भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान | shri Krishna Dhyan shlok sanskrit in hindi

भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान 
भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान | shri Krishna Dhyan shlok sanskrit in hindi
नारद उवाच
सुमप्रकरसौरभोगलितमाध्विकाद्युल्लसत्सुशाखिनवपल्लवप्रकरनम्रशोभायुतम् |प्रफुल्लनवमअरीललितवल्लरीवेष्टितं स्मरेत सततं शिवं सितमतिः सुवृन्दावनम् ॥ १ 

विकासिसुमनोरसास्वदनमञ्जुलैः संचरच्छिलीमुखमुखोद्गतैर्मुखरितान्तरं झङ्क तैः। कपोतशुकसारिकापरभृतादिभिः पत्रिभिर्विरा वितमितस्ततो भुजगशत्रुनृत्याकुलम् ॥२ 

कलिन्ददुहितुश्चलल्लहरिविप्लुषां वाहिभिर्विनिद्रसरसीरुहोदररजश्चयोद्धसरैः । प्रदीपितमनोभवव्रजविलासिनीवाससां विलोलनपर्निषेवितमनारतं मारुतैः ॥३

प्रवालनवपल्लवं मरकतच्छदं मौक्तिकप्रभाप्रकरकोरकं कमलरागनानाफलम् ।
स्थविष्टमखिलर्तुभिः सततसेवितं कामदं तदन्तरपि कल्पकाविपदमुञ्चितं चिन्तयेत् ॥ ४॥

सुहेमशिखराचले उदितभानुवद्भासुरामयोऽत्य कनकस्थलीममृतशीकरासारिणः ।।
प्रदीप्तमणिकुट्टिमां कुसुमरेणुपुओज्ज्वलां स्मरेत् पुनरतन्द्रितो विगतषटतरङ्गां बुधः ॥ ५॥

तद्नकुट्टिमनिविष्टमहिष्ठयोगपीठेऽष्टपत्रमरुणं कमलं विचिन्त्य ।
उद्यद्विरोचनसरोचिरमुष्य मध्ये संचिन्तयेत् सुखनिविष्टमयो मुकुन्दम् ॥ ६ ॥ 

सुत्रामहेतिदलिताञ्जनमेघपुञ्जप्रत्यग्ननीलजलजन्मसमानभासम्
सुस्निग्धनीलधनकुञ्चितकेशजालं राजन्मनोशशितिकण्ठशिखण्डचूडम् ॥ ७ ॥ 

रोलम्बलालितसुरद्रुमसूनसम्पद्युक्तं समुत्कचनवोत्पलकर्णपूरम् ।
लोलालिभिः स्फुरितभालतलप्रदीप्तगो रोचनातिलकमुज्ज्वलचिल्लिचापम् ॥ ८ ॥ 

आपूर्णशारदगताङ्कशशाङ्कबिम्बकान्ताननं कमलपत्रविशालनेत्रम् । रत्नस्फुरन्मकरकुण्डलरश्मिदीप्तगण्डस्थलीमुकुरमुन्नतचारुनासम् |९

सिन्दूरसुन्दरतराधरमिन्दुकुन्दमन्दारमन्दहसितद्युतिदीपिताशम् |वन्यप्रवालकुसुमप्रचयावक्लप्तप्रैवेयकोज्ज्वलमनोहरकम्बुकण्ठम् ||१०

मत्तभ्रमद्धमरघुष्टविलम्बमानसंतानकप्रसवदामपरिष्कृतांसम् हारावलीभगणराजितपीवरोरोव्योमस्थलीलसितकौस्तुभभानुमन्तम् ॥११॥ 

श्रीवत्सलक्षणसुलक्षितमुन्नतांसमाजानुपीनपरिवृत्तसुजातबाहुम् ।
आबन्धुरोदरमुदारगभीरनाभि भृङ्गाङ्गनानिकरमञ्जुलरोमराजिम् ॥ १२ ॥ 

नानामणिप्रघटिताङ्गदकङ्कणोर्मिवेयकारसननूपुरतुन्दबन्धम् । दिव्याङ्गरागपरिपिञ्जरिताङ्गयष्टिमापीतवस्त्रपरिवीतनितम्बबिम्बम् ॥१३॥

चारूरुजानुमनुवृत्तमनोजवं कान्तोन्नतप्रपदनिन्दितकूर्मकान्तिम् । माणिक्यदर्पणलसन्नखराजिराजद्रक्ताङ्गुलिच्छदनसुन्दरपादपद्मम् ॥१४॥ 

मत्स्याङ्कुशारिदरकेतुयवाजवज्रः संलक्षितारुणकराङनितलाभिरामम् । 
लावण्यसारसमुदायविनिर्मिताङ्गं सौन्दर्यनिन्दितमनोभवदेहकान्तिम् ॥१५॥ 

आस्यारविन्दपरिपूरितवेणुरन्ध्रलोलत्कराङ्गुलिसमीरितदिव्यरागैः । 
शश्वद्भवैः कृतनिविष्टसमस्तजन्तुसंतान संनतिमनन्तसुखाम्बुराशिम् ॥१६॥ 

गोभिर्मुखाम्बुजविलीनविलोचनाभिरूधोभरस्खलितमन्थरमन्दगाभिः । दन्ताग्रदष्टपरिशिष्टतृणाङ्कुराभिरालम्बिवालधिलताभिरथाभिवीतम् ॥१७॥ 

सम्प्रस्नुतस्तनविभूषणपूर्णनिश्चलास्याद् दृढक्षरितफेनिलदुग्धमुग्धैः । वेणुप्रवर्तितमनोहरमन्दगीतदत्तोच्चकर्णयुगलैरपि तर्णकैश्च ॥ १८ ॥ 

प्रत्यग्रशृङ्गमृदुमस्तकसम्प्रहारसंरम्भभावनविलोलखुराप्रपातैः 
आमेदुरैर्बहुलसास्नगलैरुद्ग्रपुच्छैश्च वत्सतरवत्सतरीनिकायैः ॥ १९ ॥ 

हम्मारवक्षुभितदिग्वलयैर्महद्भिरध्युक्षभिः पृथुककुद्भरभारखिन्नैः । उत्तम्भितश्रुतिपुटीपरिपीतवंशीध्यानामृतोद्धतविकासिविशालघोणैः ॥२०॥ 

गोपैः समानगुणशीलवयोबिलासवेशैश्च मूछितकलस्वनवेणुवीणैः । मन्दोच्चतारपटुगानपरैर्विलोलदोवल्लरीललितलास्यविधान इझैः ॥२१॥ 

जङ्घान्तपीवरकटीरतटीनिबद्धव्यालोलकिङ्किणिघटारणितैरटद्भिः । 
मुग्धस्तरक्षुन खकल्पितकान्तभूषै रव्यक्तमञ्जुवचनैः पृथुकैः परीतम् ॥ २२ ॥

अथसुललितगोपसुन्दरीणां पृथुकबरीष्टनितम्बमन्थराणाम् । गुरुकुचमरमगुरावलग्नत्रिवलिविजम्भितरोमराजिभाजाम् ॥२३॥ 

ततिरुचिरचारुवेणुवाद्यामृतरसपल्लविताङ्गजाङघ्रिपस्य |मुकुलविमलरम्यरूढरोमोदमसमलंकृतगात्रवल्लरीणाम् ॥२४॥ 

तदतिरुचिरमन्दहासचन्द्रातपपरिजम्भितरागवारिराशेः |
तरलतरतरङ्गभङ्गविष्टप्रकरधनश्रमविन्दुसंततानाम् ॥२५॥ 

तदतिललितमन्दचिलिचापच्युतनिशितेक्षणमारबाणवृष्टया |दलितसकलमर्मविह्वलाङ्गप्रविस्तृतदुस्सहवेपथुन्यथानाम् ||२६

दतिरुचिरवेषरूपशोभा मृतरसपानविधान लालसानाम् |प्रणयसलिलपूरवाहिनीनामलसविलोलविलोचनाम्बुजानाम्॥२७॥ 

विनसत्कबरीकलापविगलत्फुल्लप्रसूनास्रवन्
माध्वीलम्पटचश्नरीकघटया संसेवितानां मुहुः । 
मारोन्मादमदस्खलन्मृदुगिरामालोलकाञ्च्युल्लस
नीवीविश्लथमानचीनसिंचयान्तार्चिनितम्बत्विषाम् ॥ २८ ॥ 

स्खलितललितपादाम्भोजमन्दाभिघातच्छुरितमणितुलाकोट्याकुलाशामुखानाम् 
चलदधरदलानां कुडमलापक्ष्मलाक्षिद्वयसरसिरहाणामुल्लसत्कुण्डलानाम् ॥२९

द्राघिष्ठश्वसनसमीरणाभितापप्रम्लानीभवदरुणौष्ठपल्लवानाम् |
नानोपायनविलसत्कराम्बुजानामालीभिः सततनिषेवितं समन्तात् ॥ ३० ॥ 

तासामायतलोलनीलनयनव्याकोशलीनाम्बुजस्त्रग्भिः संपरिपूजिताखिलतनुं नानाविलासास्पदम् । तन्मुग्धाननपङ्कजप्रविगलन्माध्वीरसास्वादिनीं बिभ्राणं प्रणयोन्मदाक्षिमधुहृन्मालां मनोहारिणीम् ॥३१॥

गोपीगोपपशूनां बहिः स्मरेदग्रतोऽस्य गीर्वाणघटां 
वित्तार्थिनीं विरिञ्चित्रिनयनशतमन्युपूर्विका स्तोत्रपराम् ॥ ३२॥

तद्वद् दक्षिणतो मुनिनिकरं दृढधर्मवाञ्छया समाम्नायपरम् । 
योगीन्द्रानथ पृष्ठे मुमुक्षमाणान् समाधिना तु सनकाद्यान् ॥ ३३ ॥

सव्ये सकान्तानथ यक्षसिद्धान् गन्धर्वविद्याधरचारणांश्च । 
सकिन्नरानप्सरसश्च मुख्याः कामार्थिनीनर्तनगीतवाद्यैः ॥ ३४ ॥ 

शङ्खन्दुकुन्दधवलं सकलागमज्ञं सौदामिनीततिपिशङ्गजटाकलापम् । 
तत्पादपङ्कजगताममलां च भक्तिं वाच्छन्तमुज्झिततरान्यसमस्तसङ्गम् ॥ ३५॥

नानाविधश्रुतिगुणान्वितसप्तरागग्रामत्रयीगतमनोहरमूर्छनाभिः ।
सम्प्रीणयन्तमुदिताभिरपि प्रभक्त्या संचिन्तयेवमसि मां दुहिणप्रसूतम् ॥ ३६॥ 

इति ध्यात्वाऽऽत्मानं पटुविशदधीनन्दतनयं न बौद्धैर्चाऽर्घप्रभृतिभिरनिन्द्योपहृतिभिः। 
यजे दुयो भक्त्या स्ववपुषि बहिष्ठश्च विभवैरिति प्रोक्तं सर्व यदभिलषितं भूसुरवराः ॥३७॥

( पद्म० पाताल ० ९९ । २१-५८ )


 ध्यान करनेवाले मनुष्यको सदा शुद्ध-चित्त होकर पहले उस परम कल्याणमय सुन्दर वृन्दावनका चिन्तन करना चाहिये, जो पुष्पोंके समुदाय, मनोहर सुगन्ध और बहते हुए मकरन्द आदिसे सुशोभित सुन्दर-सुन्दर वृक्षोंके नूतन पल्लवोंसे झुका हुआ शोभा पा रहा है तथा प्रफुल्ल नवल मञ्जरियों और ललित लताओंसे आवृत है ।। १॥

उसका भीतरी भाग चञ्चल मधुकरोंके मुखसे निकले हुए मधुर झंकारोंसे मुखरित है। विकसित कुसुमोके मकरन्दका आस्वादन करनेके कारण उन भ्रमर-झंकारोंकी मनोरमता और बढ़ गयी है ।

कबूतर, तोता, मैना और कोयल आदि पक्षियोंके कलरवोंसे भी उस वनका अन्तःप्रान्त समधुर ध्वनिपूर्ण हो रहा है और वहाँ उधर-इधर सब ओर कितने ही स्थानोंमें मयूर नृत्य कर रहे हैं ॥ २॥

कलिन्द-नन्दिनी यमुनाकी चञ्चल लहरोंके जलकणोंका भार वहन करनेके कारण शीतल और प्रफुल्ल कमलोंके केसरोंके पराग-पुञ्ज धारण करनेसे धूसर हुई वायु जिनकी प्रेमवेदना उद्दीप्त हो रही है, उन ब्रज-सुन्दरियोंके वस्त्रों को
बार-बार हिलाती या उड़ाती हुई निरन्तर उस वृन्दावनका सेवन करती रहती है ॥ ३॥

उस वनके भीतर भी एक कल्पवृक्षका चिन्तन करे, जो | बहुत ही मोटा और ऊँचा है, जिसके नये-नये पल्लव मँगेके समान लाल हैं, पत्ते मरकतमणिके सदृश नीले हैं, कलिकाएँ मोतीके प्रभा-पुञ्जकी भाँति शोभा पा रही हैं और नाना प्रकारके फल पद्मरागमणिके समान जान पड़ते हैं। समस्त ऋतुएँ सदा ही उस वृक्षकी सेवामें रहती हैं तथा वह सम्पूर्ण कामनाओंको | पूर्ण करनेवाला है ॥ ४॥

फिर आलस्यरहित हो विद्वान् पुरुष धारावाहिक रूपसे अमृतकी बूंदें बरसानेवाले उस कल्पवृक्षके नीचे सुवर्णमयी वेदीकी भावना करे, जो मेरुगिरिपर उदित हुए सूर्यकी भाँति प्रभासे उद्भासित हो रही है, जिसका फर्श जगमगाती हुई मणियोंसे बना है, जो पुष्पोंके पराग-पुञ्जसे कुछ धवल वर्णकी हो गयी है तथा जहाँ क्षुधा-पिपासा, शोक-मोह और जरामृत्यु–ये छः ऊर्मियाँ नहीं पहुँचने पातीं ॥ ५॥

उस रत्नमय फर्शपर रक्खे हुए एक विशाल योगपीठके ऊपर लाल रंगके अष्टदलकमलका चिन्तन करके उसके अग्र भागमें सुखपूर्वक बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान है जो अपनी दिव्य प्रभासे उदयकालीन सूर्यदेवकी भाँति देदीप्यमान हो रहे हैं ॥ ६॥

भगवान्के श्रीविग्रहकी आमा इन्द्रके वज्रसे विदीर्ण हुए कजलगिरि, मेघोंकी घटा तथा नूतन नील-कमलके समान श्याम रंगकी है; श्याम मेघके सदृश काले-काले धुंघराले केशकलाप बड़े ही चिकने हैं तथा उनके मस्तकपर मनोहर मोर-पंखका मुकुट शोभा पा रहा है । ७ ।। __

कल्पवृक्षके कुसुमोसे, जिनपर भ्रमर मँडरा रहे हैं, भगवान्का शृङ्गार हुआ है । उन्होंने कानोंमें खिले हुए नवीन कमलके कुण्डल धारण कर रक्खे हैं, जिनपर चञ्चल चञ्चरीक उड़ रहे हैं। उनके ललाटमें चमकीले गोरोचनका तिलक चमक रहा है तथा धनुषाकार भी हैं बड़ी सुन्दर प्रतीत हो रही हैं ॥ ८॥

भगवान्का मुख शरत्पूर्णिमाके कलंकहीन चन्द्रमण्डलकी भाँति कान्तिमान् है, बड़े-बड़े नेत्र कमल-दलके समान सुन्दर हैं, दर्पणके सदृश स्वच्छ कपोल रत्नोंके कारण चमकते हुए मकराकृत कुण्डलोंकी किरणोंसे देदीप्यमान हो रहे हैं तथा ऊँची नासिका बड़ी मनोहर जान पड़ती है ॥ ९ ॥

सिन्दूरके समान परम सुन्दर लाल-लाल ओठ हैं; चन्द्रमा, कुन्द और मन्दार पुष्पकी-सी मन्द मुसकानकी छटासे सामनेकी दिशा प्रकाशित हो रही है तथा वनके कोमल पल्लवों और पुष्पोंके समूहद्वारा बनाये हुए हारसे शङ्ख-सदृश मनोहर ग्रीवा बड़ी सुन्दर जान पड़ती है ॥ १० ॥

 __ मँडराते हुए मतवाले भ्रमरोंसे निनादित एवं घुटनोंतक | लटकी हुई पारिजात पुष्पोंकी मालासे दोनों कंधे शोभा पा रहे हैं । पीन और विशाल वक्षःस्थलरूपी आकाश हाररूपी नक्षत्रोंसे सुशोभित है तथा उसमें कौस्तुभमणिरूपी सूर्य भासमान हो रहा है ॥ ११ ॥

__ भगवान्के वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न बड़ा सुन्दर दिखायी देता है, उनके कंधे ऊँचे हैं, गोल-गोल सुन्दर भुजाएँ घुटनोंतक लंबी एवं मोटी हैं, उदरका भाग बड़ा मनोहर है, नाभि विस्तृत और गम्भीर है तथा त्रिवलीकी रोमपंक्ति भ्रमरोंकी पंक्तिके समान शोभा पा रही है ॥ १२॥

नाना प्रकारकी मणियोंके बने हुए भुजबंद, कड़े
अंगूठियाँ, हार, करधनी, नूपुर और पेटी आदि आभूषण भगवान्के श्रीविग्रहपर शोभा पा रहे हैं, उनके समस्त अङ्ग दिव्य अङ्गरागोंसे अनुरञ्जित हैं तथा कटिभाग कुछ हल्के रंगके पीताम्बरसे ढका हुआ है ।। १३ ॥

_दोनों जाँचे और घुटने सुन्दर हैं; पिण्डलियोंका भाग गोलाकार एवं मनोहर है; पादाग्रभाग परम कान्तिमान् तथा ऊँचा है और अपनी शोभासे कछुएके पृष्ठ-भागकी कान्तिको मलिन कर रहा है तथा दोनों चरण-कमल माणिक्य तथा दर्पणके समान स्वच्छ नवपंक्तियोंसे सुशोभित लाल-लाल अङ्गुलिदलोंके कारण बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं ।। १४ ।।

मत्स्य, अङ्कश, चक्र, शङ्ख, पताका, जौ, कमल और वज्र आदि चिह्नोंसे चिह्नित लाल-लाल हथेलियों तथा तलवोंसे भगवान् बड़े मनोहर प्रतीत हो रहे हैं। उनका श्रीअङ्ग लावण्यके सार-संग्रहसे निर्मित जान पड़ता है तथा उनके सौन्दर्यके सामने कामदेवके शरीरकी कान्ति फीकी पड़ जाती है ॥ १५ ॥

भगवान् अपने मुखारविन्दसे मुरली बजा रहे हैं। उस समय मुरलीके छिद्रों पर उनकी अँगुलियोंके फिरनेसे निरन्तर दिव्य रागोंकी सृष्टि हो रही है, जिनसे प्रभावित हो समस्त जीव-जन्तु जहाँ-के-तहाँ बैठकर भगवान्की ओर मस्तक टेक रहे हैं । भगवान् गोविन्द अनन्त आनन्दके समुद्र हैं।। १६ ।।

थनोंके भारसे लड़खड़ाती हुई मन्द-मन्द गतिसे चलने वाली गौएँ दाँतोंके अग्रभागमें चबाने से बचे हुए तिनकोके अङ्कर लिये, पूँछ लटकाये भगवान्के मुखकमलमें आँखें गड़ाये उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़ी हैं ॥ १७ ॥

गौओंके साथ ही छोटे-छोटे बछड़े भी भगवान्को सब ओरसे घेरे हुए हैं और मुरलीसे मन्दस्वरमें जो मनोहर संगीतकी धारा बह रही है, उसे वे कान लगाकर सुन रहे हैं, जिसके कारण उनके दोनों कान खड़े हो गये हैं। गौओंके टपकते हुए थनोंके आभूषण रूप दूधसे भरे हुए उनके मुख स्थिर हैं, जिनसे फेनयुक्त दूध बह रहा है। इससे वे बछड़े बड़े मनोहर प्रतीत हो रहे हैं ।। १८॥

चिकने शरीरवाले बछड़े और बछड़ियोंके समूह, जिनके बहुत बढ़े हुए गलकम्बल शोभा पा रहे हैं, श्रीकृष्णके चारों ओर पूँछ उठा-उठाकर नये-नये सींगोंसे शोभायमान अपने कोमल मस्तकोंसे परस्पर प्रहार करते हुए लड़नेके लिये बार-बार भूमिको खुरोंसे खोद रहे हैं ॥ १९ ॥

जिनके हम्बारव ( दहाड़) से दिशाएँ क्षुब्ध हो जाती हैं। जिनके शरीर ककुद्के भारसे आक्रान्त हैं, ऐसे विशाल साँड़ श्रीकृष्णके चारों ओर दोनों कानोंको उठाये हुए उनकी अमृतमयी वंशीध्वनिको सुन रहे हैं। उनकी फैली हुई विशाल नाक ऊपरकी ओर उठी हुई हैं ॥ २० ॥

भगवान्के समान ही गुण, शील, अवस्था, विलास तथा वेष-भूषावाले गोप भी, जो अपनी चञ्चल भुजाओंको सुन्दर ढंगसे नचानेमें चतुर हैं, वंशी और वीणाकी मधुर ध्वनिका विस्तार करके मन्द, उच्च और तारस्वरमें कुशलतापूर्वक गान करते हुए भगवान्को सब ओरसे घेरकर खड़े हैं ॥ २१ ॥

छोटे-छोटे ग्वाल-बाल भी भगवान्के चारों ओर घूम रहे हैं, जाँघसे ऊपर उनके मोटे कटिभागमें करधनी पहनायी गयी है, जिसकी क्षुद्र घण्टिकाओंकी मधुर झनकार सुनायी पड़ती है। वे भोले-भाले बालक बचनखोंके सुन्दर आभूषण पहने हुए हैं। उनकी मीठी-मीठी तोतली वाणी साफ समझमें नहीं आती ॥ २२॥

तदनन्तर इन सबको सब ओरसे घेरकर खड़ी हुई अत्यन्त मनोहर गोप-सुन्दरियोंकी श्रेणीसे सुसेवित भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करे । वे गोपाङ्गनाएँ अपने स्थूल नितम्बोंके भारसे थकी-सी मंथर गतिसे चलती हैं और उनकी गुंथी हुई चोटी उनके नितम्बदेशका स्पर्श कर रही है। पीन वक्षःस्थलके भारी भारसे झुकी हुई होनेसे उनके उदरप्रदेशकी त्रिवलीयुक्त रोमराजि वक्षःस्थलसे सटकर अत्यन्त शोभा पा रही हैं ॥ २३ ॥

उनकी देहलतिका रोमाञ्चसे समलंकृत है, इससे प्र ऐसा जान पड़ता है, मानो श्रीकृष्णके सुमधुर वेणुस्वरूपी अमृतरससे पल्लवित प्रेमरूपी पादपमें मुकुलोंका उद्गम हो उ गया है ।। २४ ॥

उनके समस्त अङ्गोंमें प्रकट पसीनेकी बूंदें मानो श्रीकृष्णके अति मनोहर मन्द-मन्द हास्यरूप चन्द्रालोकसे सा विवर्धित अनुरागरूपी सागरकी चञ्चल तरङ्गोंके कणरूपमें सर सुशोभित हो रही हैं ॥ २५ ॥

श्रीकृष्णके अत्यन्त मनोमुग्धकर भ्रबाणोंसे निक्षिप्त भा सुतीक्ष्ण प्रेमबाणोंकी वर्षासे उनके समस्त मर्मस्थान विदलित सम और सर्वाङ्ग जर्जरित हो गये हैं, इससे मानो उनके कलेवरमें मां अत्यन्त दुःसह कम्प-वेदना फैल गयी है ॥ २६॥

श्रीकृष्णके अत्यन्त मनोहर वेष तथा रूपकी शोभामयी  सुधाका रस पीनेके लिये लोलुप वे व्रजाङ्गनाएँ मानो प्रणयरूप सलिलराशिको प्रवाहित करनेवाली सरिताएँ हैं और उनके अलस विलोल विलोचन मानो उस जल-प्रवाहमें कमलोंके सदृश सुशोभित हैं ।। २७ ।।

कबरी ढीली हो जानेसे उनसे गिरे हुए प्रफुल्ल कुसुमसमूहके मधुपान-लोलुप मधुकर बार-बार गुञ्जार करते हुए उनकी सेवा कर रहे हैं । उनकी मृदु-मृदु वचनावली प्रेमोन्माद मदके कारण स्खलित हो रही है और नीवी देशसे विश्लथ चीन वसनके प्रान्तभागसे प्रकाशित नितम्ब-प्रभा, विलोल काञ्चीसे उल्लसित हो रही है ।। २८ ॥

___ उनके मनोहर चरणाम्बुज स्खलित होनेके कारण मणिमय नूपुर टूट-टूटकर चारों ओर बिखर रहे हैं और तजनित शीत्कारके कारण अधर-पल्लव प्रकम्पित हो रहे हैं। उनके कानोंमें कुण्डल शोभा पा रहे हैं और सुन्दर पक्ष्मविभूषित मुकुलाकार नीलकमलोपम आलस्ययुक्त लोचनद्वय अत्यन्त सुशोभित हैं ॥ २९ ॥

सुदीर्घ निःश्वास-समीरणसे उनके अरुणवर्ण अधरपल्लव प्रम्लान हो रहे हैं और उनके करकमल श्रीकृष्णको प्रिय लगनेवाले नाना प्रकारके समस्त पूजोपहारोंसे सुशोभित हैं, ऐसी गोपसुन्दरियाँ चारों ओरसे श्रीकृष्णकी सतत सेवा कर रही हैं ॥ ३० ॥

ये सब गोपबालाएँ विस्तारित सुनील विलोल लोचनरूपी नीलकमलोंकी मालाद्वारा उनके सर्वाङ्गको पूज रही हैं। भगवान् नानाविध विलासके आश्रय हैं और प्रेयसी गोपियोंके प्रणयरसपूर्ण लोचनस्वरूप मनोमोहकर मधुकर चारों ओर उड़-उड़कर उनके मनोहर मुखपङ्कज-विगलित मधु-रसका आस्वादन कर रहे हैं मानो श्रीहरि उन नयनरूपी मधुपोंकी मनोहारिणी माला धारण कर रहे हैं ॥ ३१ ॥

__गोपी, गोप और पशुओंके घेरेसे बाहर भगवान्के सामनेकी ओर ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि देवताओंका समुदाय खड़ा होकर स्तुति कर रहा है ।। ३२ ॥

इसी प्रकार उपर्युक्त घेरेसे बाहर भगवान्के दक्षिणभागमें सुदृढ़ धर्मकी अभिलाषासे वेदाभ्यासपरायण मुनियोंका समुदाय उपस्थित है तथा पृष्ठभागकी ओर समाधिके द्वारा मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले सनकादि योगीश्वर खड़े हैं ॥ ३३ ॥

वामभागमें अपनी स्त्रियोंसहित यक्ष, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण और किन्नर खड़े हैं। साथ ही भगवत्प्रेमकी इच्छा रखनेवाली मुख्य-मुख्य अप्सराएँ भी मौजूद हैं । ये सब लोग नाचने, गाने तथा बजानेके द्वारा भगवान्की सेवा कर रहे हैं ॥ ३४ ॥

तत्पश्चात् आकाशमें स्थित मुझ ब्रह्मपुत्र देवर्षि नारदका चिन्तन करना चाहिये । नारदजीके शरीरका वर्ण शङ्ख, चन्द्रमा तथा कुन्दके समान गौर है, वे सम्पूर्ण आगमोंके ज्ञाता हैं। उनकी जटाएँ बिजलीकी पङ्क्तियोंके समान पीली और चमकीली हैं। वे भगवान्के चरण-कमलोंकी निर्मल भक्तिके इच्छुक हैं तथा अन्य सब ओरकी आसक्तियोंका सर्वथा परित्याग कर चुके हैं और संगीतसम्बन्धी नाना प्रकारकी श्रुतियोंसे युक्त सात स्वरों और विविध ग्रामोंकी मनोहर मूर्च्छनाओंको अभिव्यञ्जित करके अत्यन्त भक्तिके साथ भगवान्को प्रसन्न कर रहे हैं ॥ ३५-३६ ॥

इस प्रकार प्रखर एवं निर्मल बुद्धिवाला पुरुष अपने आत्मस्वरूप भगवान् नन्दनन्दनका ध्यान करके मानसिक अर्घ्य आदि उत्तम उपहारोंसे अपने शरीरके भीतर ही भक्तिपूर्वक उनका पूजन करे तथा बाह्य उपचारोंसे भी उनकी आराधना करे । ब्राह्मणो ! आपलोगोंकी जैसी अभिलाषा थी, उसके अनुसार भगवान्का यह सम्पूर्ण ध्यान मैंने बता दिया ॥ ३७ ।।
भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान | shri Krishna Dhyan shlok sanskrit in hindi

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