भय और अभय,मीरा का विषपान/बुद्ध का गृह त्याग- mirabai buddha story

✳ भय और अभय ✳
भय और अभय,मीरा का विषपान/बुद्ध का गृह त्याग
 
संसार सागर से मनुष्य को पार करने में दोनों समर्थ हैं भय भी अभय भी , सच्चा भय हो या सच्चा अभय हो | जीवन की क्षणभंगुरता एवं मृत्यु की स्मृति मनुष्य यदि सचमुच मृत्यु से डरे, अमरत्व अवश्य उसका हो जाएगा |
अभय- अभय तो अभय स्वरूप श्री हरि के चरण कमलों का आश्रय पाए बिना प्राप्त होने से रहा |जिसने उन पाद पङ्कजों को अपना बना लिया है-- अभय वही है ! माया और मृत्यु उसकी छाया को भी दूर से नमस्कार करती हैं |

( भय का प्रभाव बुध का बैराग )

महाराज शुद्धोदन के एकमात्र कुमार सिद्धार्थ रथ पर बैठकर मंत्रीपुत्र छंदक के साथ नगर दर्शन करने निकले थे , राजाज्ञा हो चुकी थी कि युवराज के मार्ग में कोई वृद्ध, रोगी, कुरूप या मृतक शव ना आने पावे |

लेकिन सृष्टिकर्ता के विधान पर राजाज्ञा का प्रभाव पड़ता जो नहीं | संयोगवश एक बूढ़ा मार्ग में दीख गया | झुकी कमर जर्जर देह लाठी टेकता वृद्ध, जीवन में पहली बार सिद्धार्थ को पता लगा कि यौवन स्थिर नहीं है | सबको वृद्ध होना है-- स्वयं उन्हें भी |

     सिद्धार्थकुमार दूसरी बार नगर दर्शन करने निकले सारी सावधानी व्यर्थ गयी | इस बार मार्ग में एक रोगी दीखा | बार-बार भूमि पर गिरता, पछाडें खाता , मुख से फेन गिराता-- संभवतः मृगी का रोगी | दूसरे किसी रोग का भी रोगी हो सकता है |

युवराज स्वयं दौड़ गए उसके पास | उसे उठाया सहारा दिया , आज दूसरे सत्य के दर्शन हुए उन्हें-- स्वास्थ्य स्थिर वस्तु नहीं है | कोई कभी रोगी हो सकता है, कोई कभी कुरूप और दारूण पीडाग्रस्त बन सकता है | वे स्वयं या उनकी प्राणाधिका पत्नी यशोधरा भी'''' !

तीसरी यात्रा थी सिद्धार्थ कुमार की नगर दर्शन के लिए, जब विश्व का विधाता ही कोई विधान करना चाहे, उसके विपरीत किसी की सावधानी का क्या अर्थ , महाराज शुद्धोदन जो नहीं चाहते थे हुआ वही |

सिद्धार्थ कुमार ने एक मृतक की अर्थी श्मशान जाते देखी | जीवन का महासत्य उनके सम्मुख प्रकट हो गया-- सबको मरना है ! कोई सदा जीवित नहीं रह सकता | किसी को पता नहीं मृत्यु कब उसे ग्रास बना लेगी | बुढ़ापे, रोग और मृत्यु से जीवन ग्रस्त है--- सिद्धार्थ को सच्चा भय हुआ | वे निकल पडे अमृतत्व की खोज में |बुद्धत्व प्राप्त किया उन्होंने |

( अभयका प्रभाव--  मीरा का विषपान )

गिरधर गोपाल की दासी मेरा तो मतवाली हो गई थी अपने गिरधर के अनुराग में | राणा को पड़ी थी अपनी लोकप्रतिष्ठा की चिंता , उनकी भावज मेवाड़ की राजधानी मंदिर में नाचे गावे कितनी भद्दी बात |

लेकिन मीरा मानने वाली कहां थी राणा समझाकर धमकाकर सब संभव प्रयत्न करके थक गए | अंत में उन्होंने ना रहे बांस ना बजेगी बांसुरी , वाला उपाय सोचा मीरा को मार दिया जाय |

सृष्टि का संचालक मारने जिलाने का ठेका दूसरे के हाथ में दिया नहीं करता | मनुष्य केवल अपनी वाली कर सकता है | राणा ने भी अपनी वाली की , तीव्रतम विष भेजा उन्होंने मीराँ के पास यह कहलाकर कि यह ठाकुर जी का चरणमृत है | विष ले जाने वाली से कपट ना हो सका उसका हृदय कांप गया | उसने स्पष्ट कह दिया यह भयंकर विष है चरणामृत बताकर आपको देने को कहा गया है |

लेकिन मीरा को तो सच्चा अभय प्राप्त था, भय उसके पास भटकने का साहस कैसे कर सकता था, वह हंसी पगली है तू '' अरे जिस पदार्थ में चरणामृत का भाव किया गया वह विष कैसे हो सकता है ?

वह तो अमृत है - अमृत ! विष के प्याले में भी मीरा को अपने गिरधर की झांकी दीख रही थी विष पी लिया उसने, लेकिन विष था कहां मीरा के लिए तो उसके गिरधरलाल ने उस विष में प्रवेश करके उसको पहले ही अमृत बना दिया था |
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