[ मोक्ष का स्वरूप तथा साधन ]
हिंदी प्रवचन
एकदा लक्ष्मणो राममेकान्ते समुपस्थितम् ।
विनयावनतो भूत्वा पप्रच्छ परमेश्वरम् ।
एक दिन लक्ष्मण जी ने एकान्त में बैठे हुए भगवान् श्रीराम के पास जाकर नम्रता पूर्वक पूँछा ।
भगवन् श्रोतुमिक्षोमि मोक्षस्यैकान्तिकी गतिम् ।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष सङ्क्षपाद्वक्तुमर्हसि ।।
भगवन् मैं आपके मुखारविन्द से मोक्ष का साधन सुनना चाहता हूँ इसलिए हे कमलनयन आप संक्षेप से वर्णन कीजिए ।
ज्ञान विज्ञान सहितं भक्तिवैराग्य बृहितम् ।
आचक्ष्व मे रघुश्रेष्ठ वक्ता नान्योऽस्ति भूतले ।।
हे रघुश्रेष्ठ! आप मुझे भक्ति और वैराग्य से युक्त अनुभवात्मक ज्ञान का उपदेश कीजिए । संसार में आपके अतिरिक्त इस विषय का उपदेश करने वाला और कोई नहीं है । श्रीराम उवाच -
श्रृणु वक्ष्यामि ते वत्स गुह्याद्गुतरपरम् ।
यद्विज्ञाय नरो जह्यात्सद्यो वैकल्पिक भ्रमम् ।।
भगवान् श्रीराम बोले - वत्स लक्ष्मण सुनो मैं तुमको गुह्य से गुह्य परम रहस्य सुनाता हूँ जिसके जान लेने पर मनुष्य तुरन्त ही विकल्पजनित संसार रूप भ्रम से मुक्त हो जाता है ।
आदौ मायास्वरूप ते वक्ष्यामि तदनन्तरम् ।
ज्ञानस्य साधनं पश्चाज्ज्ञान विज्ञानसंयुतम् ।।
प्रथम मैं तुमको माया का स्वरूप कहूँगा उसके पश्चात् ज्ञान का साधन तथा विज्ञान के सहित ज्ञान का स्वरूप बताऊंगा ।
ज्ञेयं च परमात्मानं यज्ज्ञात्वा मुच्यते भयात् ।
अनात्मनि शरीरादावात्मबुद्धिस्तु या भवेत् ।।
सैव माया तयैवासो संसार: परिकल्प्यते ।
रूपे द्वे निश्चिते पूर्व माया: कुलनन्दन ।।
इसके अतिरिक्त जो ज्ञेय परमात्मा है उसका भी स्वरूप बताऊंगा जिसके जान लेने पर मनुष्य संसार के भय से मुक्त हो जाता है । शरीरादि अनात्मपदार्थो में जो आत्मबुद्धि होती है-
विक्षेपावरणे तत्र प्रथमं कल्पयेज्जगत् ।
लिङाद्याब्रह्मपर्यन्तं स्थूलसूक्ष्मविभेदतः ।।
एक विक्षेप दूसरा आवरण इनमें से जो पहली विक्षेप शक्ति है वह महत्तत्त्व से ब्रह्मा पर्यन्त समस्त संसार की स्थूल और सूक्ष्म भेद से कल्पना करती है ।
अपरं त्वखिलं ज्ञानरूपमावृत्य निष्ठति ।
मायया कल्पितं विश्वं परमात्मनि केवले ।।
दूसरी आवरण शक्ति है वह सम्पूर्ण ज्ञान को आच्छादित करक स्थित रहती है । यह सम्पूर्ण विश्व रज्जु में सर्प भ्रम के समान शुद्ध ठहरता ।
रज्जौभुजगवद्भ्रान्त्या विचारे नास्ति किञ्चन ।
श्रूयते दृश्यते यद्यत्स्मर्यते वा नरैः सदा ।।
असदेवहि तत्सर्व यथा स्वप्रमनोरथौ ।
देह एव हि संसार वृक्ष मूलं दृढं स्मृतम् ।।
मनुष्य जो कुछ सुनता है, देखता है, स्मरण करता है वह स्वप्र आ मनोरथ के समान मिथ्या है, शरीर ही इस संसार रूप वृक्ष की दृढ़ है - तन्मूलः पुत्रदारादिबन्धः किं तेऽन्यथात्मन: इसी के कारण पुत्र कलत्रादि का बन्धन है अन्यथा आत्मा का इनसे क्या सम्बन्ध है पाच स्थूल भूत, पञ्च तन्मात्राएं, अहंकार, बुद्धि, दशइन्द्रियाँ चिदाभास मन और मूल प्रकृति इन सबके समूह को क्षेत्र कहते हैं इसी को शरीर भी कहते हैं ।
एतैर्विलक्षणो जीव: परमात्मा निरामयः ।
तस्य जीवस्य विज्ञाने साधनान्यपि मे श्रृणु ।।
जीव इन सबसे विलक्षण है निर्दोष और परमात्म रूप हैं उसके स्वरूप को जानने के कुछ साधन हम बताते हैं, सावधान होकर सुनो-
जीवश्च परमात्मा चं पर्यायो नात्र भेदधीः ।
मानाभावस्तथादम्भ-हिंसादिपरिवर्जनम् ।।
जीव और परमात्मा ये पर्याय वाचक शब्द है दोनों का अभिप्राय एक ही है अतः इनमें भेद बुद्धि नहीं करनी चाहिए, अभिमान से दूर रहना दम्भ और हिंसा आदि का त्याग करना ।
पराक्षेपादिसहनं सर्वत्रावक्रता तथा ।
मनोवाक्काय सद्भक्त्या सद्गुरोः परिसेवनम् ।।
दूसरो के किए हुए आक्षेपादि को सहन करना, सर्वत्र सरल भाद रखना, मन वचन और शरीर द्वारा सद्गुरू की सेवा करना।
बाह्याभ्यन्तर संशुद्धिः स्थिरता सत्क्रियादिशु ।
मनोवाक्कायदण्डश्च विषयेषु निरीहता ।।
बाह्य और आन्तरिक शुद्धि रखना, सत्कर्मो में तत्पर रहना, मन " और शरीर का संयम करना और विषयों में प्रवृत्त न होना ।
जनसम्बाधरहितः शुद्ध देशनिषेवणम् ।
प्राकृतैर्जनसङ्गैश्च ह्यरतिः सर्वदा भवेत् ।।
जन समूह से पृथक शून्य पवित्र देश में रहना संसारी लोगों में सर्वदा उदासिन रहना ।
आत्मज्ञाने सदोद्योगो वेदान्तार्थावलोकनम् ।
उक्तरेतैर्भवेज्ज्ञानं विपरीतैर्विपर्ययः ।।
आत्मज्ञान का सदा उद्योग करना तथा वेदान्त के अर्थ का विचार करना इन उक्त साधनों से ज्ञान प्राप्त होता है और इसके विपरीत आचरण करने से विपरीत फल अज्ञान मिलता है ।
बुद्धिप्राणमनो देहाहंकृतिभ्यो विलक्षणः ।
चिदात्माहं नित्यशुद्धो बुद्ध एवेति निश्चयम् ।।
जिससे ऐसा बोध होता है कि मैं बुद्धि प्राण, मन, देह और अहंकार आदि से विलक्षण नित्य शुद्ध बुद्ध चेतन आत्मा हूँ वही ज्ञान है । यह मेरा निश्चय है जिस समय इसका साक्षात् अनुभव होता है उस समय इसी को विज्ञान कहते हैं । ।
आत्मा सर्वत्र पूर्णः स्याच्चिदानन्दात्मकोऽव्ययः ।
बुद्ध्यधुपाधिरहितः परिणामादिवर्जितः ।।
आत्मा सर्वत्र पूर्णसच्चिदानन्द स्वरूप अविनाशी अविकारी बुद्धि- आदि उपाधियों से शून्य तथा परिणामादि से रहित है ।
स्वप्रकाशेन देहादीन् भासयत्रनपावृतः ।
एक एवाद्वितीयश्च सत्यज्ञानादि लक्षणः ।।
असङ्गस्वप्रभोदृष्टा विज्ञानेनावगम्यते ।
आचार्यशास्रोपदेशादैक्यज्ञानं यदा भवेत् ।।
यह अपने प्रकाश से देह आदि को प्रकाशित करता हुआ भी स्वय आवरण शून्य एक अद्वितीय और स्तयज्ञान आदि स्वरूप वाला है तथा संगरहित स्वप्रकाश और सबका साक्षी है, ऐसा विज्ञान से जाना जाता है। जिस समय आचार्य और शास्र क उपदेश से जीवात्मा और परमात्मा की एकता का ज्ञान होता है उसी समय मूलअविद्या अपने कार्य शरीरादि तथा इन्द्रियों के सहित परमात्मा में लीन हो जाती है ।
सावस्था मुक्तिरित्युक्ता ह्युपचारोऽययात्मनि ।
इदं मोक्ष स्वरूपं ते कथितं रघुनन्दन ।।
ज्ञान विज्ञानवैराग्यसहितं मे परात्मनः ।
किन्त्वेतदुर्लभं मन्ये मद्भक्तिविमुखात्मनाम् ।।
अविद्या की इस लयावस्था को ही मोक्ष कहते हैं | आत्मा में यह मोक्ष केवल उपचार मात्र है, हे रघुनन्दन लक्ष्मण तुम्हें मैंने यह ज्ञान विज्ञान और वैराग्य के सहित परमात्मा रूप अपना मोक्ष स्वरूप सुनाया किन्तु जो लोग मेरी भक्ति से विमुख हैं उनके लिए मैं उसे अत्यन्त दुर्लभ मानता हूँ।
चक्षुष्मतामपि यथा रात्रौ सम्यङ्न दृश्यते ।
पदं दीपसमेतानां दृश्यते सम्यगेव हि ।
एवं मद्भक्तियुक्तानामात्मा सम्यक् प्रकाशते ।।
जिस प्रकार नेत्र होते हुए भी लोग रात्रि के समय चोर आदि क चिन्ह स्थान भली प्रकार नहीं देखते, दीपक होने पर ही उस समय वह दिखाई देता है उसी प्रकार मेरी भक्ति से युक्त पुरूषों को ही आत्मा सम्यक् प्रकार से साक्षात्कार होता है ।