में पड़कर वह फिर अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाता है और उसी पाप-गर्त में पुन: डूब जाता है।

जीव जीवन रूपी झोली में शुभ कर्मों के फूल चुनने आता है,

पर विषय-विकारों के कंकड़-पत्थर अपनी झोली में डाल लेता है। सद्गुरुदेव एवं सच्चे सन्तों की कृपा से ही मनुष्य अपने जीवन को सँवार पाता है और आत्म-तत्त्व को जान पाता है।

वासना के विराट् अन्धकार में विवेक रूपी प्रकाश काम नहीं करता, वहाँ तो केवल भगवत्कृपा का, प्रार्थना का और शरणागति का आधार ही काम आता है। अपने बल पर, निष्काम कर्म के द्वारा मनुष्य का मोक्ष प्राप्त करना अत्यन्त ही कठिन कार्य है।

जबतक जीव अपने-आप को भगवान् के श्रीचरणों में समर्पित (आत्मसमर्पण) नहीं कर देता और प्रार्थना के द्वारा, भगवन्नाम-जप के द्वारा, भगवान् की प्राप्ति में भगवान् की कृपा को ही उपाय नहीं समझ लेता, तबतक उसका उद्धार होना असम्भव है।

प्रपन्न (शरणागत) भक्त का सारा जीवन ही भगवत्-ऐक्य कर्म हो जाता है। सार्थना से प्रपत्ति (अनन्य भक्ति) की भावना परिपक्व (विकसित) होती है और समर्पण भाव आता है। जब व्यक्ति अपने-आपको भगवान् के श्रीचरणकमलों देता है तब सब कुछ भगवन्निमित्त, उनकी प्रीति-प्रसन्नता के लिए तथा उन्हीं सार ही वह कर्म करेगा।

इस प्रकार उस व्यक्ति की भोग-वासनाएँ अपनेजाती हैं। प्रपन्न मनुष्य का सारा जीवन ही भगवत्-ऐक्य कर्म (भगवान् के लिए कर्म करना) हो जाता है। प्रपन्न (शरणागत) व्यक्ति अपने समय, शक्ति और धन का कभी दुरुपयोग नहीं करता। वह समझता है कि ये सब कुछ भगवान् का है और भगवान् के लिए है।

जीवात्मा परमात्मा का अंश है।

अत: प्रत्येक नर-नारी का शरीर परमात्मा का मन्दिर है। साधक, भक्त का भगवान् के प्रति पूर्ण शरणागत होने पर उसमें किसी के प्रति । राग-द्वेष नहीं रहता।

वह श्रीहरि, सद्गुरुदेव जी की आज्ञा का पालन करता है। उनकी कृपा से वह सर्वत्र 'वासुदेव: सर्व' का अनुभव करता है और उसे भगवान् की लीलाओं में प्रवेश मिल जाता है। ऐसे भगवत्कृपा प्राप्त कर उसका मनुष्य जन्म सफल हो जाता है।

Ads Atas Artikel

Ads Center 1

Ads Center 2

Ads Center 3