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भीष्म स्तुति हिंदी bhishma stuti hindi

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भीष्म स्तुति हिंदी bhishma stuti hindi

भीष्म स्तुति हिंदी bhishma stuti hindi
भीष्म पितामह द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति
भीष्म स्तुति हिंदी 
bhishma stuti hindi
भीष्म पितामह द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति
एक बार भगवान् श्री कृष्ण द्रोपदी तथा पाण्डवों के साथ विराजमान थे। अचानक बातचीत करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण समाहित हो गए और कछ देर तक वे समाहित रहे यह देखकर महाराज युधिष्ठिर ने उनसे पठा
नेगन्ति तव रोमाणि स्थिराबुद्धिस्तथा मनः।
काष्ठ कुडय शिलाभूतो निरीहस्चासि माधव।। 
हे माधव अकस्मात् ये क्या बात हुई, अभी आपके शरीर में रोमांच हो रहा था मन और बुद्धि स्थिर थे काष्ठ के समान, भित्ति के समाप आप निश्चेष्ट थे।
भगवान् ने कहा ।
शर तल्प गतो भीष्मः शाम्यन्निव दुताशनः ।
माम् ध्यायत पुरुषव्याघ्र ततो मे तद्गतं मनः ।।
श्री भीष्म पितामह इस समय शर शय्या पर पड़े हुए हैं, वे ऐसे मालूम हो रहा है मानो प्रज्वलित अग्नि शान्त हो रही हो, और इस अवस्था में वे मेरा ध्यान कर रहे हैं, वहाँ मेरा मन चला गया था।
दिव्यास्त्राणि महातेजा यो धारयति बुद्धिमान।
सांगाश्चतुरो वेदान् तमस्मि मनसा गतः।। 
जो महापुरुष दिव्य अस्त्रों को धारण किए हुए हैं अंगों के सहित चारों वेद जिनको कण्ठस्थ हैं और जो मेरा ध्यान कर रहे हैं, मन से मैं वहाँ चला गया था।
ऐसा कह कर भगवान् पाण्डवों को लेकर वहाँ आए जहाँ भीष्म पितामह शरशय्या
अहो कष्टमहोऽन्याय्यं यद् यूयं धर्मनन्दनाः । 
जीवितुं नार्हथ क्लिष्टं विप्रधर्माच्युताश्रयाः ।।
है धर्म पुत्रो ! यह बड़े कष्ट और अन्याय की बात है कि आप लोगों ने भगवान् के आश्रित रहने पर भी इतने कष्ट के साथ जीवन बिताया, आप लोग इसके योग्य नहीं थे ।
यत्र धर्मसुतो राजा गदापाणिवृकोदरः । 
कृष्णोऽस्री गाण्डिवं चापं सुहत्कृष्णस्ततो विपत् ।।
जहाँ साक्षात धर्मपुत्र सुधिष्टिर राजा हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन जहाँ रक्षक हों, गाण्डीव धनुष जहाँ हो, स्वयं श्री कृष्ण जिनके हितैषी हो वहाँ भी विपत्तियाँ, सर्व कालकृतं मन्ये ये सब काल की महिमा है ।
श्री भीष्म पितामह ने कहा सुधिष्टिर ! भगवान् श्री कृष्ण की भक्तवत्सलता को देखो जब मैं अपने प्राणों का त्याग करने जा रहा हूँ उस समय मुझे दर्शन देने के लिए स्वयं पधारे हैं ।
भक्त्यावेश्य मनोयस्मिन् वाचा यन्नाम कीर्तयन् । 
त्यजन्कलेवरं योगी मुच्यते कामकर्मभिः ।।
जो योगी देह त्याग के समय भक्ति भाव से परमात्मा में अपना मत लगाकर वाणी से उनके नाम का कीर्तन करता हुआ, देह का त्याग करता है वह योगी कर्म बन्धन से छूट जाता है |
स देव देवो भगवान् प्रतीक्षता कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम् । 
प्रसन्नहासारूणलोचनोल्लसन् मुखाम्बुजो ध्यानपथश्चतुर्भुजः ।।
वे देवादि देव भगवान् मुस्कुराते हुए चतुर्भुज रूप से यहाँ स्थिर रहकर तब तक प्रतीक्षा करें जब तक मैं इस शरीर का त्याग न कर दूँ। जिनका दर्शन भक्तों को केवल ध्यान में ही होता है उनको मैं नेत्रों से देख रहा हूँ अहो भाग्यं यह मेरा बड़ा भाग्य है ।
तदोपसंहृत्य गिरः सहस्रणीर्विमुक्तसङ्गं मन आदि पुरूषे 
कष्णेलसत्पीतपटे चतुर्भुजे पुरःस्थितेऽमीलितदृग्व्यधारयत ।।
उस समय सहस्रों, रथियों के नेता भीष्म पितामह ने वाणी का संयम कर, मन को स ओर से हटाकर अपने सामने स्थित आदि परुष भगवान् श्री कृष्ण में लगा दिया । भगवान् श्री कृष्ण चतुर्भुज रूप से पीताम्बर धारण किए हुए उनके सामने खड़े हुए थे ।
विशुद्धया धारणया हताशुभस्तदीक्षयैवाशुगतायुधव्यथः । 
निवृत्तसर्वेन्द्रियवृत्तिविभ्रमस्तुष्टाव जन्यं विसृजञ्जनार्दनम् ।।
उनकी इस विशुद्ध धारणा से जो कुछ अशुभ शेष थे वे सभी नष्ट हो गये । शस्रों के लगने से जो शरीर में पीड़ा हो रही थी वह भगवान के दर्शन मात्र से दूर हो गई । उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों की वृत्तियों को रोक लिया और बड़े प्रेम से भगवान् की स्तुति करने लगे ।
त्रिभुवनकमनं तमालवर्ण रविकरगौरवराम्बरं दधाने । 
वपुरलककुलावृताननाजं विजयसखे रतिरस्तुमेऽनवद्या ।। 
जिनका श्री विग्रह त्रिलोकी में सबसे अधिक सुन्दर है तथा श्याम तमाल के समान जिन श्रीकृष्ण का सांवला वर्ण सूर्य की रस्मिया समान चम-चम करता हुआ पीताम्बर धारण किए हए हैं, जिनका मुख कमल घुघराला अलकों से आवृत्त है, उन अर्जन के सखा श्री कृष्ण मेरी निष्कपट प्रीति ही जाये ।
यधि तुरगरजो विधूम्रविष्वक्कचलुलितश्रमवार्यलंकतास्ये। 
मम निशितशरैर्विभिद्यमानत्वचि विलसत्कवचेस्तु कृष्ण आत्मा।।
यद्ध के समय घोड़ों के टाप की धूलि से जिनकी घुघराली अलकें मटमैली हो गई थी और पसीने की छोटी-छोटी बूंदों से जिनका मुख मण्डल अत्यन्त सुशाभित हो रहा था, मैं अपने तीखे वाणों से उनकी सर्वस्व समर्पण हो जाय ।
सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथ निवेश्य।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत 
हे श्याम सुन्दर कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कर दो, यह सुनकर तुरन्त ही पाण्डव सेना और कौरव सेना के बीच में भगवान् अपना रथ ले आये और वहाँ स्थित होकर उन्होंने अपनी दृष्टि मात्र से ही शत्रु पक्ष के सैनिकों की आयु का अपहरण कर लिया, उन अर्जुन के सखा भगवान् श्री कृष्ण में मेरी प्रीति हो जाय ।
व्यवहित पृतनामुखं निरीक्ष्य स्वजनवधाद् विमुखस्य दोषबुद्ध्या। 
कुमतिमहरदात्मविद्ययायश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु ।।
अर्जुन ने जब दूर से कौरवों की सेना के अग्रभाग में हम लोगों को देखा। तब पाप समझकर वह अपने स्वजनों के वध से विमुख हो गया और कहा -
कथं भीष्ममह संख्ये द्रोणञ्च मधुसूदन ।
भगवन् मैं भीष्मपितामह और गुरू द्रोणाचार्य के साथ बाणों से कैसे युद्ध करूंगा। ये महापुरूष तो पूजा करने के योग्य हैं, जिनके ऊपर पुष्प चढ़ाने चाहिए, उन पर बाणों को कैसे छोडूंगा । ऐसा कहकर धनुष बाण रख दिया और रथ पर बैठ गये । उस समय जिन्होंने गीता के रूप में आत्मविद्या का उपदेश करके अर्जुन के अज्ञान का नाश कर दिया, उन परम पुरूष भगवान् श्री कृष्ण के चरणों में मेरी निष्कपट प्रीति बनी रहे ।
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञामृतधिकर्तुमवप्लुतो रथस्यः । 
घृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलदगर्हरिरिव हन्तृमिभ गतोत्तरीयः ।। 
भीष्म पितामह कहते हैं मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि आज मैं हरि शस्त्र गहहिहों। आज मैं श्री कृष्ण को शस्र ग्रहण करा कर छोडूंगा। मेरी प्रतिज्ञा सत्य एवं प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने अपनी शस्त्र न ग्रहण करने की प्रतिज्ञा तोड़ दी और रथ से नीचे कूद पडे। सिंह जैसे हाथी को मारने के लिए उसपर टूट पड़ता है वैसे ही रथ का पहिया लेकर मुझपर झपट पड़े । वे मेरी ओर इतने वेग से दौड़े कि उनके कन्धे का दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी कांपने लगी |
उस समय मुझ आततायी ने तीखे बाण मारकर उनका कवच तोड़ दिया था जिससे सारा शरीर लहु-लुहान हो गया था। अर्जुन के रोकने पर भी वे मुझे मारने के लिए मेरी ओर दौड़े आ रहे थे। ऐसा करते हुए भी वे मेरे प्रति भक्तवत्सलता से परिपूर्ण थे ऐसे श्री कृष्ण के । चरण कमलों में मेरी निश्चल प्रीति हो जाय ।
जैसे कोई कुटुम्बी अपने कुटुम्ब की रक्षा करता है उसी प्रकार अर्जुन के रथ की रक्षा में तत्पर रहने वाले श्री कृष्ण के बायें हाथ में घोड़ों की रास थी और दाहिने हाथ में चावुक था । इन दोनों से उनकी अद्भुत शोभा हो रही थी और युद्ध में मरने वाले इस अद्भुत छवि का दर्शन करते रहने के कारण सारूप्य मोक्ष को प्राप्त हो गए, उन पार्थ सारथि श्रीकृष्ण में मेरी प्रीति हो जाय, प्रेम हो जाय ।
ललितगतिविलासंवल्गुहासप्रणयनिरीक्षणकल्पितोरूमानाः । 
कृतमनुकृतवत्यउन्मदान्धाः प्रकृतिमगन किल यस्यगोपबन्धः ।।
जिनकी सुन्दर चाल, हाव-भाव युक्त चेष्टाएं, मधुर मुस्कान और प्रेमभरी चितवन से अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीला में उनके अर्न्तध्यान हो जाने पर मतवाली होकर, जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गई थीं वह भगवान् श्री कृष्ण ही मेरी गति हैं ।
मुनिगणनृपवर्यसंकुलेऽन्तस्सदसि युधिष्ठिर राजसूय येषाम् । 
अर्हणम्पपेद ईक्षणीयो मम दृशिगोचर एष आविरात्मा ।।
जिस समय महाराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ हो रहा था मनियों और बड़े-बड़े राजाओं से भरी हुई सभा में सबसे पहले भगवान श्रीकष्ण की मेरे सामने पूजा हुई, वही सर्वात्मा श्रीकृष्ण आज मृत्यु के समय मेरे सामने खड़े हैं । अहो भाग्यम् मैं बहुत भाग्यशाली हूँ ।
तमिममहमजं शरीरभाजा हृदि हृदिधिष्ठितमात्मकल्पितानाम् । 
प्रतिदशमिव नैकधार्कमेकं समधिगताऽस्मि विधूतभेदमोह: ।।
जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखों से अनेक रूपों में दीखते हैं वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक देह धारियों के हृदय में अनेक रूप से जान पड़ते हैं, वास्तव में एक ही श्रीकृष्ण उसके हृदय में विराजमान हैं उन भगवान् श्रीकृष्ण को मैं भेदभाव से रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ ।
कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टिवृत्तिभिः ।
आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तःश्वास उपारमत् ।।
इस प्रकार भीष्मपितामह ने मन वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से अपने आप को श्रीकृष्ण में लीन कर दिया, उनके प्राण वहीं विलीन हो गए और वे शान्त हो गए । 
न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति अत्रैव समवलीयन्ते।
ज्ञानी के प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता, वहीं विलीन हो जाते हैं। यह उक्ति सार्थक हो गई ।
सम्पद्यमानमाज्ञाय भीष्म ब्रह्मणि निष्कले । 
सर्वे बभूवुस्ते तूष्णीं वयांसीव दिनात्यये ।।
भीष्म पितामह को अनन्त ब्रह्म में लीन जानकर सब लोग ऐसे चप हो गए जैसे सायंकाल के समय पक्षी मौन हो जाते हैं ।
तत्र दुन्दुभयोनेदुर्देवमानववादिताः । 
शशंसुः साधवो राज्ञा खात्पेतुः पुष्पवृष्टयः ।।
उस समय देवता और मनुष्य बाजे बजाने लगे सब उनकी प्रंशसा करने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी ।
भीष्म पितामह द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति
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